कविताओं में प्रतीक
शब्दों में नए सूक्ष्म अर्थ भरता है
मनोज कुमार
यर्थाथ के धरातल पर हम अगर चीजों को देखें तो लगता है कि हमारे संप्रेषण में एक जड़ता सी आ गई है। यदि हमारी अनुभूतियां, हमारी संवेदनाएं, यर्थाथपरक भाषा में संप्रेषित हो तो बड़ा ही सपाट लगेगा। शायद वह संवेदना जिसे हम संप्रेषित करना चाहते हैं, संप्रेषित हो भी नहीं। “अच्छा लगा” और “मन भींग गया” में से जो बाद की अभिव्यक्ति है, वह हमारी कोमल अनुभूति को दर्शाती है। अतींद्रिय या अगोचर अनुभवों को अभिव्यक्ति के लिए भाषा भी सूक्ष्म, व्यंजनापूर्ण तथा गहन अर्थों का वहन करने वाली होनी चाहिए। भाषा में ये गुण प्रतींकों के माध्यम से आते हैं।
प्रयोगवाद के अनन्य समर्थक अज्ञेय ने अपने चिंतन से कविता को नई दिशा दी। उन्होंने परम्परागत प्रतीकों के प्रयोग पर करारा प्रहार करते हुए शब्दों में नया अर्थ भरने की बात उठाई थी। उनकी वैचारिकता से बाद के अधिकाँश कवियों ने दिशा ली, प्रेरणा ली और कविताओं में नए रंग सामने आने लगे।
इसे स्पष्ट करने हेतु अज्ञेय की एक छोटी सी कविता लेते है –
उड़ गई चिडि़या,
कांपी,
स्थिर हो गई पत्ती।
चिडि़या का उड़ना और पत्ती का कांपकर स्थिर हो जाना बाहरी जगत की वस्तुएँ है। परंतु कवि का लक्ष्य इसे चित्रित करना नहीं है। वह इनके माध्यम से कुछ और कहना चाहता है। जैसे किसी के बिछुड़ने पर मन में उभरती और शांत होती हलचल। इस मनोभाव को समझाने के लिए कवि ने बाहरी जगत की वस्तुओं को केवल प्रतीक के तौर पर लिया है।
एक और उदाहरण लें। हमारे मित्र अरूण चन्द्र रॉय की कविता “कील पर टँगी बाबूजी की कमीज़” ! नए बिम्बों के प्रयोग के संदर्भ में देखें तो अरुण राय ने कविता में 'कील' को प्रतीक रूप प्रयोग कर अपने कौशल से विस्तृत अर्थ भरने का सार्थक प्रयास किया है। प्रयोग की विशिष्टता से कील मानवीय संवेदना की प्रतिमूर्ति बन सजीव हो उठी है। कील महज कील न रहकर सस्वर हो जाती है और अपनी अर्थवत्ता से विविध मानसिक अवस्थाओं यथा - आशा, आवेग, आकुलता, वेदना, प्रसन्नता, स्मृति, पीड़ा व विषाद का मार्मिक चित्र उकेरती है।
शर्ट की जेब
होती थी भारी
सारा भार सहती थी
कील अकेले
एक प्रतीक है कील, जिस पर टंगी है पिता जी की कमीज़, जिन की जेब पर हमारी आशा, उम्मीद, आंकाक्षा टंगे होते हैं, और वे इसे सहर्ष उठाए रहते हैं। कील द्वारा शर्ट का भार अकेले ढोना संवेदना जगाता है और यह परिवार के जिम्मेदार व्यक्ति द्वारा मुश्किलों का सामना करते हुए उत्तरदायित्वों को कठिनाई से निर्वाह करना व्यंजित कर जाता है। अर्थात् इस रचना में मूर्त जगत अमूर्त भावनाओं का प्रतीक बनकर प्रस्तुत हुआ है।
