शनिवार, 25 फ़रवरी 2012

कुरुक्षेत्र ..... चतुर्थ सर्ग .... भाग -8


हृदय प्रेम को चढ़ा , कर्म को
              भुजा समर्पित  करके
मैं आया था कुरुक्षेत्र में
              तोष हृदय में भर के ।
 
समझा था , मिट गया द्वंद्व
             पा कर यह न्याय विभाजन
ज्ञात न था , है कहीं कर्म से
                कठिन स्नेह का बंधन । 
 
दिखा धर्म की भीति, कर्म
                 मुझसे सेवा लेता था ,
करने को बलि पूर्ण स्नेह
                नीरव इंगित देता था ।
 
धर्मराज , संकट में कृत्रिम
                 पटल उघर जाता है ,
मानव का सच्चा स्वरूप
            खुल कर बाहर आता है ।
 
घमासान ज्यों बढ़ा , चमकने
                 धुंधली लगी कहानी
उठी स्नेह - वंदन करने को
                 मेरी दबी जवानी ।
 
फटा बुद्धि -भ्रम , हटा कर्म का
              मिथ्या  जाल नयन से ,
प्रेम अधीर पुकार उठा
             मेरे शरीर से , मन से ।
 
लो , अपना सर्वस्व  पार्थ !
              यह मुझको मार गिराओ
अब है विरह असह्य, मुझे
             तुम स्नेह -धाम  पहुंचाओ ।
 
ब्रह्मचर्य्य के प्रण के दिन जो
                   रुद्ध हुयी थी धारा ,
कुरुक्षेत्र में फूट उसी ने
               बन कर प्रेम पुकारा ।
 
बही न कोमल वायु , कुंज
            मन का था कभी न डोला
पत्तों की झुरमुट में छिप कर
                 बिहग न कोई बोला ।
 
चढ़ा किसी दिन फूल , किसी का
                 मान न मैं कर पाया
एक बार भी अपने को था
               दान न मैं कर पाया ।
 
वह अतृप्ति थी छिपी हृदय के
               किसी निभृत कोने में ,
जा बैठा था आँख बचा
                जीवन चुपके दोने में ।
 
वही भाव आदर्श - वेदि पर
                चढ़ा फुल्ल हो रण में ,
बोल रहा है वही मधुर
             पीड़ा बन कर व्रण - व्रण में ।
 
मैं था सदा सचेत , नियंत्रण -
                  बंध प्राण पर बांधे ,
कोमलता की ओर शरासन
                तान निशाना साधे ।
 
पर , न जानता था , भीतर
                कोई माया चलती है ,
भाव - गर्त के गहन वितल में
               शिखा छन्न जलती है ।
 
वीर सुयोधन का सेनापति
                बन लड़ने आया था ;
कुरुक्षेत्र में नहीं , स्नेह पर
                  मैं मरने आया था ।
 
कह न सका वह कभी , भीष्म !
                 तुम कहाँ बहे जाते हो ?
न्याय - दण्ड- धर हो कर भी
                  अन्याय सहे जाते हो ।
 
क्रमश:
 
प्रथम सर्ग --        भाग - १ / भाग -२
द्वितीय  सर्ग  ---  भाग -- १ / भाग -- २ / भाग -- ३
तृतीय सर्ग  ---    भाग -- १ /भाग -२
चतुर्थ सर्ग ---- भाग -१    / भाग -२  / भाग - ३ /भाग -४ /भाग - ५ / भाग –6 /भाग -7

9 टिप्‍पणियां:

  1. कह न सका वह कभी , भीष्म !
    तुम कहाँ बहे जाते हो ?
    न्याय - दण्ड- धर हो कर भी
    अन्याय सहे जाते हो.bahut badhiya....

    जवाब देंहटाएं
  2. कुरुक्षेत्र में नहीं , स्नेह पर
    मैं मरने आया था ।
    यह स्नेह नहीं अंध मोह है!

    जवाब देंहटाएं
  3. मेरा सुझाव है कि "कुरूक्षेत्र" का आशय भी प्रस्तुत करना अच्छा होगा । इस पर दिए गए टिप्पणियों से पता चलता है कि टिप्पणी देने के लिए एक सहज औपचारिकता का निर्वाह किया जा रहा है । हमें इस ब्लॉग को ज्ञानवर्धक एवं सूचनाप्रद बनाने की कोशिश करनी चाहिए अन्यथा किसी का भी कमेंट यहां आकर अर्थहीन हो जाता है । यह मेरा अपना सुझाव है एव किसी भी व्यक्ति को इसे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अनुमानित अर्थ निकालने के लिए बाध्य नही करता है । धन्यवाद ।

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    उत्तर
    1. प्रेम सरोवर जी ,

      आपका सुझाव विचारणीय है .... कोशिश करूंगी कि संक्षेप में लिख सकूँ ॥

      हटाएं
    2. आपने मेरे सुझाव पर विचार किया, इसके लिए धन्यवाद ।

      हटाएं
  4. खरगोश का संगीत राग रागेश्री पर आधारित है जो कि खमाज थाट का
    सांध्यकालीन राग है, स्वरों में कोमल निशाद और बाकी स्वर शुद्ध लगते हैं,
    पंचम इसमें वर्जित है, पर हमने इसमें अंत में पंचम का प्रयोग भी किया है, जिससे इसमें राग बागेश्री भी झलकता है.

    ..

    हमारी फिल्म का संगीत वेद नायेर ने दिया है.

    .. वेद जी को अपने संगीत कि प्रेरणा जंगल में चिड़ियों कि चहचाहट से
    मिलती है...
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