पेज

गुरुवार, 14 अक्तूबर 2010

साहित्यकार-6 :: सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ (1911-1987)

साहित्यकार-6

सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’

IMG_0545 मनोज कुमार

अज्ञेय एक सफल कवि, उपन्यासकार, कहानीकार और आलोचक रहे हैं। इन सभी क्षेत्रों में वे शीर्षस्थ भी थे। छायावाद और रहस्यवाद के युग के बाद हिन्दी-कविता को नई दिशा देने में अज्ञेय जी का सबसे बड़ा हाथ है। हिन्दी के अनेक नए कवियों के लिए अज्ञेय जी प्रेरणा-स्रोत और मार्ग-दर्शक रहे हैं। आपकी रचनाओं का मूल स्वर दार्शनिक और चिन्तन-प्रधान है।

अज्ञेय आधिनिक युग के कवि थे। वे आधुनिक भाव-बोध के कवि के रूप में जाने जाते हैं। उनकी दृष्टि में कविता का बहुत सारी चीज़ों के साथ संबंध बदल गया है। कविता में सिद्धांत के तौर पर अज्ञेय व्यक्तित्व से दूरी बनाने की बात करते हैं। आधुनिक भाव-बोध पहले से चले आ रहे काव्य-विधान से संभव नहीं था-

“ये उपमान मैले हो गए हैं

देवता इन प्रतीकों के कर गए हैं कूच!

कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है।”

अज्ञेय ‘मैं’ से दूरी बनाकर चलते हैं, लेकिन व्यक्तित्व की स्वतंत्रता का बोध पाठक को कराते हैं। एक स्तर पर उनकी कविता ही व्यक्तित्व की खोज की कविता का रूप ले लेती है। उनके आधुनिक बोध के मूल में व्यक्तित्व की खोज है। व्यक्तित्व की खोज बहुत कुछ अभिव्यक्ति की खोज है।

अज्ञेय ‘प्रयोगवाद’ नामक काव्य-आंदोलन के प्रवर्तक थे। साथ ही नयी कविता के अग्रणी कवि के रूप में उनका महत्व निर्विवाद है। उनकी रचनाओं में चमत्कारपूर्ण प्रयोग मिलता है। सामाजिक सरोकार तो है ही, साथ ही वैक्तिकता और सामाजिकता का द्वंद्व भी स्पष्ट है-

“यह दीप अकेला स्नेह-भरा

है गर्व-भरा मदमाता पर

इसको भी पंक्ति दे दो।”

वे एक “सांचे ढले समाज” की जगह “अच्छी कुंठा रहित इकाई” के पक्ष में हैं।

संवेदना के कवि के रूप में उनकी एकदम अलग पहचान है। उनकी कविता में प्रकृति, प्रेम, आत्मदान, मृत्यु जैसे अनुभव आधुनिक बोध और संवेदना का हिस्सा बन कर आते हैं-

“पार्श्व गिरि का नम्र, चीड़ों में

डगर चढती उमंगों-सी।

बिछी पैरों में नदी ज्यों दर्द की रेखा।

विहग-शिशु मौन नीड़ों में

मैंने आंख भर देखा।

अधिकतर कवि सत्य को पहले से प्राप्त मानते हैं। वे सत्य को कहने के लिए शब्द को साधन के रूप में देखते हैं। परन्तु अज्ञेय तो कविता को सबसे पहले शब्द मानते हैं। वे सत्य को अन्वेषण का विषय मानते हैं और शब्द को भी। फिर मानते हैं कि दोनों शब्द और सत्य में निरंतर द्वंद्व की स्थिति बनी रहती है। परस्पर टकराकर नया काव्यत्व प्राप्त करते हैं। तनाव और द्वन्द्व की स्थिति में ही अज्ञेय को नया काव्योन्मेष उपलब्ध हो पाता है।

