tag:blogger.com,1999:blog-5455274503155889135.post6697125178784949190..comments2024-03-14T12:42:05.665+05:30Comments on राजभाषा हिंदी: नाट्य साहित्य – द्विवेदी युगराजभाषा हिंदीhttp://www.blogger.com/profile/17968288638263284368noreply@blogger.comBlogger5125tag:blogger.com,1999:blog-5455274503155889135.post-31242493292100999352023-12-25T05:42:07.172+05:302023-12-25T05:42:07.172+05:30Dwivedi Yug ke natakkar kaun theDwivedi Yug ke natakkar kaun theAnonymousnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5455274503155889135.post-27865321767986790062011-08-05T14:32:48.794+05:302011-08-05T14:32:48.794+05:30नटी साहित्य पर कभी भी इतना कुछ नहीं पढ़ा था .. शोध...नटी साहित्य पर कभी भी इतना कुछ नहीं पढ़ा था .. शोधपरक जानकारी के लिए आभारसंगीता स्वरुप ( गीत )https://www.blogger.com/profile/18232011429396479154noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5455274503155889135.post-12399521288941449132011-08-05T12:39:13.595+05:302011-08-05T12:39:13.595+05:30यह श्रृंखला इतनी रोचक और ज्ञानवर्धक है कि एक लंबे ...यह श्रृंखला इतनी रोचक और ज्ञानवर्धक है कि एक लंबे समय तक नाटक से जुड़े रहने के बावजूद भी इतने सिलसिलेवार तौर पर एक विधा के रूप में इसको समझने का अवसर नहीं मिला. <br />मनोज जी आभार आपका!!चला बिहारी ब्लॉगर बननेhttps://www.blogger.com/profile/05849469885059634620noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5455274503155889135.post-33056357829554611972011-08-05T10:43:35.172+05:302011-08-05T10:43:35.172+05:30बहुत सुन्दर...बधाईबहुत सुन्दर...बधाईचन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’https://www.blogger.com/profile/01920903528978970291noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5455274503155889135.post-4644134592273163042011-08-05T08:40:09.565+05:302011-08-05T08:40:09.565+05:30आचार्य रामचन्द्र शुक्ल कहते हैं, “इन मौलिक रूपकों...आचार्य रामचन्द्र शुक्ल कहते हैं, “इन मौलिक रूपकों की सूची देखने से यह लक्षित हो जाता है कि नाटक की कथावस्तु के लिये लोगों का ध्यान अधिकतर ऐतिहासिक और पौराणिक प्रसंगों की ओर ही गया है। वर्तमान सामाजिक और पारिवारिक जीवन के विविध उलझे हुए पक्षों का सूक्षमता के साथ निरीक्षण करके उनके मार्मिक या अनूठे चित्र खड़ा करनेवाली उद्भावना उनमें नहीं पाई जाती।”<br /><br />मनोज कुमार जी, इस संबंध में मैंने आपके द्वारा प्रस्तुत पूर्ववर्ती नाट्य-विधा पर इन विचारों को भी स्थान दिया है। समय और तदयुगीन विसंगतियां एवं व्यावसाय प्रधान न होने के कारण यह विधा शनै-शनै विलुप्त होती चली गयी। इनके परवर्ती नाट्यकारों ने पुन: इसे एक नया दिशा और दशा प्रदान करने की कोशिश करते रहे परंतु जनमानस के बीच इसे साफल्य-मंडित करने में असमर्थ रहे। अन्य लोगों के साथ मोहन राकेश द्वारा पारिवारिक एवं सामाजिक परिस्थितियो की पृष्ठभूमि में रचित नाटक 'आधे अधूरे','आषाढ़ का एक दिन' एवं 'लहरों के राजहंस' अपनी समग्रता मे कुछ हद तक मानवीय संवेदना को आंदोलित करने में सफल रहे। अंत मे, मेरी अपनी मान्यता है कि रंगकर्मियों की इस विधा के प्रति उदासीनता, नाट्य प्रेमियों की अरूचि के साथ-साथ रंगशालाओं के सूनापन को देखने से प्रतीत होता है कि एक लम्बे सफर की यात्रा तय करने के बाद यह विधा अब विलुप्ति की आखिरी छोर की ओर बढ़ती हुई प्रतीत हो रही है। काश!ऐसा नही होता। एक अच्छे विधा से परिचित कराता आपका यह पोस्ट बहुत ही ज्ञानपरक है।<br />धन्यवाद।प्रेम सरोवरhttps://www.blogger.com/profile/17150324912108117630noreply@blogger.com