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सोमवार, 2 अगस्त 2010

काव्यशास्त्र-26 :: आचार्य कवि कर्णपूर (आचार्य परमानन्द दास), आचार्य कविचन्द्र और आचार्य अप्पय्यदीक्षित

 

 

काव्यशास्त्र-26 :: आचार्य कवि कर्णपूर (आचार्य परमानन्द दास), आचार्य कविचन्द्र और आचार्य अप्पय्यदीक्षित

आचार्य परशुराम राय

आचार्य कवि कर्णपूर

आचार्य कवि कर्णपूर का जन्म 1524 ई0 में बंगाल के नदिया जनपद में हुआ था। इनके पिता शिवानन्द चैतन्य महाप्रभु के शिष्य थे। वास्तव में आचार्य कवि कर्णपूर का नाम परमानन्ददास था, लेकिन काव्य जगत में उनकी प्रसिद्धि कवि कर्णपूर के नाम से है। चैतन्य महाप्रभु के जीवन पर इन्होंने 'चैतन्यचन्द्रोदय' नामक एक नाटक का प्रणयन किया है। इनका दूसरा ग्रंथ 'अलंकारकौस्तुभ' काव्यशास्त्रपरक रचना है।

'अलंकारकौस्तुभ' दस किरणों (अध्यायों) में विभक्त है और इसके प्रतिपाद्य विषय काव्य लक्षण, शब्दशक्ति, ध्वनि, गुणीभूत-व्यंग्य, रस, भाव, गुण, अलंकार, रीति, दोष आदि हैं।

आचार्य कविचन्द्र

आचार्य कविचन्द्र आचार्य परमानन्ददास के पुत्र थे। इन दोनों ही आचार्यों के जीवनवृत के विषय में बहुत ही कम सामग्री उपलब्ध है। इनका काल सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी है।

आचार्य कविचन्द्र के कुल तीन ग्रंथ हैं:- काव्यचन्द्रिका, सारलहरी और धातु चन्द्रिका। इनमें काव्यशास्त्र प्रतिपादक ग्रंथ 'काव्यचन्द्रिका' है, जो सोलह प्रकाशों में विभक्त है।

आचार्य अप्पय्यदीक्षित

आचार्य अप्पय्यदीक्षित दक्षिण भारत के रहने वाले थे। अपने ग्रंथ 'कुवलयानन्द' में उन्होंने लिखा है:-

अमुं कुवलयानन्दमकरोद्दप्प दीक्षित:।

नियोगाद्वेङ्कटनृपतेर्निरुपाधिकृपानिधे:॥

इसके अनुसार 'कुवलयानन्द' की रचना महाराज वेंकटपति के अनुरोध पर अप्पय्यदीक्षित ने की। दक्षिण भारत में वेंकटपति नाम से दो राजाओं का उल्लेख मिलता है। एक वेंकटपति 1535 ई0 के आसपास विजय नगर राज्य के राजा थे और दूसरे लगभग 1586 से 1613 ई0 के लगभग पेन्नकोण्ड राज्य के राजा थे। कुछ विद्वानों के अनुसार आचार्य अप्पय्यदीक्षित के आश्रयदाता पहले वेंकटपति थे और कुछ के अनुसार दूसरे। इन्हें सर्वतन्त्र स्वतन्त्र विद्वान कहा जाता है। वैसे ये मुख्य रूप से दार्शनिक थे। सुना जाता है कि इन्होंने 104 ग्रंथों की रचना की थी।

आचार्य अप्पय्यदीक्षित की रचनाओं को देखकर बरवस आचार्य अभिनव गुप्त की याद आ जाती है। दोनों ही उच्च कोटि के विद्वान व प्रतिभाशाली, दार्शनिक और शास्त्र प्रणेता थे। दोनों में मुख्य अन्तर जो देखने को मिलता है वह यह कि आचार्य अभिनव गुप्त शैव दर्शन के अनुयायी थे तो आचार्य अप्पय्यदीक्षित वैष्णव दर्शन के। आचार्य अभिनवगुप्त ध्वनिवादी थे, जबकि आचार्य अप्पय्यदीक्षित अलंकारवादी।

आचार्य अप्पय्यदीक्षित के मुख्य ग्रंथों को विषयों की विविधता की दृष्टि से निम्नलिखित श्रेणियों में बाँट सकते हैं:-

(क) अद्वैतवेदान्त सम्बन्धी ग्रंथ

(ख) भक्तिपरक ग्रंथ

(ग) रामानुजमतावलम्बी ग्रंथ

(घ) मध्वसिद्धान्त सम्बन्धी ग्रंथ

(ड.) पूर्वमीमांसा पर आधारित ग्रंथ

(च) काव्यशास्त्र से सम्बन्धित ग्रंथ

काव्यशास्त्र पर इनके तीन ग्रंथ हैं:- वृत्तिवार्तिक, चित्रमीमांसा और कुवलयानन्द। वृत्तिवार्तिक में शब्द शक्तियों का विवेचन किया है। चित्रमीमांसा एक अधूरा ग्रंथ है जिसमें अलंकारों का उल्लेख किया गया है। इसमें अतिश्योक्ति अलंकार तक का वर्णन मिलता है। लगता है कि जानबूझ कर आचार्य द्वारा इसे अधूरा छोड़ दिया गया। क्योंकि वे इसके विषय में स्वयं ही लिखते हैं:-

अप्यर्धचित्रमीमांसा न मुदे कस्य मांसला।

अनूरुरिव द्यर्मोशोरर्धेन्दुरिव धूर्जटे:॥

'कुवलयानन्द' काव्यशास्त्र का इनका मुख्य ग्रंथ है जिसकी रचना आचार्य जयदेव कृत 'चन्द्रलोक' की शैली में की गई है। अर्थात्, आधे श्लोक में अलंकार की परिभाषा और आधे में उदाहरण। वैसे अन्य काव्यों से भी इन्होंने काफी उदाहरण दिए हैं। अन्त में इन्होंने 24 ऐसे अलंकारों का उल्लेख किया है जो चन्द्रलोक में नहीं मिलते।

आचार्य अप्पय्यदीक्षित संस्कृत वाङ्मय के मूर्धन्य विद्वान हैं। दार्शनिक होते हुए भी इन्होंने दर्शनेतर विषयों पर अनेक ग्रंथों का प्रणयन किया है।

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