पेज

रविवार, 26 दिसंबर 2010

कहानी ऐसे बनी-17 :: तेल जले तेली का आँख फटे मशालची का

कहानी ऐसे बनी-17
तेल जले तेली का आँख फटे मशालची का

हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतिम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रही इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी।

रूपांतर :: मनोज कुमार

जय हो ! जय हो.... !! आप सोच रहे होंगे हम इतना फुदक क्यों रहे हैं.... ? वजह वाजीब है। खरमास गया। अरे बाप रे बाप... ! इस बार जो शीतलहरी पड़ा है, पूछिये मत। एक पखवाड़ा तो पता ही नहीं लगा कि दिन है कि रात। गोसांई बाबा भी दोपहर में एक घड़ी के लिए उगते थे और धूप-अगरबत्ती दिखा के लापता! आदमी तो आदमी पशु-पक्षी सब का प्राण भी आफ़त में था। बिल में रहने वाला सांप सब जहां-तहां उलट गया। कितने बूढे-वृद्ध लटक गए... मगर यह हार कंपा के खून जमा देने वाली शीतलहरी में सतगामा खाने की हिम्मत नहीं हुई।

तिल-संक्रांति का चूरा-दही खा कर भी शीतलहरी नहीं गई। खोखाई ओझा पंचांग देख कर बोले फगुनाहट में भी उग्रास नहीं होगा। शनिचर वाम और मंगल दाहिना हैं। बिना हनुमान जी के अष्टयाम किये कोई उपाय नहीं है। 'मृखा न होहि देव रिसी बानी'। खोखाई ओझा भी कोई कम पहुंचे हुए महत्मा नहीं हैं। उनका ब्रह्म-बाक्‌ कभी झूठ नहीं हो सकता। ऐसे काल के पहरा से मुक्ति के लिए नवाह भी करना पड़े तो कम ही है।

गाँव के मानजन सब पीपल के नीचे बैठे। धनेसर चौधरी बोले कि पर-प्रसाद, और मंडली के पान-बीड़ी का खर्चा हम देंगे। भगलू दास ने मूलगैन मंडली को बुलाने का ठेका लिया। बचनुआ हजाम हवन के जुगार पर चला। खुरचन मांझी तिरपाल टांगने लगा। बड़का कोल्हू वाला भोजू फ्री में तेल देने के लिए तैयार हो गया। खोखाई झा फिर से पंचांग में शुभ मुहुर्त देख कर खद्दर वाला चादर ओढ़ कर संकल्प कराने बैठ गए। बाल-ब्रहमचारी मौजे पहलवान ने संकल्प लिया।

आठ घंटा अष्टयाम चला ही था कि रात का सब कुहासा गायब। भूरुकबा तारा झक-झक करने लगा। आम की लकड़ी वाली हवन की धुनी से जो गर्मी आई कि शीतलहरी का बाप भी सिर पर पैर रख कर भग खड़ा हुआ। खोखाई झा खे-खे कर कहने लगे, 'देखा भगवान के नाम का प्रभाव।' "भूत-पिशाच निकट नहीं आबे। महावीर जब नाम सुनाबे॥" हनुमान जी का नाम सुन कर यह शीत-पिचास भी भाग गया। बात हो ही रही थी कि घुप्प... धत्त तेरे कि मंडप के चारो कोने वाला बड़ा चौमुख दीप बारी-बारी से लुक-झुक-लुक-झुक करके बुझने लगा।

भोजू सेठ का मैनेजर बुझावन महतो मशालची बना था। वही कंजुस दीप सब में बूंद-बूंद तेल गिरा रहा था। सुखाई बाबा ने कितनी बार कहा कि अरे चौमुख भर न दो .... लेकिन नहीं .... कहता था भरने से तुरत धधक कर ख़तम हो जाएगा। लो .... सब दिया बुझ गया। सिर्फ़ मंडप के आगे वाला दिया टिमटिमा रहा था।

अष्टयाम का दिया बुझा देख लगे रामजी बाबा दहारने, "कहाँ गया बुझावना ? बदमाश, जैसा नाम वैसा काम ! सारा दिया बुझा दिया।"