“ये दोनों जो

सदा एक-दूसरे से तनकर रहते हैं

कब, कैसे, किस आलोक-स्फुरण में

इन्हें मिला दूं –

दोनों जो हैं बंधु, सखा, चिर सहचर मेरे।“

अज्ञेय निर्वैयक्तिक संवेदना को महत्व देते हैं। अज्ञेय की प्रकृति, प्रेम, आत्मदान, मृत्यु संबंधी कविताओं में सब कुछ नयी प्रश्नशील निगाह से देखा जा रहा है। प्रकृति केवल अलंकरण तक सीमित नहीं है।

“बेल-सी वह मेरे भीतर उगी है, बढती है।

उसकी कलियां हैं मेरी आंखें,

कोपलें मेरी अंगुलियों में अंकुराती हैं,

फूल-अरे, यह दिल में क्या खिलता है।”

उनकी रचनाओं में प्रेम ढर्रे से अलग है। वे कहते हैं प्रेम के क्षण दुहराए नहीं जाते। प्रेम बिना आशा, आकांक्षा के ही संभव है। यह आधुनिक बोध है प्रेम का।

“ओ प्यार! कहो, है इतना धीरज,

चलो साथ

यों : बिना आशा-आकांक्षा

गहे हाथ?”

मृत्यु भय नहीं देती। उनके यहां मृत्यु का वरण है। डर नहीं है। प्रेम और मृत्यु अभिन्न हो जाते हैं यहां।

“सागर को प्रेम करना

मरण की प्रच्छन्न कामना है

मरण अनिवार्य है

प्रेम

स्वच्छंद वरण है”

एक ओर अहं का विलयन अज्ञेय का ज़रूरी सरोकार है तो दूसरी ओर व्यक्तित्व का तेजस अंश बचाए रखने की चिंता उन्हें सबसे अलग प्रमाणित करती है। जब वे लिखते हैं ‘सखि आ गये नीम को बौर’ तो वे परंपरा से हटते हैं। आम के पेड़ से बौर का संबंध न जोड़कर, नीम से जोड़ने के पीछे अभिव्यक्ति की नई आज़ादी का बोध है। अज्ञेय की स्वाधीन चिंता के निहितार्थ अनेक हैं।

“मेरे छोटे घर – कुटीर का दिया

तुम्हारे मंदिर के विस्तृत आंगन में

सहमा-सा रख दिया।”

अज्ञेय की कई कविताएं काव्य-प्रक्रिया की ही कविताएं हैं। उनमें अधिकतर कविताएं अवधारणात्मक हैं जो व्यक्तित्व और सामाजिकता के द्वंद्व को, रोमांटिक आधुनिक के द्वंद्व को प्रत्यक्ष करती है।

“दु:ख सबको मांजता है

और –

चाहे स्वयं सबको मुक्ति देना वह न जाने, किन्तु

जिनको मांजता है

उन्हें सीख देता है कि सबको मुक्त रखें।”

जिजीविषा अज्ञेय का अधिक प्रिय काव्य-मूल्य है। वह संघर्ष की सार्थकता का पर्याय है। यह उन्हें एक नए मानववाद के कवि के रूप में देखने के लिए प्रेरित करती है। यह सजग काव्य-बोध है।

“तू अंतहीन काल के लिए फलक पर टांक दे –

क्योंकि यह मांग मेरी, मेरी, मेरी है कि प्राणों के

एक जिस बुलबुले की ओर मैं हुआ हूं उदग्र, वह

अंतहीन काल तक मुझे खींचता रहे --------”

अज्ञेय ने अपने पहले उपन्‍यास का नाम रखा – “शेखर एक जीवनी” यह एक मनोविश्‍लेषणात्‍मक उपन्‍यास है। इसका पहला भाग 1941 में प्रकाशित हुआ था और दूसरा भाग आया 1944 में। अज्ञेय जी की योजना तो थी इसे चार भागों में तैयार करने की। लेकिन 1987 में इनके निधन से सिर्फ दो भाग ही हमारे सामने आ सका।

