आचार्य मुकुलभट्ट :: -आचार्य परशुराम राय |
आचार्य मुकुलभट्ट का काल नवीं शताब्दी है। आचार्य आनन्दवर्धन और आचार्य मुकुलभट्ट के पिता कल्लटभट्ट कश्मीर नरेश अवन्तिवर्मा के शासन काल में थे। महाकवि कल्हण ने ‘राजतरंगिणी’ में इस प्रकार का उल्लेख किया है-
अनुग्रहाय लोकानां भट्टाः श्री कल्लटादयः।
अवन्तिवर्मणः काले सिद्धा भुवमवातरन्।।
प्रतीहारेन्दुराज के अनुसार आचार्य मुकुलभट्ट इनके गुरु और मीमांसाशास्त्र के उद्भट विद्वान थे। इसके अतिरिक्त व्याकरण, तर्कशास्त्र, काव्यशास्त्र आदि पर भी इनका पूर्ण अधिकार था।
इनका एकमात्र ग्रंथ ‘अभिधावृत्तमातृका’ है जिसमें केवल 15 कारिकाएँ हैं। इन पर वृत्ति भी स्वयं इन्होंने ही लिखी है। आचार्य मुकुलभट्ट ध्वनिसिद्धांत और व्यञ्जना आदि वृत्तियों के विरोधी हैं। क्योंकि ये मीमांसक हैं। ये व्यञ्जना और लक्षणा वृत्तियों को अभिधा का ही भेद मानते हैं-
इत्येतदभिधावृत्तं दशधाम विवेचितम्।
‘अभिधावृत्तिमातृका’ छोटा ग्रंथ अवश्य है, पर क्लिष्ट है। ‘काव्यप्रकाश’ में अभिधा, लक्षणा, व्यंजना आदि वृत्तियों का विवेचन आचार्य मम्मट द्वारा इसी ग्रंथ के आधार पर किया है। इसीलिए कुछ विद्वानों का मानना है कि काव्यप्रकाश के रहस्य को समझने के लिए ‘अभिधावृत्तिमातृका’ का परिशीलन आवश्यक है।
आचार्य मुकुलभट्ट ने अपने ग्रंथ में आनन्दवर्धन, उद्भट, विज्जका आदि आचार्यों के नामों का उल्लेख किया है। ग्रंथ छोटा होने के कारण शायद इस पर कोई टीका नहीं लिखी गयी। जबकि इनके शिष्य प्रतिहारेन्दुराज अपने गुरु का नाम बड़े आदर के साथ लेते है, लेकिन उन्होंने इस पर टीका नहीं लिखी। फिर भी यह ग्रंथ काव्यशास्त्र का अत्यन्त महत्वपूर्ण ग्रंथ है।
आचार्य धनञ्जय
आचार्य धनंजय का काल दसवीं शताब्दी है। इनका एक मात्र ग्रंथ ‘दशरुपक’ है जिसका विवेच्य विषय नाट्यशास्त्र है। ग्रंथ के अन्त में अपना परिचय देते हुए वे लिखते हैः-
विष्णोः सुतेनापिधनञ्जयेन विद्धन्मनोरागनिबन्ध हेतुः।
आविष्कृतं मुञ्जमहीशगोष्ठी वैदग्ध्यभाजा दशरुपकमेतत्।।
इसके अनुसार आचार्य धनञ्जय के पिता का नाम विष्णु था और इन्हें मालवा के परमारवंश के राजा मुंज की राजसभा में रहने का सौभाग्य मिला था। यहीं इन्होंने दशरुपक की रचना की थी। महाराज मुंज का राज्यकाल 974 से 994 ई. तक माना गया है। अतएव आचार्य धनञ्जय इसी काल के हैं।
आचार्य भरत के बाद केवल नाट्यशास्त्र पर कार्य करने वाले यह दूसरे आचार्य हैं। आचार्य भरत का नाट्यशास्त्र एक तरह से विश्वकोश है, जबकि आचार्य धनञ्जय ने ‘दशरुपक’ में नाटक की परिधि को नहीं लाँघा है।
‘दशरुपक’ में लगभग 300 कारिकाएँ हैं, जिन्हें चार प्रकाशों में विभक्त किया गया है। प्रथम प्रकाश में ग्रंथ का प्रयोजन, नाटकों की पंचसंधियाँ, अर्थोपक्षेपक आदि के लक्षण और आख्यान के भेद आदि का विवेचन किया गया है। द्वितीय प्रकाश में नायक-नायिका भेद एवं कैशिकी (कौशिकी) आदि नाट्य शैलियों के भेदों का विवरण दिया गया है। तृतीय प्रकाश में नाटक के लक्षण, प्रस्तावना, अङ्कविधान, कथाभाग के औचित्य की दृष्टि से बदलाव, नाटक के मुख्य रस, पात्रों की संख्या, प्रवेश और निर्गम के नियम आदि का वर्णन मिलता है। अन्तिम प्रकाश में रसोत्पत्ति के कारकों, यथा- स्थायिभाव, व्यभिचारी भाव आदि का विवेचन, रसास्वादन के प्रकार, नाटक में शान्तरस की उपयोगिता का अभाव आदि पर प्रकाश डाला गया है।
‘दशरुपक’ पर कुल पाँच टीकाएँ लिखी गयी हैं। आचार्य धनिक, नृसिंहभट्ट, देवपाणि, कुरविराम और बहुरूप मिश्र टीकाकारों के नाम हैं। आचार्य बहुरुप मिश्र की टीका को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जाता हैं।
बहुत अच्छी जनकारी।
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