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गुरुवार, 21 जनवरी 2010

राष्ट्रभाषा और राजभाषा

राष्ट्रभाषा और राजभाषा


 --- मनोज कुमार


बात मैं एक अनुभव से शुरु करता हूं। तब ब्लाग लेखन से नया-नया ही जुड़ा था। यह भ्रांति पाल रखी थी कि ज़्यादा-से-ज़्यादा ब्लाग पर जाकर कमेंट देने से लोग मेरे ब्लाग पर भी आयेंगे। और इस सिद्धांत का पालन करने के चक्कर में कुछ न कुछ कमेंट देता फिरता था। इसी चक्कर में एक ब्लाग पर निम्नलिखित कमेंट एक ब्लागर की हैसियत से दिया

मैं आपके आलेख में व्यक्त किये गए विचारों से सहमत हूं। कोई विवाद नहीं, एक विचार रखना चाहता हूं। विनम्रता के साथ। मैं व्याकरण का विशेषज्ञ भी नहीं हूं। पर राजभाषा के क्रियान्वयन से जुड़ा हूँ। मैं पहले फिर से स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मैं भी यह मानता हूं कि हिन्दी का ही व्याकरण अपनाया जाना चाहिए।
पर यहों जो उदाहरण दिए गये हैं, हो सकता है कि उन्हें राजभाषा के वैयाकरणों ने अभी तक राजभाषा की शब्दावली में जगह न दिया हो। तब तक की स्थिति के लिए राजभाषा में नियम है कि उन शब्दों को आप वैसा ही बोलें जैसा अंग्रेजी में बोलते हैं और लिखने वक़्त वैसे ही देवनागरी में लिखें। इसलिए शायद Channels (चैनेल्स) Blogs (ब्लॉग्स) को देवनागरी में वैसा चैनेल्स ब्लॉग्स लिखा जाता है।

इसके जवाब में एक कमेंट आया इस प्रकार --

@मनोज कुमार

राजभाषा के वैयाकरणवेत्ताओं ने अभी तक राजभाषा की शब्दावली में जगह न दिया हो। ('.... जगह न दी हो|' सही प्रयोग होगा.)

राजभाषा क्रियान्वयन से जुड़े लोगों से भाषा में इतनी शुद्धता की उम्मीद तो की ही जा सकती है. 

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व्याकरण के नियम अनऔपचारिक और जनमानस में रूढ़ होते हैं. इन्हें सरकार की किसी नियम पुस्तिका के चश्मे से ही नहीं देखा जा सकता, और देखा भी नहीं जाना चाहिए. जहाँ तक शुद्धता सम्बन्धी मुद्दे का प्रश्न है, यह मुद्दे भाषा के जानकारों, विद्वानों और बोलने वालों पर छोड़ दिए जाने चाहिए. सरकार और बाज़ार ही भाषा को नष्ट-भ्रष्ट करने के सबसे बड़े अपराधी हैं.

किस किस बात पर और कब तक हम सरकार के भरोसे रहेंगे, क्या सरकार में बैठे लोग ईश्वर हैं?

सरकारी कामों की गति सब जानते ही हैं, जब तक ब्लॉग जैसे शब्दों पर इनकी नज़रे इनायत होगी. ब्लॉग पुराने ज़माने की बात हो चुका होगा और इसके आगे की तकनीक आ चुकी होगी. 

भारत में विभिन्न प्रकार के टीवी चैनल आए उन्नीस वर्ष बीत गए, पर आज भी चैनल शब्द 'राजभाषा की शब्दावली' की प्रतीक्षा सूची में ही टंगा है.

फिर मैंने अपने निम्न्लिखित विचार  व्यक्त किये थे -

**राजभाषा क्रियान्वयन से जुड़े लोगों से भाषा में इतनी शुद्धता की उम्मीद तो की ही जा सकती है. 
-- अशुद्धि से अवगत कराने के लिए थैंक्स।
**किस किस बात पर और कब तक हम सरकार के भरोसे रहेंगे, क्या सरकार में बैठे लोग ईश्वर हैं?
-- नहीं, नहीं। मेरे अनुसार।
** सरकार और बाज़ार ही भाषा को नष्ट-भ्रष्ट करने के सबसे बड़े अपराधी हैं.
--- जी।
**भारत में विभिन्न प्रकार के टीवी चैनल आए उन्नीस वर्ष बीत गए, पर आज भी चैनल शब्द 'राजभाषा की शब्दावली' की प्रतीक्षा सूची में ही टंगा है.
-- जो चैनल केन्द्रीय सरकार के अधीन नहीं हैं उन पर राजभाषा के नियमों को मानने की बाध्यता नहीं है।
** हिंदी को सही अर्थ में जनभाषा और राजभाषा बनाने के लिए सामूहिक प्रयत्न की आवश्यकता है। 
--- मैंने तो यह पढ़कर थोड़ी सी बात रखी थी यह कहते हुए कि मैं आपकी बातों से सहमत हूं। क्या पता था कि सर मुड़ते ही ओले पड़ेंगे।
मैं इससे भी सहमत हूं--
**व्याकरण के नियम अनऔपचारिक और जनमानस में रूढ़ होते हैं. इन्हें सरकार की किसी नियम पुस्तिका के चश्मे से ही नहीं देखा जा सकता, और देखा भी नहीं जाना चाहिए. जहाँ तक शुद्धता सम्बन्धी मुद्दे का प्रश्न है, यह मुद्दे भाषा के जानकारों, विद्वानों और बोलने वालों पर छोड़ दिए जाने चाहिए.

