श्रीमद भगवत में गंगावतरण की कथा है। प्राचीन काल की बात है। अयोध्या में इक्ष्वाकु वंश के राजा सगर राज करते थे। वे बड़े ही प्रतापी, दयालु, धर्मात्मा और प्रजा हितैषी थे।
सगर का शाब्दिक अर्थ है विष के साथ जल। हैहय वंश के कालजंघ ने सगर के पिता वाहु को एक संग्राम में पराजित कर दिया था। राज्य से हाथ धो चुके वाहु अग्नि और्व ऋषि के आश्रम चले गए।
इसी समय वाहु के किसी दुश्मन ने उनकी पत्नी को विष खिला दिया। जब उन्हें जहर दिया गया तो वो गर्भवती थी। ऋषि और्व को जब यह पता चला तो उन्होंने अपने प्रयास से वाहु की पत्नी को विषमुक्त कर जान बचा ली। इस प्रकार भ्रूण की रक्षा हुई और समय पर सगर का जन्म हुंआ। विष को गरल कहते हैं। चूकिं बालक का जन्म गरल के साथ हुआ था इस लिए वह स + गर = सगर कहलाया।
सगर के पिता वाहु का और्व ऋषि के आश्रम में ही निधन हुआ। सगर बड़े होकर काफी बलशाली और पराक्रमी हुए। उन्होंने अपने पिता का खोया हुआ राज्य वापस अपने बल और पराक्रम से जीता। इस प्रकार सगर ने हैहयों को जीत कर अपने पिता की हार का बदला लिया।
ऋषि अग्नि अर्व हैहयों के परंपरागत शत्रु थे। उन्होंने भी सगर को हैहयों के विरूद्ध संग्राम में हर प्रकार की सहायता प्रदान की। सगर की दो पत्नियां थी वैदर्भी और शैव्या। राजा सगर ने कैलाश पर्वत पर दोनों रानियों के साथ जाकर भगवान शंकर की कठिन तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उनसे कहा कि तुमने पुत्र प्राप्ति की कामना से मेरी आराधना की है। अतएव मैं तुम्हें वरदान देता हूँ कि तुम्हारी एक रानी के साठ हजार पुत्र होंगे किन्तु दूसरी रानी से तुम्हारा वंश चलाने वाला एक ही सन्तान होगा।
वैदभी के गर्भ से मात्र एक पुत्र था उसका नाम था असमंज। वे बड़े दुष्ट और प्रजा को दुख पहुंचाने वाले थे। जबकि सगर अत्यंत ही धार्मिक सहिष्णु और उदार थे। सगर के लिए असमंज का व्यवहार बड़ा ही दुख देने वाला था। जब उसकी आदतें नहीं सुधरी तो सगर ने असमंज को त्याग दिया।
असमंज के औरस से अंशुमान का जन्म हुआ। वह बहुत ही पराक्रमी था। अंशुमान ने अश्वमेघ और राजसूय यज्ञ सम्पन्न कराया और राजर्षि की उपाधि प्राप्त की।
शैव्या के गर्भ से साठ हजार पुत्र उत्पन्न हुए। सभी काफी वीर और पराक्रमी थे। उनके ही बल पर सगर ने मध्यभारत में एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की।
सगर न सिर्फ बहुबली और पराक्रमी थे, बल्कि धार्मिक प्रकृति के व्यक्ति भी थे। वे ऋषियों महर्षियों का काफी आदर सत्कार और सम्मान किया करते थे। वशिष्ठ मुनि ने सगर को सलाह दी की अश्वमेघ यज्ञ का अनुष्ठान करें ताकि उनके साम्राज्य का विस्तार हो।
ऐसी मान्यता है कि प्राचीन काल में किए जाने वाले यज्ञानुष्ठानों में अश्वमेघ यज्ञ और राजसूय यज्ञ सर्वश्रेष्ठ थे। उन दिनों बड़े व प्रतापी और पराक्रमी सम्राट ही अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन करते थे। इस यज्ञ में 99 यज्ञ सम्पन्न होने पर एक बहुत अच्छे गुणों वाले घोड़े पर जयपत्र बांध कर छोड़ दिया जाता था। उस पत्र पर लिखा होता था कि घोड़ा जिस जगह से गुजरेगा वह राज्य यज्ञ करने वाले राजा के अधीन माना जाएगा। जो राजा या जगह स्वामी अधीनता स्वीकार नहीं करते थे, वे उस घोड़े को रोक लेते थे और युद्ध करते थे।
घोड़े के साथ हजारों सैनिक साथ साथ चलते थे। एक वर्ष पूरा होने पर घोड़ा वापस लौट आता था। इसके बाद उसकी बलि देकर यज्ञ पूर्ण होता था। महाराजा सगर ने अपने यज्ञ के घोड़े श्यामकर्ण की सुरक्षा के लिए हजारो सैनिकों की व्यवस्था की थी। वीर बाहुबलि सैनिक घोडे़ के साथ निकले, और आगे बढ़ते रहे। सगर का प्रताप चतुर्दिक फैल रहा था। जगह जगह उनके बल-पराक्रम और शौर्य की चर्चा होने लगी।
इससे देवराज इन्द्र को शंका हुई। सगर के इस अश्वमेघ यज्ञ से भयभीत होकर इन्द्र यह सोचने लगे कि अगर यह अश्वमेघ यज्ञ सफल हो गया तो यज्ञ करने वाले को स्वर्गलोक का राजपाट मिल जाएगा। इन्द्र ने यज्ञ के घोड़े को अपने मायाजाल के बल पर चुरा लिया। इतना ही नहीं उन्होंने इस घोड़े को पाताललोक में तपस्यारत महामुनि कपिल के आश्रम में छिपा दिया। उस समय मुनि गहन साधना में लीन थे। फलतः उन्हें पता ही नहीं लगा कि क्या हो रहा है?
एक साल पूरा होने को जब आया तो घोड़ा न लौटा सगर चिन्तित हो उठे। राजा सगर ने अपने साठ हजार पुत्रों को यज्ञ के घोड़े की खोज कर लाने का आदेश दिया। ये पुत्र यज्ञ के घोड़े की खोज में निकल पड़े।
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