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गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011

नवजागरण काव्य और भारतेन्दु हरिश्चन्द्र

नवजागरण काव्य और भारतेन्दु हरिश्चन्द्र

मनोज कुमार

आधुनिक हिन्दी कविता का प्रारंभ उन्नीसवीं सदी में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से माना जाता है। इस समय अंग्रेज़ मिशनरियां भारत में अपने पैर जमा रही थीं। ईस्ट इंडिया कम्पनी धीरे-धीरे व्यापारिक मकसद से अपना राज स्थापित कर रही थी। वे राजाओं को आपस में लड़वा रहे थे और जनता का शोषण कर यहां का धन अपने देश ले जा रहे थे। इस शोषण और लूट-पाट के कारण देश की जनता ग़रीबी की मार झेल रही थी। स्वाधीनता संग्राम के रूप में सन्‌ 1857 में अंग्रेज़ों की इस साजिश के प्रति विस्फोट हुआ। यह सुनियोजित न होने के कारण विफल रहा। किन्तु जो सबसे बड़ी बात थी, वह यह कि इसमें सभी वर्गों, सम्प्रदायों, भाषा-भाषियों ने एक साथ भाग लिया। इसकी विफलता के बाद देश की बागडोर ईस्ट इंडिया कम्पनी के हाथ से निकल कर ब्रिटिश संसद के हाथ में आ गई, जिसकी मुखिया महारानी विक्टोरिया थी।

इस आधुनिक युग में कविता के स्वरूप में भी व्यापक परिवर्तन आया। रीतिकालीन कविता के विपरीत इस युग की कविता विषय, रूप, भाव, भाषा के स्तर पर नया रूप धारण करने का प्रयास करने लगी। कविता पहली बार दरबार से बाहर निकली। उसका जनता के साथ सीधा संबंध स्थापित हुआ। इस कोशिश में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अग्रणी भूमिका निभाई। उन्होंने नाटक, निबंध, कविता आदि के माध्यम से साहित्य और समाज के बीच के संबंधों को नये ढंग से समझने-समझाने का प्रयास किया।

पश्चिम बंगाल सबसे पहले पाश्चात्य सभ्यता के सम्पर्क में आया। फलस्वरूप बंगाल में नए विचारों का प्रादुर्भाव हुआ। मध्यकालीन रूढिवादिता, संकीर्णता, अंधविश्वासी चेतना में जकड़े समाज को झकझोर कर जगाने का काम राजा राम मोहन राय, ईश्वरचंद विद्यासागर, केशवचंद्र सेन, देवेन्द्रनाथ ठाकुर, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद जैसे विद्वानों ने अपने हाथ में लिया। 1828 में ब्रह्म समाज की स्थापना हुई। बाल-विवाह पर रोक, विधवा विवाह की अनुमति, नारी शिक्षा, अंध विश्वासों के प्रति आवाज़ उठाना इनके प्रमुख क्रिया कलाप थे। इनके प्रयासों से देश के विभिन्न भागों में भी क्रांति के स्वर गूंजने लगे। समाज सुधार का आन्दोलन चल पड़ा।

इन सब से प्रेरित हो कर भारतेन्दु अपने छोटे से जीवन में क्रांति की यह ज्योति अपनी रचनाओं में ले आए और खुलकर सामाजिक सुधारों का झंडा उठा लिया। स्वतंत्र कविताओं के अलावा नाटकों के लिए लिखी गई कविताओं में भी समाज सुधार के उनके विचार अभिव्यक्त हुए हैं। समाज की रूढिवादिता का विरोध उनका मकसद था। वे चाहते थे कि लोग अंग्रेज़ी शिक्षा ग्रहण करें ताकि विश्व के ज्ञान-विज्ञान से उनका परिचय हो।

लखहुं न अंगरेजन करी उन्नति भाषा मांहि।

सब विद्या के ग्रंथ अंगरेजिन मांह लखहिं॥

इसका मतलब यह कदापि नहीं था कि वे अपनी भाषा को छोड़ने की बात करते थे। वे निजभाषा का भी ज़ोर-शोर से पक्ष लेते हैं।

निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल।

बिन निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिय को सूल॥

भारतेन्दु ने हिन्दी प्रचार-प्रसार के साथ ही नवजागरण और समाजसुधार का अभियान भी चलाया। धार्मिक अंधविश्वास, सामाजिक रूढिवादिता, छुआ-छूत, ऊंच-नीच की भावना के विरोध में उन्होंने कविताओं आदि के माध्यम से अभिव्यक्ति दी। उन्होंने काव्य को जनता के साथ जोड़ा।

रचि बहुविधि के वाक्य पुरानन मांहि घुसाए।

शैव शाक्त वैष्णव अनेक मत प्रगटि चलाए।।

जाति अनेकन करी नीच अरु ऊंच बनायो।

खान-पान संबंध सबन सों बरजि छुड़ायो॥

वे नारी शिक्षा के हिमायती थे। वेश्यागमन के ख़िलाफ़ थे। नारी को पुरुष के बराबर मानने के पक्षधर थे। स्त्री के लिए उपयोगी पत्रिका “बालाबोधिनी” का प्रकाशन भी उन्होंने शुरु किया। इसके मुख्यपृष्ठ पर लिखा रहता था,

“जो हरि सोई राधिका जो शिव सोई शक्ति।

जो नारी सोई पुरुष यामैं कछु न विभक्ति॥”

