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शनिवार, 30 जनवरी 2010

आम आदमी की हिंदी प्रयोजनमूलक हिंदी के ज़रिए (भाग-7)

आज चक दे इंडिया हिट है!!

यह भी कहा जाता है कि बाज़ारवाद के असर में हिंदी भाषा के बदलते रूप से लोग आतंकित हैं। कुछ यह कहते मिल जाएंगे कि हमें बाज़ार की हिंदी से नहीं बाज़ारू हिंदी से परहेज़ है। उनका यह मानना है कि ऐसी हिंदी -- भाषा को फूहड़ और संस्कारच्युत कर रही है। यह अत्यंत दुखद और संकीर्णता से भरी स्थिति है। यह मात्र पान-ठेले के लोगों की समझ में आने वाली भाषा मात्र बन कर रह जाएगी। जिस बाज़ारू भाषा को बाज़ारवाद से ज़्यादा परहेज़ की चीज़ कहा जा रहा है वह वास्तव में कोई भाषा रूप ही नहीं है। कम से कम आज के मास कल्चर और मास मीडिया के जमाने में। आज अभिजात्य वर्ग की भाषा और आम आदमी और बाज़ारू भाषा का अंतर मिटा है। क्योंकि आम आदमी की गाली-गलौज वाली भाषा भी उसके अंतरतम की अभिव्यक्ति करने वाली यथार्थ भाषा मानी जाती है। उसके लिए साहित्य और मीडिया दोनों में जगह है, ब्लॉग पर भी। आज सुसंस्कृत होने की पहचान जनजीवन में आम इंसान के रूप में होने से मिलती है। दबे-कुचलों की जुबान बनने से मिलती है, गंवारू और बाज़ारू होने से मिलती है। यह हिन्दी उनकी ही भाषा में पान-ठेले वालों की भी बात करती है, और यह पान-ठेले वालों से भी बात करती है, और उनके दुख-दर्द को समझती और समझाती भी है। साथ ही उनमें नवचेतना जागृत करने का सतत प्रयास करती है। अत: यह आम आदमी की हिंदी है, बाज़ारू है तो क्या हुआ। बाज़ार में जो चलता है वही बिकता है और जो बिकता है वही चलता भी है।

प्राय: यह देखने में आता है कि अनुवादों की दुरूहता, तत्सम् शब्दों के प्रयोग के रुझान के कारण हिंदी भाषा को इतना बोझिल और कृतिम बना दिया जाता है कि इसकी स्वाभाविकता नष्ट होने लगती है। प्रचलित और सबकी समझ में आने वाली व्यवहार-कुशल हिंदी ही संपर्कभाषा का रूप ले सकती है। सरकारी कार्यालयों में साहित्यिक और व्याकरण सम्मत हिंदी का आग्रह रख हम इसका विकास नहीं कर सकेंगे। सामान्य बोलचाल में प्रचलित अंग्रेज़ी, पुर्तगाली, अरबी, फ़ारसी, उर्दू से लेकर देश की तमाम बोलियों और प्रादेशिक भाषाओं के शब्दों के हिंदी में प्रयोग से सही अर्थों में यह जनभाषा बन सकेगी और तभी हिंदी और हिंदीतर भाषाईयों के बीच की दूरी पट सकेगी। हिन्दी की विकास यात्रा में इसे हिंगलिश बनाने का किंचित प्रयास स्तूत्य नहीं है। हां, इसे निश्‍चय ही और अधिक प्रयोजनमूलक यानी फंक्शनल बनाया जाए। प्रयोजनमूलक हिन्दी जीवन और समाज की ज़रूरतों से जुड़ी एक जीवन्त, सशक्त और विकासशील हिन्दी भाषा है। आज ऐसी ही प्रयोजनमूलक हिंदी के ज़रिए हमारा प्रयास भारत के सभी प्रांतों, अंचलों और जनपदों को सौहार्द्र, सौमनस्य व परस्पर स्नेह से एक सूत्र में बांधने का है। तभी तो आज चक दे इंडिया हिट है!!

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4 टिप्‍पणियां:

  1. आप्का लेख पसन्द आया. आपके द्वारा प्रस्तुत विचार उम्दा है.

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  2. मैं आपसे सहमत हूँ कि हिंदी भाषा में अन्य भाषाओं के शब्दों का प्रयोग प्रयोजनमूलक हिंदी के लिए किया जाए । लेकिन हिंदी को समृद्ध बनाने में हमें भारतीय शब्दों या तत्सम शब्दों को प्रचलित करना ही होगा । और यह प्रचलन तभी संभव है जब हर व्यक्ति हिंदी का स्तरीय साहित्य पढ़े और पढ़े हुए को व्यवहार में लाए । क्योंकि किसी तत्सम शब्द का कोई भी विकल्प हम आज पैदा नहीं कर सकते और यदि करते भी हैं तो उसमें वही अर्थ,भाव, सौंदर्य,गांभीर्य और पूर्णता नहीं आती । भारतीय रिज़र्व बैंक ने processing unit के लिए हिंदी में शब्द दिया है : प्रसंस्करण इकाई, अब इस शब्द में कोई बुराई नहीं है,क्योंकि इसमें पहले से निर्धारित किसी विशेष प्रक्रिया से गुजने का भाव है । लेकिन इसे प्रक्रिया इकाई कहने पर वह भाव नहीं आएगा । इसी तरह micro finance के लिए हिंदी में शब्द है : व्यष्टि वित्त । अब व्यष्टि शब्द का दूसरा विकल्प आप कहेंगे सूक्ष्म या छोटा तो यहां वह अंग्रेजी का सही भाव संप्रेषित नहीं करेगा । अत: मेरा मानना है कि हिंदी का सरलीकरण गुणवत्ता आधार पर होना चाहिए । शब्द स्वयं में न सरल होता है और न ही कठिन । हमारा उस शब्द से परिचय या अपरिचय उसे सरल या कठिन बनाता है । आज सर्वाधिक जरूरत है हिंदी के शब्दों की गरीमा बनाए रखने की ।

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  3. @ आ. मनोज भारती जी आपकी बातो़ से सहमत हूं। इसी आलेख की श्रींखला में हमने भी यह बात कही है कि कोई भी शब्द कठिन या सरल नहीं होता। यह तो उसके प्रचलन पर निर्भर करता है। आपके विस्त्रित विचार ने हमारा मनोबल बढाया है। आगे भी अपने सुझाव एवं विचार देते रहेंगे।

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