प्रतीक के माध्यम से हम अपने आशय को साफ-सपाट रूप में प्रस्तुत करने की जगह सांकेतिक रूप में अर्थ की व्यंजना करते हैं। यह अभिधापरक नहीं होता। फलतः इसमें अर्थ की गहनता, गंभीरता तथा बहुस्तरीयता की प्रचुर संभावना होती है। इससे कविता का सौंदर्य बढ़ जाता है।
कविता में यदि हम किसी शाश्वत सत्य की व्यंजना प्रस्तुत करना चाहते हैं तो वह प्रतीकों के माध्यम से ही संभव है। ये सनातन सत्य का संकेत बड़ी आसानी से दे जाते हैं। “कबीर” जैसे अनपढ़ व्यक्ति भी प्रतींकों के माध्यम से अपनी बात बड़ी आसानी से कह गए और लोगों को उनके कहे के सैंकड़ों वर्षों बाद भी उनमें नयापन दीखता है।
जैसे “पकड़ बिलाड़ को मुर्गे खाई” या “नैय्या बीच नदिया डूबी जाए।” इस आधार पर हम कह सकते हैं कि प्रतीक भौतिक तथा अध्यात्मिक जगत को, मूर्त और अमूर्त को मिलाने का माध्यम है।
ऐडगर ऐलन पो के शब्द लें तो कह सकते हैं कि
“इस संसार का सौंदर्य एक विराट आध्यात्मिक सौंदर्य का प्रतिबिम्ब मात्र है और कविता उस प्रतिबिम्ब के चित्रण के जरिए उस अगम्य सत्य तक पहुँचती है।”
तभी तो कहा गया है –
“जहां न जाए रवि
वहां जाए कवि।”
जिसे हम देख सकते वह तो प्रकाश से संभव है। पर जिसे हम नहीं देख सकते, मात्र महसूस कर पाते हैं, उसे अपने अंतर में ही समझ पाते हैं, वह अमूर्त आत्म तत्व है। इन आंतरिक संवेदनाओं तथा अनुभव को काव्य में अभिव्यक्ति मिलनी चाहिए। वस्तु के स्थान पर भावों तथा विचारों की प्रस्तुति को प्रतीकों के माध्यम से कविता के शिल्प शैली में निखार आता है।
पर रूढ़ प्रतीकों का सदा समर्थन नहीं करना चाहिए। जैसे अंधकार सदा निराशा का प्रतीक और उजाला सदा आशा का प्रतीक। कुछ नया, कुछ अलग भी सोचना चाहिए। हर रचनाकार के व्यक्तित्व तथा जीवनदृष्टि में अंतर तो होता ही है। इसलिए उसके विचार, संवेग, मनोभाव भी औरों से अलग होते हैं। अभिव्यक्ति के लिए हर रचनाकार अपने व्यक्ति-विशिष्ट के अनुसार प्रतीकों की तलाश करता है। किसी की रचना में मैं पढ़ रहा था डायरी में पड़ा सूखा गुलाब, यह समाप्त हो गई मुहब्बत का प्रतीक था, वहीं समीर जी की रचना गुलाब का महकना... में वह हर पल खुश्बू बिखेरती सहेजकर रखी याद के रूप में इस्तेमाल हुआ है।
खोलता हूँ
नम आँखों से
डायरी का वो पन्ना
जहाँ छिपा रखा है
गुलाब का एक सूखा फूल
जो दिया था तुमने मुझे
और
भर कर अपनी सांसो में
उसकी गंध
बिखेर देता हूँ
एक कागज पर...
