संत कबीर की एक पंक्ति है –
“नैया बीच नदिया डूबी जाए”
अर्थात् नदी नाव में डूबी जा रही है। यहां कबीर व्यक्ति के उस विकास की ओर संकेत कर रहे हैं जहां व्यक्ति की जीवनरूपी नौका इतनी विराट हो जाती है कि पूरा भवसिंधु (नदी) उसी में समाहित हो जाता है। उक्त विकास के स्वरूप को व्यक्त करने के लिए शायद “नदिया डूबी जाए” के कवि को इससे अच्छा बिम्ब नहीं मिला इसलिए उसने संत कबीरदास के ही बिम्ब को अपना लिया है। वैसे देखा जाए तो प्रत्यक्ष रूप से व्यक्ति जीवन के साथ ही भवसिंधु का अंत हो जाता है। यह हमारे राग द्वेष आदि पूर्ण विचार जब विकल्पहीन हो जाते हैं तो ही यह काल बिन्दु आता है। भवसिन्धु कुछ और नहीं बल्कि हमारा इन्द्रीयजनित व्यक्तिगत और समष्टिगत भाव जगत है, जो मृत्यु के साथ ही विलीन हो जाता है। इसके अतिरिक्त यह कविता जीवन और मृत्यु के बीच की रस्साकसी को भी व्यंजित करती दीखती है जिसे उपभोगजनित उल्लास और पीड़ा में पाया जाता है।
महाप्रकृति समस्त सृष्टि एवं उसके उत्स की विधायिका एवं नियामिका है। उसने सृष्टि की हर व्यष्टि (Unit) को स्वतंत्रता और परतंत्रता दोनों को मौलिक अधिकार के रूप में प्रदान किया है। मनुष्य के रूप में हमें उन अधिकारों को समझने की अधिक शक्ति दी गई है। जिसे हमने सहस्त्राब्दियों से विभिन्न सभ्यताओं में विकसित होते देखा है। जिस सभ्यता में उन्हें सही दिश में समझा है और उनकी अनुकूलता बनाए रखी वह अधिक यशस्वी और दीर्घकालिक बनी रही।
कहावत है कि जहां से दूसरों की स्वतंत्रता प्रारंभ होती है वहां हमारी स्वतंत्रता समाप्त होती है चाहे वह भौतिक स्वतंत्रता हो या मानसिक स्वतंत्रता हो। हमारा मान-सम्मान या पहचान इसी से होती है। अपनी सृष्टि का महाप्रकृति बहुत सम्मान करती है, यदि समझा जाए तो।
इसी भाव-भूमि पर नदिया डूबी जाए कविता लिखी गई है।
नदिया डूबी जाए
-आचार्य परशुराम राय
किस अचेतन की तली से
चेतना ने बाँग दी
कि
काल का घेरा कहीं से
टूटने को आ गया है।
विद्रोह करती वेदना,
आदिम इच्छा के
मात्र एक फल चख लेने की
काट रही सजा,
सृजन के कारागार से
अब बाहर निकल कर आ गई है।
मुक्त शीतल मन्द पवन
जब भी करवट बदलेगा
महाप्रलय की बेला में
हिमालय की गोद भी
मेरे तो सौभाग्य और दुर्भाग्य की
सारी रेखाएं कट गई,
संस्कारों का विकट वन
जलाने से निकले
श्रम सीकर
अभी तक सूखे नहीं।
बन्धन मेरी सीमा नहीं,
मात्र बस ठहराव था।
तो मोहवश नहीं
करुणा की धारवश।
जीवन की धार देख
नाव नदी में नहीं
नदी नाव में डूबने को है!
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यह कविता जीवन और मृत्यु के बीच की रस्साकसी को भी व्यंजित करती दीखती है जिसे उपभोगजनित उल्लास और पीड़ा में पाया जाता है।
जवाब देंहटाएंजीवन की विडंबनाओ को दर्शाती के उत्तम रचना...
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी रचना।
जवाब देंहटाएंकिताबे ग़म में ख़ुशी का ठिकाना ढ़ूंढ़ो,
अगर जीना है तो हंसी का बहाना ढ़ूंढ़ो।
जीवन के अनेक पहलुओं पर विचार करती अच्छी रचना
जवाब देंहटाएंअच्छी कविता..
जवाब देंहटाएंमैं राजभाषा हिंदी से सम्बंधित पद पर ही कार्यरत हु और हिंदी की स्थिति के लिए कुछ करना चाहती हु .क्या मैं भी आपके ब्लॉग से जुड़ सकती हु ?
अच्छी कविता..
जवाब देंहटाएं@ स्वाति जी ... क्या मैं भी आपके ब्लॉग से जुड़ सकती हु ?
जवाब देंहटाएंआपका सहर्ष स्वागत है। हम आपको ई-मेल से एक निमंत्रण भेज रहे हैं। इसे स्वीकर करते ही आप इस ब्लॉग के योगदान कर्ता हो जाएंगी और सुविधानुसार आप पोस्ट कर सकती हैं।
@@ स्वाति जी ... क्या मैं भी आपके ब्लॉग से जुड़ सकती हु ?
जवाब देंहटाएंआपके प्रोफ़ाइल में ई-मेल आई.डी. नहीं है। आप हमारे ई-मेल पर एक रेक्वेस्ट भेज दें!
बड़ा अच्छा कार्य कर रहे हैं ! मेरी हार्दिक शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंदर्शनयुक्त उत्कृष्ट कविता..
जवाब देंहटाएं...प्रसंशनीय !!!
जवाब देंहटाएंजीवन के अनेक पहलुओं पर विचार करती अच्छी रचना.
जवाब देंहटाएंवाह! प्रक्रिति से जीवन का सम्बन्ध! सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंनाव बीच नदिया डूबी जाय। कबीरदास एक संत थे संतो की भाषा संत ही समझा सकते हैं। भजन के मार्ग में नियम ही नाव है त्रिगुणमयी प्रकृति ही नदिया है। जैसे जैसे मन भजन के भाव में डूब कर भजन के नियमों को कठोरता से पकड़ लेता है। वैसे वैसे यह त्रिगुणमयी प्रकृति का बंधन ख़त्म होने लगता है। ॐ श्री सद्गुरुदेवाय नमः ॐ
जवाब देंहटाएंIs ka sahi artha do
हटाएंमहानुभवियो को चरणो मे सादर पृणाम
जवाब देंहटाएं🤲 agar koyi viyakti giyan ka pehala charan par kiyaa ho to batanaa 🙏
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