अब मैं अपनी बात पर आता हूं।

1.    वह टिप्पणी मैंने एक ब्लागर की हैसियत से की थी पर सरकार को भी कोसा गया।

2.    उस टिप्पणी (सरकारी कामों की गति सब जानते ही हैं, जब तक ब्लॉग जैसे शब्दों पर इनकी नज़रे इनायत होगी. ब्लॉग पुराने ज़माने की बात हो चुका होगा और इसके आगे की तकनीक आ चुकी होगी. ) ने मुझे प्रेरित किया कि मैं राजभाषा के प्रति समर्पित एक ब्लाग से जुड़ूं। और राजभाषा क्रियान्वयन से जुडे़ लोगों से आह्वान करूं कि वे भी इससे जुड़ें और सबको यह बतायें कि आप सरकार की नीतियों के अनुपालन के साथ-साथ हिन्दी साहित्य के प्रति भी क्या योगदान करते हैं ... कर रहे हैं।

3.    योगदान से संबंधित आज एक ही उदाहरण देना चाहता हूं। केंद्रीय सरकार का निर्देश है कि सभी कर्यालयों की पुस्तकालय के लिये ख़रीदी जाने वाली पुस्तकों के कुल मूल्य से आधे की पुस्तकें हिन्दी साहित्य की होनी चाहिये। इसके अलावे अख़बार और पत्रिकायें भी। इसे वहां के कर्मचारी पढते हैं। सिर्फ़ हमारे संगठन में साठ इकाइयां हैं, यानि साठ पुस्तकालय।


अब विषय पर आता हूं। आम तौर पर यह कहते सुना जाता है कि हिन्दी भारत कि राष्ट्रभाषा है। यदि ऐसा है तो फ़िर बंगला, मराठी, तमिल, कन्नड़ आदि क्या है? स्वतंत्रता के पहले पूरा देश हिन्दी को राष्ट्रभाषा कहता था। इसके बारे में विस्तार से चर्चा अलग से एक लेख में करूंगा। आज़ादी के बाद आज़ाद भारत के संविधान ने हिन्दी को केन्द्र सरकार की राजकाज की भाषा, यानी राजभाषा माना।  राजभाषा बनाम राष्ट्रभाषा बहस में हम नहीं पड़ना चाहते। हम यहां सिर्फ़ राजभाषा हिन्दी की बात करेंगे।


 संविधान की धारा 351 के तहत हिन्दी भाषा के विकास के लिए यह निदेश है कि हिन्दी भाषा की प्रसार व्रिद्धि करना, उसका विकास करना ताकि वह भारत की सामासिक संस्क्रिति के सब तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम हो सके तथा उसकी आत्मीयता में हस्तक्षेप किए बिना हिन्दुस्तानी और अष्टम अनुसूची में उल्लिखित अन्य भारतीय भाषाओं के रूप, शैली और पदावली को आत्मसात करते हुए तथा जहां आवश्यक हो वहां उसके शब्द-भंडार के लिये मुख्यत: संस्क्रित से तथा गौणत: अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी सम्रिद्धि सुनिश्चित करना संघ का कर्तव्य होगा।


संविधान की अष्टम अनुसूची





क्र.सं

भाषा

०१

असमिया

०२

बंगला

०३

बोडो

०४

डोगरी

०५

गुजराती

०६

हिन्दी

०७

कन्न्ड़

०८

कश्मीरी

०९

कोंकणी

१०

मैथिली

११

मलयालम

१२

मणीपुरी

१३

मराठी

१४

नेपाली

१५

उड़िया

१६

पंजाबी

१७

संस्क्रित

१८

संथाली

१९

सिंधी

२०

तमिल

२१

तेलुगु

२२

उर्दू





हज युग में हर भाषा के दो रूप होते हैं, पहला उसका साहित्यिक रूप और दूसरा कामकाजी रूप, ... प्रयोजनी, ... प्रयोजनमूलक रूप। हिन्दी का  साहित्यिक रूप तो काफ़ी संपन्न है। विकसित है। इसका प्रयोजनमूलक रूप अभी अपनी शैशवावस्था में है। कल से हम उसकी ही चर्चा शुरु करेंगे। आज इतना ही। नमस्कार!!

2 टिप्‍पणियां:

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