कविता में हमें वस्तुपरक वर्णन तथा मूर्त्त व्यापारों के चित्रण से बचना चाहिए। यह तो रचनाकार के ऊपर है कि वह कब किस वस्तु को किस भाव के प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल करता है। केवल दृश्य ही प्रतीक नहीं ध्वनि भी प्रतीक हो सकते हैं। ध्वनि से विशिष्ट भावों की व्यंजना दिखाई जा सकती है – “बीती विभावरी जाग री” कविता में कवि जयशंकर प्रसाद जब “खग-कुल कुल-कुल सा बोल रहा।” कहते हैं तो “कुल-कुल” केवल पक्षियों के कलरव को प्रभाव नहीं देता, यह प्रतीक है देश, समाज तथा साहित्य के आते जागरण के उल्लास तथा उत्साह का।
इसमें यह सावधानी बरतनी चाहिए कि कविता का विशिष्ट लय बाधित न हो। साथ ही प्रतीक में इंद्रियातीत अगम्य अनुभवों तथा स्थितियों की अभिव्यक्ति की क्षमता होनी चाहिए। इस प्रकार की अभिव्यंजना तभी संभव है जब शब्दों का उनके परिचित सामान्य अर्थ-संदर्भों से काट दिया जाए। अर्थात रचना में शब्द पारम्परिक अर्थ न देकर वही अर्थ दे जो कवि का अभिप्राय हो। यही बात सामान्य या विशिष्ट घ्वनि के व्यंजक प्रयोग पर भी लागू होती है। शब्द योजना ऐसी हो जो भाषा में नवीनता प्रदान करे। एक दो उदाहरण से बात स्पष्ट करता हूं।
“वो चांद की तरह सुंदर मुखड़े वाली है” यह प्रतीक बहुत पुराना है। इसका ज़माना ख़्त्म हो गया। इसे जब यूं कहा गया “वह रुपये की तरह सुंदर थी और उसका लावण्य रोटी की तरह तृप्ति देने वाला था” तो ऐसा लग रहा है जैसे उस सुंदरता को देख कर मन जुड़ा गया। यहां रुपया और रोटी नए प्रतीक के रूप में आए हैं।
एक और उदाहरण लें, गया है। “सपनों में फफूंद लग गई है”! ‘फफूंद’ शब्द तो पुराना है पर शब्द योजना ऐसी है कि नया अर्थ प्रदान कर रहा है। या फिर इसी तरह का प्रयोग “सारे सपने गधे चर गए” में मिलता है।
तो हमें दोनों बातें ध्यान में रखनी चाहिए, - एक नए प्रतीकों को अपनी रचनाओं में लाएं और दूसरे पारम्परिक प्रतीकों के नए प्रयोग पर बल दें। इससे रचना में नवीनता आएगी तथा भाषा के इस्तेमाल में वह शब्दों में नए सूक्ष्म अर्थ भरेगा।
इस आलेख का अंत करने के पहले हम आपका ध्यान अज्ञेय की कविता “कलगी बाजरे की” पर ले जाना चाहेंगे। यह कविता एक ढर्रे पर चलने वाली कविता से उनके विरोध को दर्शाती है।
अगर मैं तुमको
ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका
अब नहीं कहता,
या शरद के भोर की नीहार-न्हायी-कुंई,
टटकी कली चम्पे की
वगैरह, तो
नहीं कारण कि मेरा हृदय उथलाया कि सूना है
या कि मेरा प्यार मैला है।
बल्कि केवल यही :
ये उपमान मैले हो गए हैं
देवता इन प्रतीकों के कर गए हैं कूच!
कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है।
इस कविता द्वारा अज्ञेय ने नए प्रतीकों की आवश्यकता पर बल दिया है। अज्ञेय प्रयोग और अन्वेषण को कविता का महत्वपूर्ण प्रयोजन बताते हैं। उनका कहना था कि राग वही रहने पर भी रागात्मक संबंधों की प्रणालियाँ बदल गई है। अतः कवि नए तथ्यों को उनके साथ नए रागात्मक संबंध जोड़कर नए सत्यों का रूप दे -- यही नई रचना है। जिसमें वस्तु और भाषा तथा रूप की नवीनता होगी।
प्रेम सरोवर ने कहा…
जवाब देंहटाएंThis post throws ligt and importance of PRATIK in poems. Paramparbhanjak-Agyey's poem-KALGI BAZRE KI-seems to be an appropriate choice to justify your stand about the matters posted herein.Excellant choice-Thanks and Good Morning,Sir
Wednesday, 27 October, 2010
सम्वेदना के स्वर ने कहा…
जवाब देंहटाएंआपका यह आलेख हमारे लेखन के मरूस्थल में जल की फुहार की तरह है… आपने जिस प्रकार कई गणमान्य कवियों की रचनाओं के माध्यम से, प्रतीकों को स्पष्ट किया है, वह सामान्य भाषा में गहरी बात समझा जाता है. हाँ! गुलज़ार साहब ने अपनी नज़्मों में चाँद को अनगिनत प्रतीक के रूप में इस्तेमाल किया है और उनका यह प्रयोग अनोखा और अनूठा है. जानकारीपूर्ण अलेख!!
