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सोमवार, 26 अप्रैल 2010

काव्य शास्त्र-6 :: आचार्य भामह

आचार्य भामह :: -- आचार्य परशुराम राय

आचार्य भामह का काल निर्णय भी अन्य पूर्ववर्ती आचार्यों की तरह विवादों के घेरे में रहा है। आचार्य भरतमुनि के बाद प्रथम आचार्य भामह ही हैं जिनका काव्यशास्त्र पर ग्रंथ उपलब्ध है। आचार्य भामह के काल निर्णय के विवाद को निम्नलिखित मतों में विभाजित कर सकते हैः-

1. कालिदास पौर्वापर्य (पूर्ववर्ती/परवर्ती) मत

2. माघ पौर्वापर्य (पूर्ववर्ती/परवर्ती) मत

3. भाष पौर्वापर्य (पूर्ववर्ती/परवर्ती) मत

4. भट्टि पौर्वापर्य (पूर्ववर्ती/परवर्ती) मत

5. दण्डी पौर्वापर्य (पूर्ववर्ती/परवर्ती) मत

आचार्य भामह ने ‘अयुक्तिमत्’ दोष के उदाहरण में मेघ आदि निर्जीव चीजों को दूत बनाने उल्लेख किया है। इसके आधार पर कतिपय विद्धान महाकवि कालिदास द्वारा विरचित खण्डकाव्य ‘मेघदूतम्’ से सम्बन्ध जोड़ते हुए आचार्य भामह को महाकवि कालिदास का उत्तरवर्ती आचार्य मानते हैं। वैसे डॉ टी. गणपति शास्त्री आदि अनेक विद्वान इस मत से सहमत नहीं हैं। इसके लिए प्रमाण स्वरूप इनका कहना है कि आचार्य भामह ने मेधावी, रामशर्मा, अश्मकवंश, रत्नाहरण आदि कवियों/आचार्यों के नामों का उल्लेख अपने ग्रंथ में किया है और यदि कालिदास उनके पूर्ववर्ती होते तो वे उनके नाम का भी उल्लेख अवश्य करते। इस आधार यह दल आचार्य भामह को महाकवि कालिदास का पूर्ववर्ती मानता है। अन्य साक्ष्यों के परिप्रेक्ष्य में अन्तिम मत अधिक सशक्त है।

महाकविमाघ कृत ‘शिशुपालवधम्’ महाकाव्य के एक श्लोक में उन्होंने लिखा है कि जिस प्रकार सत्कवि शब्द और अर्थ दोनों की अपेक्षा करता है, वैसे ही राजनीतिज्ञ भाग्य और पौरुष दोनों चाहता है। आचार्य भामह ने काव्य को परिभाषित करते हुए ‘शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्’लिखा है। इसी आधार पर कुछ विद्वान आचार्य भामह को महाकवि माघ का पूर्ववर्ती मानते हैं। ऐसे ही अन्य युक्तियाँ दी गयीं हैं। ऐसी युक्तियों के आधार पर पूर्ववर्ती या उत्तरवर्ती होने का निर्णय न्याय संगत नहीं हैं।

ऐसी ही युक्तियों को आधार मानकर कुछ विद्वान आचार्य भामह को नाटककार भास का उत्तरवर्ती मानते हैं। क्योंकि आचार्य भामह ने वत्सराज उदयन की कथा का उल्लेख किया है और इसी कथा का वर्णन महाकवि भास द्वारा विरचित नाटिका ‘प्रतिज्ञायौगन्धरायण’ में आया है। जबकि इस कथा के अलावा अनेक कथाएँ ‘वृहत्कथा’ में मिलती हैं। हो सकता है कि आचार्य भामह ने‘वृहत्कथा’ के आधार पर वत्सराज उदयन की कथा का उल्लेख किया हो। क्योंकि ‘वृहत्कथा’ अत्यन्त प्रसिद्ध ग्रंथ-कथा साहित्य है। इसलिए मात्र इस आधार पर आचार्य भामह को भास का उत्तरवर्ती नहीं माना जा सकता।