इस उपन्‍यास में बाल मनोविज्ञान के सिद्धांतों का अदभुत समावेश है। दूसरी विशेषता है इस उपन्‍यास की इसमें फ्लैशबैक तकनीक का उपयोग किया गया है। उपन्‍यास आत्‍मकथात्‍मक है। नायक इसका शेखर है। ऐसा लगता है कि शेखर और अज्ञेय के व्‍यक्तित्‍व में अदभुत साम्‍य है। शेखर के बचपन से लेकर युवा होने की गतिविधियों को इस उपन्‍यास में बताया गया है। नाम तो इसका है शेखर एक जीवनी पर इसका शिल्‍प आत्‍मकथा के अधिक निकट है।

माना जाता है कि सच्चिदानंद हीरानंद वात्‍सायान “अज्ञेय” का लेखन आम पाठकों के लिए नहीं था। कविताएं, निबंध, यात्रा-वृतांत, आदि के लेखक अज्ञेय का “शेखर एक जीवनी”को काफी सराहना मिली। इस उपन्‍यास के पहले भाग में शेखर के बाल्‍यावस्‍था से कैशोर्य तक की घटनाएं है। यहां पर शेखर के द्वारा बालमनोविज्ञान के सिद्धांतों की चर्चा की गई है। अहं, भय आदि दशार्या गया है।

दूसरे भाग में युवा शेखर का अहंकार उसे विद्रोही बनाता है। परिवार में विद्रोह करता शेखर देश-समाज के लिए क्रांतिकारी बन जाता है। अज्ञेय ने अपने इस नायक की कथा को अवचेतन मन का प्रतिबिम्‍ब बनाया है।

“फांसी" से शुरू हुए इस कथानक में इसका नायक अतीत को देखता है। फ्लैशबैक में। अगली सुबह शेखर को फांसी दी जाएगी। इस रात वह अपने अतीत को याद करता है। रचयिता अज्ञेय ने नायक के भीतर घुस कर इसे मनोविश्‍लेषणात्‍मक विस्‍तार दिया है।

अज्ञेय आधुनिक भावबोध के ऐसे कवि हैं जिन्होंने काव्यभाषा और काव्यशिल्प की दृष्टि से खड़ी बोली की हिन्दी कविता को नयी समृद्धि दी है। उन्होंने छायावादी संस्कारों के प्रभाव से मुक्त होने में वह नई काव्यभाषा अर्जित की जिससे प्रयोगवाद और आगे नयी कविता की पहचान बनी। निस्संदेह वे आधुनिक साहित्य के एक शलाका-पुरूष थे जिसने हिंदी साहित्य में भारतेंदु के बाद एक दूसरे आधुनिक युग का प्रवर्तन किया।

जन्म : ‘अज्ञेय’ जी का जन्म ७ मार्च १९११ को उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के कसया (कुसीनगर) नामक ऐतिहासिक स्थान में हुआ था। इनका बचपन अधिकतर लखनऊ, कश्मीर, बिहार और मद्रास में बीता।

मृत्यु : 4 अप्रैल 1987

शिक्षा : इनकी शिक्षा मद्रास और लाहौर में हुई जहां इनके पिता सेवारत थे। प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा विद्वान पिता की देख-रेख में घर पर ही संस्कृत, फारसी, अँग्रेज़ी और बँगला भाषा व साहित्य के अध्ययन के साथ। १९२५ में पंजाब से एंट्रेंस, मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज से विज्ञान में इंटर तथा १९२९ में लाहौर के फॉरमन कॉलेज से बी एस सी की परीक्षा पास की। अंगरेज़ी विषय में एम.ए. पढाई करते समय दिल्ली षडयंत्र केस तथा अन्य अभियोग के सिलसिले में वे भूमिगत गुए पर बाद में पहड़े गए और दो वर्ष तक नज़रबंद रहे। इस तरह क्रांतिकारी गतिविधियों में हिस्सा लेने के कारण पढ़ाई पूरी न हो सकी। इन्होंने किसान आंदोलन में भी सक्रिय रूप से भाग लिया। १९३० से १९३६ तक के दौरान इनका अधिकांश समय विभिन्न जेलों में कटे।

