आचार्य भामह की चर्चा इस ब्लॉग पर आप पढ़ चुके हैं। यदि नहीं पढ़ा तो (यहां) क्लिक कीजिए। उन्होंने अपने ग्रंथ “काव्यालंकार” में काव्य लक्षण की चर्चा करते हुए कहा है
“शब्दार्थौ सहितौ काव्यम”।
अर्थात शब्द और अर्थ दोनों का सहभाव काव्य है। भामह अलंकारवादी थे। उस काल में दो विचारधाराएं प्रचलित थीं। दोनों ही विचारधाराएं काव्य-सौंदर्य का आधार अलंकारों में खोजती थीं। भामह का मानना था कि अलंकार ही काव्य की शोभा बढ़ाती हैं। उनका यह भी मानना था कि रचना में रस-गुण कितना भी बढ़िया क्यों न हों पर यदि अलंकार-योजना कमज़ोर है तो यह बिना अलंकार के स्त्री मुख के समान सौंदर्य-विहीन है।
दूसरी ओर दण्डी जैसे शब्दालंकारवादी का मानना था कि काव्य में सौंदर्य शब्दों के द्वारा आता है। यदि शब्द सौंदर्य न हो तो अर्थ-सौंदर्य अधूरा है। शब्द का सीधा प्रभाव हृदय पर होता है। पहले हम शब्द ग्रहण करते हैं, फिर अर्थ ग्रह्ण। अतः अलंकार तो बाहरी चीज़ है।
भामह ने इन दोनों मतों का समन्वय किया। उन्होंने कहा कि एक रचनाकार के लिए शब्द का भी महत्व है और अर्थ का भी। तब उन्होंने “सहितौ” शब्द पर बल देते हुए कहा कि शब्द और अर्थ दोनों का सहभाव काव्य है। बाद के दिनों में आचार्य जगन्नाथ ने इसे और स्पष्ट करते हुए कहा कि रमणीय अर्थ के प्रतिपादक शब्द ही काव्य हैं।
“रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम”।
...काव्य में सौंदर्य शब्दों के द्वारा आता है। यदि शब्द सौंदर्य न हो तो अर्थ-सौंदर्य अधूरा है।...
जवाब देंहटाएंSehmar hun aapki baat se !
G bilkul sahi kahaa Japanese
हटाएंआज तो काव्य अलंकार से दूरी बना रहा है.
जवाब देंहटाएंआज के आधुनिक युग में साहित्य की विधाओं को ग्रहण करने वाले समस्त साहित्य प्रेमियों को वंदन
जवाब देंहटाएंहमारी सभ्यता और संस्कृति को बचाए रखने के लिए आज साहित्य प्रेमियों की अति आवश्यकता है, आइए हम साथ साथ मिलकर देश की सभ्यता संस्कृति और संस्कारों को बचाए रखने का कदम उठाएं।
जवाब देंहटाएंमैं आप सभी श्रेष्ठ जनों से मार्गदर्शन की अपेक्षा रखता हूं।
जवाब देंहटाएंAaj hume apni sanskriti ko bachane ki bhaut avashyakta h aaj deera deera
जवाब देंहटाएंVideshi sanskriti ka chalan nirantar roop s bd rha h