इसी प्रकार अन्य मत भी ऐसी ही युक्तियों पर आधारित हैं। विभिन्न साक्ष्यों के आधार पर आचार्य भामह का कालनिर्णय छठवें विक्रमसंवत माना गया है। आचार्य भामह के माता-पिता, गुरु आदि के विषय में कोई प्रामाणिक विवरण उपलब्ध नहीं है।

अन्य ग्रंथों में आये उद्धरणों से पता चलता है कि इन्होने‘काव्यालंकार’ के अलावा छंद-शास्त्र और काव्यशास्त्र पर अन्य ग्रंथों की रचना की थी। किन्तु दुर्भाग्य से इनका केवल ‘काव्यालंकार’ ही मिलता है। राघवभट्ट ने‘अभिज्ञान-शाकुन्तलम्’ की टीका करते समय पर्यायोक्त अलंकार का लक्षण आचार्य भामह के नाम से उद्धृत किया है जो काव्यालंकार’ में नहीं मिलता। इससे माना जाता है कि ‘काव्यालंकार’ के अलावा काव्यशास्त्र पर आचार्य भामह ने दूसरे ग्रंथ का भी प्रणयन किया था। लेकिन इस तर्क से सभी विद्वान सहमत नहीं हैं। यहाँ उन लक्षणों को उद्धृत किया जाता है।

पर्यायोक्तं प्रकारेण यदन्येनाभिधीयते।

वाच्य-वाचकशक्तिभ्यां शून्योनावगमात्मना।।

(भामह के नाम से राघवभट्ट द्वारा उद्धृत पर्यायोक्त अलंकार का लक्षण (परिभाषा)

पर्यायोक्तं यदन्येन प्रकारेणाभिधीयते।

उवाच रत्नाहरणे वैद्यं शार्ङ्गधनुर्यथा।।

(उक्त अलंकार का लक्षण काव्यालंकार’ के अनुसार)

उक्त दोनों आरिकाओं के पूर्वाद्ध थोड़ा अन्तर के साथ समान हैं। इसमें एक सम्भावना बनती है कि काव्यालंकार की जो प्रति राघवभट्ट के हाथ लगी हो उसमें ‘पर्यायोक्त’ का लक्षण उस रूप में दिया गया हो। क्योंकि वर्तमान ‘काव्यालंकार’ में मिलने वाला पर्यायोक्त अलंकार का लक्षण अधूरा लगता है। अतएव लगता है कि दूसरी पंक्ति प्रतिलिपि करने में छूट गयी हो, जिसके आधार पर वर्तमान काव्यालंकार प्रकाशित हुआ है।

इस प्रकरण में जो दूसरा अन्तर देखने में आता है कि उक्त अलंकार के उदाहरण में ‘हयग्रीववधस्थ’ के एक श्लोक को उदाहरण के रूप में आचार्य भामह द्वारा उद्धृत करने का उल्लेख राघवभट्ट द्वारा किया गया है। परन्तु वर्तमान ‘काव्यालंकार’ में नहीं मिलता। इस सम्बन्ध उपर्युक्त उक्ति सार्थक लगती है, अर्थात् वर्तमान काव्यालंकार की पाण्डुलिपि करने में छूट गया हो।

आचार्य भामह के काव्यालंकार पर आचार्य उद्भट ने‘भामहविवरण’ नामक टीका लिखी थी, जो आज उपलब्ध नहीं है। केवल अन्य ग्रंथों में आए उद्धरणों से ही इसकी जानकारी मिलती है।

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5 टिप्‍पणियां:

  1. badhaai ho bhai, ki kuchh hat kar saamagree de rahe hai. vismrit samriddhiyon ke punarpaath hame parishkrit hi karate hain.

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  2. Sabhi ko koti koti nmn
    Meri vinti h ki Sanskrit ke mukhhya kviyon ke naam krmaanusar v isvi ke sath likhh kr Dale
    Apki mhti kripaaa hm PR aasirvad ruup me brsti rhe
    Jai tu sanskritm

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  3. मेरी कुल परंपरा में गोत्र भामह आता है। जिसका संबंध कश्मीर से है। जो क्षत्रोपेत ब्राह्मण वर्ग में है।

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