कार्यक्षेत्र : १९३६-१९३७ में `सैनिक' और `विशाल भारत', `वाक्' और `एवरीमैंस' नामक पत्रिकाओं का आपने बड़ी कुशलता से संपादन किया। १९४३ से १९४६ तक अपने जीवन के तीन वर्ष ब्रिटिश सेना में बिताए। इसके बाद इलाहाबाद से `प्रतीक' नामक पत्रिका निकाली और ऑल इंडिया रेडियो की सलाहकार के पद पर कार्य किया। 1955-1956 तक यूरोप की और 1957-58 तक पूर्वेशिया की यात्राएँ कीं। इसके बाद अनेक बार भ्रमण और अध्यापन के सिलसिले में अज्ञेय जी विदेश गए।

पुरस्कार :
(१) १९६४ में `आँगन के पार द्वार' पर उन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त हुआ।

(२) १९७९ में 'कितनी नावों में कितनी बार' पर भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार।

कृतियां :

काव्य रचनाएँ : भग्नदूत, इत्यलम, हरी घास पर क्षण भर, बावरा अहेरी, इंद्र धनु रौंदे हुए ये, अरी ओ करूणा प्रभामय, आंगन के पार द्वार, कितनी नावों में कितनी बार, क्योंकि मैं उसे जानता हूँ, सागर-मुद्रा, सुनहरे शैवाल, महावृक्ष के नीचे, और ऐसा कोई घर आपने देखा है इत्यादि उनकी प्रमुख काव्य रचनाएँ हैं।

उपन्यास : शेखर: एक जीवनी, नदी के द्वीप, अपने अपने अजनबी।

कहानी-संग्रह : विपथगा, परंपरा, कोठरी की बात, शरणार्थी, जयदोल, ये तेरे प्रतिरूप |

यात्रा वृत्तांत: अरे यायावर रहेगा याद, एक बूंद सहसा उछली।

निबंध संग्रह : सबरंग, त्रिशंकु, आत्मनेपद, आधुनिक साहित्य: एक आधुनिक परिदृश्य, आलवाल,

संस्मरण :स्मृति लेखा

डायरियां : भवंती, अंतरा और शाश्वती।

विचार गद्य :संवत्‍सर

उनका लगभग समग्र काव्य सदानीरा (दो खंड) नाम से संकलित हुआ है तथा अन्यान्य विषयों पर लिखे गए सारे निबंध केंद्र और परिधि नामक ग्रंथ में संकलित हुए हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के संपादन के साथ-साथ अज्ञेय ने तारसप्तक, दूसरा सप्तक, और | तीसरा सप्तक जैसे युगांतरकारी काव्य संकलनों का भी संपादन किया तथा पुष्करिणी और रूपांबरा जैसे काव्य-संकलनों का भी। वे वत्सलनिधि से प्रकाशित आधा दर्जन निबंध- संग्रहों के भी संपादक हैं।

14 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छी प्रस्तुति।
    या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते।
    नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
    नवरात्र के पावन अवसर पर आपको और आपके परिवार के सभी सदस्यों को हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई!

    आंच-39 (समीक्षा) पर
    श्रीमती ज्ञानवती सक्सेना ‘किरण’ की कविता
    क्या जग का उद्धार न होगा!, मनोज कुमार, “मनोज” पर!

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत अच्छी प्रस्तुति। अगेय जी को सादर श्रद्धाँजली। 3-4 दिन से छुट्टी पर थी अभी पिछली पोस्ट्स पढनी हैं। धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  3. अज्ञेय जी का परिचय अच्छा लगा। आपके सराहनीय प्रयास को नमन।

    जवाब देंहटाएं
  4. अज्ञेय को पढ़ना तो सरल है पर समझना कठिन ...मुझे हमेशा इनको समझने में कठिनाई हुई है ...आज इनके परिचय के साथ इनकी कुछ रचनाओं के साथ की गयी समीक्षा अज्ञेय को समझाने में निश्चय ही सहायक बनी है ...आभार

    जवाब देंहटाएं
  5. अज्ञेय आधिनिक युग के कवि थे। रचनाओं का मूल स्वर दार्शनिक और चिन्तन-प्रधान है। आधुनिक भावबोध के ऐसे कवि हैं जिन्होंने काव्यभाषा और काव्यशिल्प की दृष्टि से खड़ी बोली की हिन्दी कविता को नयी समृद्धि दी है। आपके सराहनीय प्रयास को नमन।

    जवाब देंहटाएं
  6. संवेदना के कवि के रूप में उनकी एकदम अलग पहचान है। वे आधुनिक भाव-बोध के कवि के रूप में जाने जाते हैं। उनकी दृष्टि में कविता का बहुत सारी चीज़ों के साथ संबंध बदल गया है। आज इनके परिचय के साथ इनकी कुछ रचनाओं के साथ की गयी समीक्षा अज्ञेय को समझाने में निश्चय ही सहायक बनी है!

