अंक
सरकारी कामकाज में प्रयुक्त होने वाले अंकों के स्वरूप की समस्या पर 1949 में सदन में काफी वाद-विवाद हुआ। अंत में यह निर्णय लिया गया कि संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप भारतीय अंकों का अंतर्राष्ट्रीय रूप होगा।
भारतीय अंकों के अंतरराष्ट्रीय स्वरूप का आविर्भाव हमारे देश में ही हुआ। एक दो अपवादों को छोड कर सारे संसार ने इन अंकों को अपना लिया है।
आठवीं शताब्दी में जब द्वितीय अब्बासीदी ख़लीफ़ा, अल मंसूर की हुकूमत थी, भारतीय आयुर्वेदिक डाक्टरों की एक टोली बग़दाद पहुंची और और अल मंसूर के दरबार में आई। इस दल का एक वैद्य खगोलशास्त्र का विशेषज्ञ था और उसके पास ब्रह्मगुप्त की “सिद्धांत” नाम की पुस्तक भी थी। जब अल मंसूर को इसका पता चला तो उसने अरब के एक दार्शनिक इब्राहीम अलग़ज़ारी को “सिद्धांत” का भारतीय पंडित की मदद से अरबी में अनुवाद करने का आदेश दिया। ऐसा माना जाता है कि अरब के लोगों को इस अनुवाद द्वारा भारतीय अंकों की जानकारी हुई और जब उन्होंने इन अंकों के प्रचुर लाभ को देखा तो उन्होंने तत्काल इन्हें अपना लिया। लातीनी की भांति अरबी में भी अंकों के लिए कोई विशेष चिह्न नहीं थे। प्रत्येक संख्या और अंकों को शब्दों में लिखा जाता था। संक्षेप के लिए कुछ वर्णों का संख्यात्मक मूल्य होता था। इस परिस्थिति में भारतीय अंकों द्वारा गिनती के लिए उन्हें एक बहुत सरल प्रणाली उपलब्ध हो गई। तत्पश्चात् ये अंक अरबी अंकों के नाम से प्रसिद्ध हो गए। यूरोप पहुंचने के बाद उन्होंने वह अंतरराष्ट्रीय रूप धारण किया और आज हम इन्हें इस रूप में पाते हैं।
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जान्कारी पसन्द आयी.
जवाब देंहटाएंअच्छी जानकारी।
जवाब देंहटाएंआपकी यह जानकारी अच्छी लगी.
जवाब देंहटाएंअंतरजाल पर विचरनेवालों के लिए
जवाब देंहटाएंये जानकारियाँ बहुत जरूरी हैं!
इनका प्रचार-प्रसार करके आप
बहुत अच्छा कार्य कर रहे हैं!
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कह रहीं बालियाँ गेहूँ की - "मेरे लिए,
नवसुर में कोयल गाता है - मीठा-मीठा-मीठा!"
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संपादक : सरस पायस
aआपका आभार!
जवाब देंहटाएंआपकी यह जानकारी अच्छी लगी
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