उन्होंने विधवा विवाह के पक्ष में “वैदिकी हिंसा न भवति” में लिखा,

नष्टे मृते प्रवजिते क्लीवे च पतिते पतौ।

पंच स्वायत्सु नारीणां पतिरुयो विधीयते॥

अर्थात्‌ पति के नष्ट हो जाने, मर जाने, लापता हो जाने, नपुंसक हो जाने पर, इन पांच प्रकार की विपत्तियों में पड़ी स्त्रियों के लिए दूसरे पति का विधान है। ईश्वरचंद्र विद्यासागर से वे काफ़ी प्रेरित थे। उन्होंने कविता में भी इस तरह की आवाज़ दी है,

सुंदर बानी कहि समुझावै।

बिधवागन सों नेह बढावै।

दयानिधान परम गुन-आगर।

सखि सज्जन नहिं विद्यासागर।

भारतेन्दु की रचनाओं में देशभक्ति की भावना भी उजागर हुई है। उन्होंने अंग्रेज़ी शासन और भारतीय जनता के बीच उपस्थित अंतर्विरोध को समझा और इसे अभिव्यक्त करते हुए लिखा,

अंगरेज राज सुख-साज सज्यौ है भारी,

पै धन विदेश चलि जात इहै अति ख्वारी।

उन्होंने ब्रिटिश शासन की व्यावसायिक वृत्ति को भारत की दुर्दशा का कारण भी माना है। स्वदेशी का समर्थन करते हुए लिखा है,

धन विदेश चलि जात, तऊ जिय होत न चंचल।

जड़ समान ह्वै रहत अकिलहत रचत सकल कल॥

जीवत विदेस की वस्तु लै ता बिन कछु नहिं कर सकत।

पुनर्जागरण के ऐसे समय में जब देश में समाज एक ओर धर्मांधता, रूढिवादिता और समाजविमुख परंपरा से लड़ने के लिए तैयार हो रहा था और दूसरी ओर साम्राज्यवादी ताकत का मुकाबला करने के लिए भी तैयार होना चाहता था, ऐसे में भारतेन्दु का साहित्य विशेषकर उनका काव्य इन अन्तर्विरोधों को अपनी रचना-प्रक्रिया का अंग बनाकर सृजन के धरातल पर आया। उन्होंने अपने युग की वस्तु-स्थिति को समझा। उसके सामाजिक अंतर्विरोधों को पहचाना। राष्ट्रीय-जागरण की आवश्यकता महसूस किया। इसके साथ ही एक जागृत विवेक के साथ साहित्य को आम जनता के साथ कुशलतापूर्वक जोड़ा।

9 टिप्‍पणियां:

  1. 'निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल ' वास्तव में इस प्रेरक विचार के साथ राष्ट्र -भाषा के रूप में हिन्दी की विकाश यात्रा का परचम सबसे पहले भारतेंदु हरिश्चन्द्र जी ने लहराया था . उन पर केंद्रित इस ज्ञान-वर्धक और प्रेरणा दायक आलेख के लिए आभार.

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  2. एक और अद्ध्याय सीखा आज ..आभार.

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  3. सुखद लगा आलेख पढना...

    आभार आपका इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए...

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  4. साहित्यिक, जानकारीपरक एवं संग्रहणीय आलेख.

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  5. यह तो हिंदी की क्लास्रूम का अनुभव प्रदान करती है.. हमेशा नया सीखने को मिलता है!!

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  6. एक युगप्रवर्तक कालजयी साहित्यकार को करीने से परोसने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद!

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  7. बहुत अच्छा । भारतेन्दु ने हिन्दी साहित्य को एक पहचान दी है। वे मात्र व्यक्ति नहीं अपितु एक संस्था थे।
    आज भी उनके जैसे व्यक्ति की आवश्यकता है।


    एक निवेदन:-
    मैं वृक्ष हूँ। वही वृक्ष, जो मार्ग की शोभा बढ़ाता है, पथिकों को गर्मी से राहत देता है तथा सभी प्राणियों के लिये प्राणवायु का संचार करता है। वर्तमान में हमारे समक्ष अस्तित्व का संकट उपस्थित है। हमारी अनेक प्रजातियाँ लुप्त हो चुकी हैं तथा अनेक लुप्त होने के कगार पर हैं। दैनंदिन हमारी संख्या घटती जा रही है। हम मानवता के अभिन्न मित्र हैं। मात्र मानव ही नहीं अपितु समस्त पर्यावरण प्रत्यक्षतः अथवा परोक्षतः मुझसे सम्बद्ध है। चूंकि आप मानव हैं, इस धरा पर अवस्थित सबसे बुद्धिमान् प्राणी हैं, अतः आपसे विनम्र निवेदन है कि हमारी रक्षा के लिये, हमारी प्रजातियों के संवर्द्धन, पुष्पन, पल्लवन एवं संरक्षण के लिये एक कदम बढ़ायें। वृक्षारोपण करें। प्रत्येक मांगलिक अवसर यथा जन्मदिन, विवाह, सन्तानप्राप्ति आदि पर एक वृक्ष अवश्य रोपें तथा उसकी देखभाल करें। एक-एक पग से मार्ग बनता है, एक-एक वृक्ष से वन, एक-एक बिन्दु से सागर, अतः आपका एक कदम हमारे संरक्षण के लिये अति महत्त्वपूर्ण है।

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