    जवाब देंहटाएं
  7. अज्ञेय आधुनिक भावबोध के ऐसे कवि हैं जिन्होंने काव्यभाषा और काव्यशिल्प की दृष्टि से खड़ी बोली की हिन्दी कविता को नयी समृद्धि दी है। उन्होंने छायावादी संस्कारों के प्रभाव से मुक्त होने में वह नई काव्यभाषा अर्जित की जिससे प्रयोगवाद और आगे नयी कविता की पहचान बनी।

    जवाब देंहटाएं
  8. अज्ञेय जी पर बहुत ही सुंदर प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं
  9. मनोज जी, आपके साहित्यिक लेख ब्लॉग जगत की साहित्य निधि को भरने में अमूल्य योगदान दे रहे हैं। आपकी लेखनी को प्रणाम भेज रहा हूँ, कृपया स्वीकार करें।
    ................
    वर्धा सम्मेलन: कुछ खट्टा, कुछ मीठा।
    ….अब आप अल्पना जी से विज्ञान समाचार सुनिए।

    जवाब देंहटाएं
  10. ... बेहद प्रभावशाली व प्रसंशनीय पोस्ट !

    जवाब देंहटाएं
  11. अज्ञेय के बारे में इन जानकारियों के बाद,उनकी कुछ छूटी रचनाओं को पढ़ने की जिज्ञासा पैदा हुई है।

    जवाब देंहटाएं
  12. Agyan ji ki rachnaon main adhunik bhavbodh mukhar rup se ujagar hua hai, soun Machli namak kavita sanp ke madhyam se us bhav bodh ki abhivyaktai sunder ruo main hoti hai ,hindi kavita ko naye andaj dene ke karan aaj hum agyan ji ko PRAYOGBADI kavi ke rup main yaad karte hai,
    Per Agyan ne jis darshan ki sristi ki hai wah apne aap main SAMNVYA ka pratik hai .
    Sunder Post

    जवाब देंहटाएं
  13. @ केवल राम जी
    आभार आपका!
    वाह साहब क्या याद दिलाया आपने, उनकी "सोन मछली" कविता!
    अज्ञेय का आत्मबोध आत्मलीनता तक सीमित नहीं है। यह व्यक्ति-सत्य और व्यापक-सत्य के बीच एक नया संबंध बनाता है। अज्ञेय जीवन से प्रेम करते हैं पर इस प्रेम को निस्संग विस्मय का-सा भाव बताते हैं। जीवन सुंदर है आश्‍चर्यजनक रूप से, सुंदर है पर ज़रूरी है कि जीवन को सीधे देखें, कांच में से न देखें। कांच में से देखेंगे तो रूपों में भटक जाएंगे। जीवन तक पहुंचेगे ही नहीं। ‘सोन मछली’ कविता यही कहती है। प्रतीक नया नहीं है पर अर्थ नया है। संकेत के लिए बिम्ब नया है :
    "हम निहारते रूप :
    कांच के पीछे
    हांप रही है मछली।
    रूप-तृषा भी
    (और कांच के पीछे)
    है जिजीविषा!"

    यहां मछली का प्रतीक सत्य के अन्वेषण में सहायक है। अज्ञेय की जीवन-दृष्टि के प्रमुख संदर्भ हैं - व्यक्ति स्व्वातंत्र्य और व्यक्तित्व का विसर्जन, या अहं का विलयन या आत्मदान।

    जवाब देंहटाएं

आप अपने सुझाव और मूल्यांकन से हमारा मार्गदर्शन करें