पेज

मंगलवार, 5 अक्तूबर 2010

पुस्तक चर्चा - अन्धेर नगरी

पुस्तकें पढना मेरी हॉबी है। कई बार ऐसा होता है कि आप जब कोई पुस्तक पढते हैं तो उसकी कई बातें लोगों से बांटने का मन करता है।  कोलकाता से दिल्ली की यात्रा के वक़्त पढ़ने के लिए साथ में एक ऐसी पुस्तक थी जिसकी कई बातें बांटने का मन अनायास बन गया। यह पुस्तक थी “अन्धेर नगरी” एक लोककथा तो आपने सुनी ही होगी। ‘अंधेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा’। प्रस्तुत पुस्तक इसी लोककथा पर आधारित है।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र इस पुस्तक के रचयिता हैं। उनका यह नाटक कालजयी रचना है। जब इसकी रचना हुई थी तबसे आज तक परिस्थितियां तो काफ़ी बदली हैं, पर समय के बदलने के साथ इसका अर्थ नये रूप में हमारे सामने आता है। अंधेर नगरी तो हर काल में मौज़ूद रहा है। हर स्थान पर। १८८१ में रचित इस नाटक में भारतेन्दु ने व्यंग्यात्मक शैली अपनाया है। इस प्रहसन में देश की बदलती परिस्थिति, चरित्र, मूल्यहीनता और व्यवस्था के खोखलेपन को बड़े रोचक ढ़ंग से उभारा गया है।

पहले दृश्य का अंत इस संदेश के साथ होता है,

लोभ पाप को मूल है, लोभ मिटावत मान।

लोभ कभी नहिं कीजिए, या मैं नरक निदान॥

इस नाटक में बाज़ार का दृश्य है। यह बाज़ार क्या पूरा विश्व को रचनाकार ने अपने चुटीले लेखन से हमारे सामने साकार कर दिया है। यहां हर चीज़ टके सेर बिक रही है। और बेचने वाला कह रहा है

चूरन पुलिस वाले खाते।

सब कानून हजम कर जाते॥

एक और दृश्य है जहां राज भवन की स्थिति को दर्शाया गया है। यहां पर मदिरापान, चमचागिरी, दरबारियों के मूर्खता भरे प्रश्न और राजा का अटपटा व्यवहार इस दृष्य की विशेषता है। अंतिम दृश्य में फांसी पर चढने की होड़ को बखूबी दर्शाया गया है। इस दृश्य का अंत एक संदेश के साथ होता है,

जहां न धर्म न बुद्धि नहिं नीति न सुजन समाज।

ते ऐसहिं आपुहिं नसैं, जैसे चौपट राज॥

तीखा व्यंग्य इस नाटक की विशेषता है। सता की विवेकहीनता पर कटाक्ष किया गया है। भ्रष्टाचार, सत्ता की जड़ता, उसकी निरंकुशता, अन्याय पर आधारित मूल्यहीन व्यवस्था को बहुत ही कुशलता से उभारा गया है। साथ ही यह संदेश भी दिया गया है कि अविवेकी सत्ताधारी की परिणति अच्छी नहीं होती।

बाज़ार के दृश्य के द्वारा अमानवीयता, संवेदनहीनता को बहुत ही रोचकता से प्रस्तुत किया गया है। सब्ज़ी बेचने वाली जब यह कहती है कि “ले हिन्दुस्तान का मेवा – फूट और बेर”, तो तो इसका व्यंग्यात्मक अर्थ समाज में व्याप्त आपसी फूट और वैर भाव को व्यपकता के साथ प्रस्तुत करता है। चूरन बेचने वाले के शब्द देखिए,

चूरन साहब लोग जो खाता।

सारा हिन्द हजम कर जाता।

शायद उन दिनों के ब्रिटिश शासक के लिए लिखा गया हो। पर क्या आज के संदर्भ में यह सही नहीं है? इस नाटक के काव्य इसके व्यंग्य को तीखापन प्रदान करते हैं। नटक में गति है, हास्य भरे वक्तव्य हैं, और साथ ही शिक्षा भी।

पुस्‍तक का नाम - अन्धेर नगरी

लेखक - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र

राजकमल पेपर बैक्स में

पहला संस्‍करण : 1986

आवृति : 2009

राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.

1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग

नई दिल्‍ली-110 002

द्वारा प्रकाशित

मूल्‍य : 25 रु.