Wednesday, 27 October, 2010
हरीश प्रकाश गुप्त ने कहा…
जवाब देंहटाएंनए प्रतीकों के संदर्भ में मैं आदरणीय अज्ञेय जी के विचारों से सदा प्रेरणा ग्रहण करता आया हूँ। इस प्रसंग में आज ब्लाग पर आपका आलेख देखकर मन को तृप्ति सी महसूस हुई। पुराने घिसे पिटे प्रतीकों का प्रयोग करके हम सृजन में मूलभूत योगदान न कर केवल एक परिधि के अन्दर धमाचौकड़ी करते रहते हैं। रचना धर्मिता का मूल तत्व सृजन है और सृजन हमेशा नवीनता और मौलिकता के समावेश से होता है।
सुन्दर वैचारिक प्रस्तुति के लिए आभार।
Wednesday, 27 October, 2010
प्रवीण पाण्डेय ने कहा…
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक व संग्रहणीय पोस्ट।
Wednesday, 27 October, 2010
Apanatva ने कहा…
जवाब देंहटाएंbahut acchee post
Aabhar
Aashu ने कहा…
जवाब देंहटाएंअच्छी और हमारे जैसे नए लिख्खाड़ों के ज्ञान को बढाती पोस्ट.
धन्यवाद!
http://draashu.blogspot.com/2010/10/blog-post_27.html
Wednesday, 27 October, 2010
shikha varshney ने कहा…
जवाब देंहटाएंआज तो सारा खजाना ही उड़ेल दिया आपने .
संग्रहणीय पोस्ट.
Wednesday, 27 October, 2010
आदरणीय मनोज जी ,
जवाब देंहटाएंकविता में नए विम्बों एवं प्रतीकों का हमेशा से ही महत्व रहा है! विम्ब ही कविता को प्रभावशाली बना कर कल्पनाओं को सन्दर्भों के यथार्थ से जोड़ते हैं ! दुनियां में सच्चाई तो कभी नहीं बदलती और कविता सच्चाई को ही मुखरित करती है ! बार बार वही बातें लिखी जाती हैं मगर नए प्रतीक उसमे नयापन भर कर उसे नया रूप दे देते हैं!
इस विषय पर आपका सारगर्भित आलेख पढ़ कर बहुत ही अच्छा लगा !
बहुत बहुत धन्यवाद !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
www.marmagya.blogspot.com
आज तो बहुत ही काम की जानकारी दी……………बहुत ही सूक्ष्मता से प्रतीकों का महत्त्व समझाया है जो बेहद मेहनत का काम है………………।बहुत बहुत आभार्।
जवाब देंहटाएंZEAL has left a new comment on your post
जवाब देंहटाएं“अच्छा लगा” और “मन भींग गया” में से जो बाद की अभिव्यक्ति है, वह हमारी कोमल अनुभूति को दर्शाती है। अतींद्रिय या अगोचर अनुभवों को अभिव्यक्ति के लिए भाषा भी सूक्ष्म, व्यंजनापूर्ण तथा गहन अर्थों का वहन करने वाली होनी चाहिए। भाषा में ये गुण प्रतींकों के माध्यम से आते हैं।
puri tarah sahmat hun aapse.
किसी तकनीकी विषय के ज्ञाता से पूछ कर देखिए। सबसे मुश्किल होता है-सपाटबयानी। भाषा साहित्य प्रतीकों के अर्थ में ही तकनीकी साहित्य से भिन्न है। किन्तु,एक प्रश्न विचारार्थ रखना चाहूंगाःप्रतीकों में जिस बहुस्तरीयता की संभावना की ओर आपने संकेत किया है,क्या वह मूलार्थ से हटकर समीक्षक की अपनी सोच भरने की कोशिश नहीं है? क्या कोई गंभीर लेखक ऐसे शब्दों को लेकर रचना करता है जिसकी व्याख्या की अनंत संभावना हो? यदि हां,तो उस रचना का मूलार्थ क्या रह गया? गीता की टीकाएँ आज भी लिखी जा रही हैं। यदि कृष्ण ने कोई ऐसी बात कही थी जिसकी व्याख्या सदियों तक हो सके,तो पहले ही से दिग्भ्रमित अर्जुन की रणक्षेत्र में क्या हालत हुई होती?
जवाब देंहटाएंआपने बिल्कुल सही कहा सरल भाषा में लिखना ही असली प्रतिभा है. जिस कविता का अर्थ समझने के लिए सर खपाना पड़े उसे कविता की श्रेणी में ही नहीं रखा जाना चाहिए. जो कवि इसका विरोध करते हैं उनसे सरल भाषा में लिखने के लिए कहिए मैं दावे के साथ कहता हूँ वो कभी नहीं लिख पायेंगे.
