आज बाजारवाद शवाब पर है। हर तरफ़। किस तरह से अपने उत्पाद को सर्वश्रेष्ठ घोषित कर उसकी मार्केटिंग की जाए, यह भी एक कला है। जो इस कला में निपुण है उनकी तो बल्ले-बल्ले! वरना कई ऐसे उत्पाद हैं जो गुणवत्ता में किसी से कम न होते हुए भी प्रचार/मार्केटिंग के अभाव में किसी कोने में दुबके पड़े होते हैं।
ब्लॉग जगत में भी ऐसा ही कुछ देखने को मिलता है।
लगता है बाजारवाद की संस्कृति ने हमारी सृजनशीलता एवं सोच को गहरे तक प्रभावित किया है।
ऐसा नहीं है कि सार्थक सृजन बंद हो गया है या मंद पड़ गया है। विचारों एवं शब्दों के धनी सदा ही रहे हैं, रहेंगे।
लेकिन बाजार ने लोगों की जरूरतों को जरूर बदल दिया है। रचनाकारों की सोच अब भी स्वतंत्र एवं उर्वर है।
ज्वलंत और विचारणीय समस्याओं पर ब्लागर्स की उंगलियां की-बोर्ड को खड़खड़ाती है। ब्लागर्स एक संवेदनशील प्राणी है। वह न केवल महसूस करता है, बल्कि अपनी रंग-बिरंगी अनुभूतियों को, संवेदना के रंग में डूबो कर, कुंजी पटल के द्वारा अंतरजाल की दुनिया में उतार देने की विशेष क्षमता से युक्त होता है।
पर वही बाजारवाद का उतावलापन, कहीं खबर बासी न हो जाए, सारे तथ्य सामने आने से पहले, निष्कर्षों का पिटारा खुला पड़ा होता है।
हम कुछ ऐसा सृजन करें कि समाज को अपने जिंदा होने का अहसास हो, उसके विचारों को भी अभिव्यक्ति मिल पाए। वरना आम आदमी तो रोटी-दाल के चक्कर में अपनी सारी जिन्दगी गुजार देता है।
पेश है एक कविता …
आज़ादी अभिव्यक्ति की
-- -- -- मनोज कुमार
मदारी की डुग डुगी
सुन जुट गई भीड़
पिटारे के ईर्द गिर्द
बंद रहस्य का अन्वेषण
सब ने
अपने अपने ढ़ंग से किया।
हर कोई
उस सत्य का
विश्लेषण करता रहा
जिससे किसी का परिचय ही नहीं था।
रिश्ते की ख़ूबसूरती पर
बहस करते-करते
ख़ूबसूरत रिश्ता हो
बनाते हैं पुल,
ग़लतफ़हमी कैसे दूर हो
इसकी चिंता नहीं।
आज़ादी अभिव्यक्ति की
आज़ाद हैं हम,
कहा है किसी ने
शुरु होती है दूसरों की आज़ादी जहां,
वहां
हमारी आज़ादी ख़त्म होती है।
हमारा
मान-सम्मान
और
पहचान इसी से है,
अपने सृजन का तो
हम करते हैं सम्मान
सबसे ज़्यादा …!
*** ***
डा. रमेश मोहन झा की टिप्पणी :- (ई-मेल से प्राप्त)
जवाब देंहटाएंप्रस्तुत कविता में कवि स्वयं अपनी ’छवि’ (इमेज) बदलते नज़र आते हैं। इस कविता में एक ऐसी दुनिया का बिंब प्रस्तुत करते हैं, जहां धैर्य नहीं, जहां चीज़ें शीघ्र पुरानी हो जाती हैं। इस भागती और हांफती दुनियां में हड़बड़ाहट इतनी है कि चीज़ों के देखने से पूर्व ही राय प्रकट कर दी जाती है। अतिशियोक्ति अलंकार पढ़ते समय एक उदाहारण दिया करते थे
हनुमान की पूंछ में लग न पाई आग
लंका सिगरी जल गई, गये निशाचर भाग!
अर्थात घटना घटित होने के पूर्व ही विश्लेषण। कवि अपने बाह्य जगत में रोज़ इस त्वरा से उपजी स्थितियों का सामना करते हैं, और उनसे पैदा हुई खिन्नता मूल्यहीनता और अपूर्णता उनके मनोजगत को आंदोलित करता है - फल्स्वरूप वे इस प्रकार की रचना को लेकर आते हैं।
कविता में प्रयुक्त भषा उनकी काव्य अभिव्यक्ति को विश्वसनीय और प्रासंगिक बनाती है।
वाह........ !
जवाब देंहटाएंएक पुरानी शायरी का एक मिसरा याद आया,
तस्वीर हो गया हूँ तस्वीर देख कर... ! आया था तो अपनी प्रतिक्रिया देने......... लेकिन काम हल्का हो गया.......... !! मेरी प्रतिक्रिया है, "मैं रमेश मोहन झाजी से अक्षरशः सहमत हूँ !!"
कविता में प्रयुक्त भषा उनकी काव्य अभिव्यक्ति को विश्वसनीय और प्रासंगिक बनाती है।
जवाब देंहटाएंआज का यह पोस्ट बहुत अच्छा लगा.आपका आभार.
जवाब देंहटाएंआपकी कविता का बदला बदला रूप देखकर अच्छा लगा.सुन्दर प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंहम कुछ ऐसा सृजन करें कि समाज को अपने जिंदा होने का अहसास हो, उसके विचारों को भी अभिव्यक्ति मिल पाए। वरना आम आदमी तो रोटी-दाल के चक्कर में अपनी सारी जिन्दगी गुजार देता है।
जवाब देंहटाएंखरी बात
मनोज जी,
जवाब देंहटाएंआपकी यह प्रस्तुति बहुत बडा चिंतन प्रस्तुत कर रही है... लिखा तो सही है...
वाकई मे मदारी की डुगडुग्गी बजी और भीड जमा हुई.. क्या करेंगे.. यही है नयी आज़ादी..
मनोज जी!
जवाब देंहटाएंआपकी रचना को पढ़ मुझे लगा कि आप का मनोबल और धैर्य विचलित हो रहा है-उसे संभालिए। जीवन का दूसरा नाम संघर्ष है। मैं आप जैसी मन:स्थिति से गुजर चुका हूँ। सन् 1990 में मेरा ‘अपने को ही दीप बनओ’ नामक गीत-संकलन प्रकाशित हुआ था। अब वह आउट आफ प्रिंट है। पुस्तक की प्रति अगर सुलभ हो गई तो आप को मेल कर दूँगा। फिलहाल उसके "टाइटिल सांग" की निम्न पंक्तियाँ प्रस्तुत है। शायद आपके काम आ जाएं .........
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यह माना गहन अंधेरा है,
आँखों से दूर सबेरा है,
तुम ! अपने दीपक आप बनो़।
तुम ! अपने दीपक आप बनो़।।
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