बुझावन महतो दिया के बदले कान में तेल डाले चुप-चाप सुन रहा था। इतने में खखनु गोप तेल का कनस्तर उठा कर जैसे ही दिए में डालना चाहा कि बुझावन मशालची 'हा ! हा !! ज्यादा नहीं ! बर्बाद हो जाएगा...!!!' चिल्लाने लगा। खखनु से कनस्तर झपटते हुए, 'बोला अभी तो पहर रात बांकी है। इतना-इतना तेल डाले तो एक ही घंटा में ख़तम हो जाएगा.... फिर ??'

उधर से बटेसर झा घुडके, "हूँ ! तेल जले तेली के। आँख फटे मशालची के॥ भोजू सेठ ने कहा जितना भी तेल लगे देगा ....... इस बुझावन मशालची को एक ही कनस्तर में आँख फट रहा है। मक्खी के ...... से घी निकाल के दाल में डालने वाला।"

हा...हा...हा............ ! क्या कहे झा जी.......... तेल जले..........हे.....हे.......... हो......... हा.............. मक्खी के.......... से घी......... खी......खी..........खी......... हु...हु....हु....हु.... !!! बटेसर झा जो लय में आगे पीछे अलंकार लगा के इस कहावत को पढ़े कि वहाँ बैठे सारा वृद्ध, जवान, बच्चे सब ठठा कर हंस पड़े। बुझावन बेचारा झेंप कर कहा, 'क्या सब कहते हैं पंडी जी !!"

बटेसर झा बोले, 'सही ही तो कहते हैं। भोजू दिल खोल कर कहा कि जितना तेल लगे सो लगे। अष्टयाम के चारो चौमुख से रौशनी होनी चाहिए। और तुम्हारे ऐसा मशालची.... बूंद-बूंद टपका कर ओस चटा कर प्यास मार रहा है। तेल जल रहा है, भोजू का और आँख फट रहा है बुझावन मशालची का।' बच्चा सब फिर से एक बार ताली दे के खिखिया दिया। बुझावन मशालची भनभना कर रह गए। और हम आप लोगों को सुनाने के लिए, एक कहावत सीख गए। "तेल जले तेली का। आँख फटे मशालची का॥"

अर्थात किसी कार्य में धन कोई व्यय कर रहा है और कंजूसी में हाय-तौबा कोई और मचा रहा है। ऐसा नहीं करना चाहिए। जब कोई ख़ुशी से अपना धन खर्च रहा है तो उस में दूसरा क्यों ना-नुकुर करे ? है कि नहीं ?? तो इसी बात पर बोल दीजिये, "पवनसुत हनुमान की जय !!"

8 टिप्‍पणियां:

  1. मुहाबरे , बहुत से बातो को एक लाईन में ही कहते है ...इसके पीछे कुछ राज होता है

    जवाब देंहटाएं
  2. करन बाबू, बचपन से इस कहावत को दूसरे तरह सुनते आ रहे हैं... चलिये आज कहानी भी सुन लिये!!
    आपका वर्णन किसी वीडियोग्राफी से कम नहीं होता है...विशेषतः इस शृन्खला में तो लगता है कि आप की बोर्ड से नहीं, किसी कैमेरे से लिख रहे हैं!!
    आशीष!!

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत बढ़िया ...कहावतों के पीछे की कहानी पढ़ कर आनंद आया ....

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत खूब. हिन्दी पट्टी के सहज-सरल लोक-जीवन में रची-बसी दिलचस्प कहावतों के धारावाहिक प्रस्तुतिकरण की यह कड़ी भी बहुत खूबसूरत बन पड़ी है. बधाई और शुभकामनाएं.

    जवाब देंहटाएं
  5. मिथिला के आम जीवन से चित्र उठा सजीव प्रस्तुतीकरण हो रहा है.. करण जी आपकी दृष्टि अद्भुद है.. मनोज जी का रूपांतरण उत्कृष्ट ..

    जवाब देंहटाएं

आप अपने सुझाव और मूल्यांकन से हमारा मार्गदर्शन करें