हटाएंप्रतीक और विम्ब प्रयोग की विस्तार से व्याख्या की है आपने. निश्चय ही रोचक और ज्ञानवर्धक लेख संजोया गया है . इसमें नए लेखको की लेखनी के परिमार्जन की संभावनाएं है . अज्ञेय जैसे प्रतिष्ठित कवियों के लेखन से कुछ सीख पाना सौभाग्य की बात है . अरुण चन्द्र राय को बधाई कि कसौटी पर तपा रहे है आप उनकी लेखनी को कुंदन करने के लिए.
जवाब देंहटाएंकविता को सबसे आदर्श साहित्यिक विधा इसलिए भी कहा गया है कि विम्बो और प्रतीकों के माध्यम से बहुत सी बातें कम शब्दों में पूरी एतिहासिक, सामाजिक, आर्थिक पृष्ठभूमि से साथ कह दी जाती है.. आज आपके आलेख में अज्ञेय से लेकर आज के ब्लॉग कवियों तक से उदहारण लेकर बहुत ही सहजता से व्यक्त किया है...अज्ञेय जी से प्रयोगवाद का हिंदी कविता में प्रादुर्भाव आया और आज नए नए रूपों में हिंदी कविता को समृद्ध कर रहा है. नई सामाजिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक परिदृश्य में हिंदी में प्रतीक और विम्ब भी बदल रहे हैं.... इसके हजारों उद्धरण मिल जायेंगे.. अपनी चर्चा में आपने मेरी कविता "कील पर टंगी बाबूजी की कमीज' से कील का उद्धरण दिया, यह मेरे लिए एक उपलब्धि है... आपका बहुत बहुत आभार !
जवाब देंहटाएंकविता, बिंबो और प्रतीकों के सहारे न्यून शब्दों में विशाल अर्थ पिरो देती है। अलंकार सोचने को विवश कर जाते है। यही कारण है कि वह सीधा ह्रदय में उतरती है।
जवाब देंहटाएंप्रतीक के बारे में जानकारी और उसका काव्य में महत्व पर यह आलेख बहुत अच्छा लगा। अब बिम्बों के ऊपर भी कुछ आना चाहिए।
जवाब देंहटाएं6/10
जवाब देंहटाएंएक वृहद विषय को बहुत संक्षेप में कुशलता से समेटा है. नव रचनाकारों के लिए अत्यंत उपयोगी पोस्ट.
इस आलेख को आगे बढाने की आवश्यकता है. लीलाधर जगूड़ी, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल जैसे तमाम श्रेष्ठ कवियों की रचनाओं के उदाहरण साथ.
बहुत अच्छे से समझाया है प्रतीकों के महत्त्व को ...बहुत अच्छी जानकारी देती हुई अच्छी पोस्ट
जवाब देंहटाएंब्लाग जगत की कुछ उत्कष्ट प्रस्तुतियों में से एक...बधाई।
जवाब देंहटाएंब्लाग जगत की कुछ उत्कृष्ट प्रस्तुतियों में से एक...बधाई।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार इस सारगर्भित आलेख के लिए.
जवाब देंहटाएंगौरवान्वित महसूस कर रहा हूँ कि आपने मेरी कविता को इस तरह उद्धरण में प्रस्तुत किया.
Bahut acha aalekh ..aabhar...smeer jo ko bhi badhai..
जवाब देंहटाएंकविता में प्रतीकों के प्रयोग और सार्थकता को बहुत अच्छी तरह समझाया ...
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक पोस्ट के लिए आभार ...!
आपका यह ब्लॉग और खासकर यह प्रस्तुति नए लिख रहे कविओं को बहुत ही मार्गदर्शक साबित हो रहा है। आभार इस प्रस्तुति के लिए।
जवाब देंहटाएंकविता कहते हुवे .. बिम्ब और प्रतीकों में किये गए नए अनुभव कविता के प्रगतिशील होने क़ि बात दर्शाते हैं ... हर दौर के कवियों ने इस परंपरा को तोडा है .... समीर जी कविता सच में बहुत शब्दों से परे बहुत कुछ कहती है ...
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