17 टिप्‍पणियां:

  1. बचपन में सुना था ..अंधेर नगरी चौपट राजा , टके सेर भाजी , टके सेर खाजा ..

    आपकी यह पुस्तक की समीक्षा बहुत अच्छी लगी ...

    जवाब देंहटाएं
  2. हिंदी की पहली व्यंग्य के रूप में यह कालजयी नाटक आज भी उतना ही समीचीन है जितनी उस समय थी.. ए़क सार्थक पुस्तक से परिचय करवाने के लिए धन्यवाद ...

    जवाब देंहटाएं
  3. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  4. अंधेर नगरी चौपट राजा - अच्छा हास्य व्यंग है.. अच्छी याद दिलाई - भारतेंदु हरिश्चंद्र जी की भी

    जवाब देंहटाएं
  5. अच्छा लगा पढ़कर ! यह किताब आज भी उतनी ही प्रासंगिक है ! अंधेर नगरी आज भी कायम है ! 'बटन का डंडा' के सन्दर्भ में और महत्वपूर्ण ! पुस्तक-चर्चा के लिए आभार !

    जवाब देंहटाएं
  6. ए़क सार्थक पुस्तक से परिचय करवाने के लिए धन्यवाद !!!!

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत सुन्दर पुस्तक समीक्षा. कालजयी है भारतेन्दु जी की यह रचना

    जवाब देंहटाएं
  8. कालजयी रचना है और उसकी बेहतरीन समीक्षा की है……………।बहुत अच्छा लगा।

    जवाब देंहटाएं
  9. आपने बहुत अच्छी समीक्षा की है...कुछ समय पहले महफूज़ जी ने भी इसकी समीक्षा की थी, पुस्तकायन में..फिर से इस कालजयी रचना को याद दिलाने का शुक्रिया...

    जवाब देंहटाएं
  10. maine kai saal pahle rajkamal se yeh pustak mangwai thi. aapki yah sameeksha stutya hai....sadhuwad...

    जवाब देंहटाएं
  11. भारतेंदु जी के इस नाटक को पढ़ा है मैंने। इस पर आपकी समीक्षा पढ़कर एक एक दृश्य आंखों के सामने आता गया ...सुंदर समीक्षा।

    जवाब देंहटाएं
  12. मनोज जी, आज से तकरीबन 27 साल पहले इस नाटक में मैंने अभिनय किया था. अब तो कुछ भी याद नहीं उस नाटक के बारे में. आपने याद दिलाया तो मुझे याद आया. इतना सटीक व्यंग्य, इतनी सरलता से यह भारतेंदु जी के ही बस की बात थी. और ध्यान दें तो स्थिति आज भी नहीं बदली. राज बदल गए, राज करने वाले और राज चलाने वालों के स्वभाव नहीं बदले. आभार मनोज जी!

    जवाब देंहटाएं
  13. यह आज भी उतनी ही प्रासंगिक है

    जवाब देंहटाएं
  14. अँधेर नगरी ...नाटक एम.ए. में पढ़ा था । आपकी समीक्षा से बहुत कुछ ताजा हो गया । छोटे से नाटक में युग की समस्याओं को बेहतरीन ढ़ग से रखा गया है ।

    जवाब देंहटाएं
  15. युग-प्रवर्तक भारतेन्दु जी की यह रचना भी ,झाँसी की रानी( सुभद्रा कुमारी ) की तरह ही किसी न किसी रूप ( कहानी, नाटक )में किसीन किसी कक्षा के पाठ्यक्रम में आज भी चल रही है । मैंने यह रचना दूसरी या तीसरी कक्षा में नाटक रूप में पढी थी , जिसमें सबसे एक गरीब किसान दीवार गिरने से हुई अपनी बकरी की मौत का मामला राज-दरबार में लाता है । एक लम्बी बहस, गवाह और सबूतों के आधार पर स्वयं राजा ही दोषी पाया जाता है । इसलिये वह स्वयं ही फाँसी पर चढ जाता है । कहानी और प्रस्तुति इतनी मजेदार थी कि हम लोगों ने उसके संवाद तक रट लिये थे ।
    मुझे नही मालूम कि उसका मूल स्वरूप क्या है । आपकी समीक्षा पढ कर अब किताब पढनी ही होगी ।

    जवाब देंहटाएं
  16. andher nagari namak prahasan ka rangmangmanch kab aur kaha huaa tha ?

    जवाब देंहटाएं

आप अपने सुझाव और मूल्यांकन से हमारा मार्गदर्शन करें