मनोज कुमार
सामाजिक यथार्थ के चित्रण और मनुष्य के चातुर्दिक विकास और हित पर विशेष बल देने वालों उपन्यास के परम्परा में शिवपूजन सहाय का नाम भी आता है। शिवपूजन सहाय का जन्म 1893 में बिहार के शाहाबाद ज़िले के उनवास गांव में हुआ था। हाई स्कूल की परीक्षा पास कर हिन्दी शिक्षक नियुक्त हो गए। हिन्दी की पत्रिकाओं ‘मतवाला’, ‘बालक’, ‘आदर्श’, ‘समन्वय’, ‘गंगा’, ‘जागरण’ और ‘साहित्य’ का सम्पादन कार्य किया। छपरा के राजेन्द्र कॉलेज के हिन्दी विभागाध्यक्ष पद को सुशोभित किया। 1960 में पद्मभूषण से सम्मनित किया गया। देहावसान 1963 में हुआ।
इनकी भाषा सहज और स्वाभाविक है। बोल-चाल के व उर्दू शब्दों का प्रयोग हुआ है। भाषा में अनुप्रासों व भाषण कला के दर्शन होते हैं।
इनकी प्रमुख रचनाएं हैं,
१. कहानी संग्रह : विभूति
२. जीवनियां : अर्जुन, भीष्म
३. उपन्यास : देहाती दुनिया
४. संस्मरण : बिहार का विहार
५. शिवपूजन रत्नावली चार खण्डों में।
सियारामशरण गुप्त (जन्म 1896) के ‘गोद’, ‘अंतिम आकांक्षा’, और ‘नारी’ में गांधीवादी विचारधारा का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। इनमें व्यक्तिगत चिंतन और अनुभूति स्पष्ट है।
प्रतापनारायण श्रीवास्तव के ‘विजय’, ‘विकास’, ‘बयालीस’, ‘विदा’, ‘बेकसी का मज़ार’ और ‘विसर्जन’ जैसे उपन्यासों में गांधीवादी विचारधारा का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है।
प्रतापनारायण श्रीवास्तव के उपन्यासों की कथावस्तु से भारतीय आदर्श की झलक मिलती है। उनके उपन्यासों में यदि प्रेमचंद जैसी उपदेशात्मकता है तो प्रसाद जैसी दार्शनिकता भी है। वे आध्यात्मिक स्तर पर गांधीवाद, दृदय-परिवर्तन और आत्मपीड़न के सिद्धान्त को मान्यता देते हैं।
मानवतावादी दृष्टि के उदर से ही उपन्यास के क्षेत्र में सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक शोषण से विद्रोह करनेवाली स्वच्छंदतावादी प्रेमधारा का भी जन्म हुआ। इस काल के उपन्यासों का स्वर शोषित के प्रति सहानुभूति का है। यह विश्वास जताया गया कि जो शोषित है वह यदि शोषण मुक्त हो जाएगा तो उसमें सब प्रकार के सद्गुणों का विकास हो जाता है।
इस परम्परा में वृन्दावन लाल वर्मा ने यदि हिन्दी में ऐतिहासिक उपन्यासों की नींव डाली तो ठीक इसके विपरीत चण्डी प्रसाद हृदयेश ने कल्पना प्रधान-भाव-मूलक उपन्यासों का प्रणयन किया। बाह्य और आभ्यांतर प्रकृति की रमणीयता का समन्वित रूप में चित्रण करने वाले सुंदर और अलंकृत पदविन्यासयुक्त उपन्यास ‘मंगल प्रभात’ उल्लेखनीय है।
वृन्दावनलाल वर्मा का जन्म झांसी के मऊ रानी पुर नामक गांव में 9 जनवरी 1889 में हुआ। पिता अयोध्या प्रसाद स्वतंत्रता संग्राम में मारे गए। परदादी द्वारा सुनाई गई वीरों की कथाएं उनके मन पर अंकित हो गईं। पुरातत्व, मनोविज्ञान, साहित्य, मूर्तिकला, चित्रकला, सितारवादन आदि में रुचि रखने वाले वर्मा जी शिकार के भी शौकीन थे। वकालत छोड़ झांसी में ही रहकर उन्होंने साहित्य साधना की। उनके उपन्यासों के कथानक आदर्श एवं रोमांस की पृष्ठभूमि पर आधारित हैं। जिसमें सांस्कृतिक चेतना राष्ट्रीय गौरव और अतीत के दिनों के कारनामों की स्पष्ट झांकी देखने को मिलती है। इनका देहावसान 23 फ़रवरी 1969 को हुआ। वर्मा जी की प्रमुख रचनाएं
१. ऐतिहासिक उपन्यास : गढ़ कुण्डार, विराटा की पद्मिनी, झांसी की रानी महारानी लक्ष्मी बाई, मुसाहिब जू, कचनार, मृगनैनी, छत्रसाल, सत्रह सौ उन्नीस, ललिता दिव्य, माधवजी सिंधिया टूटे कांटे, अहिल्या बाई।
२. सामाजिक उपन्यास : लगन, प्रेम की भेंट, कुंडली-चक्र, संगम, प्रत्यागत, हृदय की हिलोरें, कभी न कभी, अचल मेरा कोई, अमर बेल, सोना।
३. कहानी संग्रह : हरश्रृंगार, कलाकार का दण्ड, दबे पांव, शरणागत, तोषी।
४. नाटक : सेनापति, ऊदल, फूलों की दीवाली, कश्मीर का कांटा, झांसी की रानी, हंस मयूर, पूर्व की ओर, वीरबल, जहां दाराशाह, धीरे-धीरे, राखी की लाज, बांस की फांस, लो भाई पंचों लो, पीले हाथ, पायल, मंगल सूत्र, सगुन, खिलौनो की खोज, नीलकण्ठ, कनेर, विस्तार, देखादेखी, केवट।
इस परम्परा में जयशंकर प्रसाद (तितली), निराला (अप्सरा, अलका, प्रभावती), भगवती चरण वर्मा (तीन वर्ष, चित्रलेखा), और उषा देवी मित्रा (प्रिया) का योगदान उल्लेखनीय है।
हालाकि प्रेमचंद्रोत्तर काल में स्वच्छंदतावादी प्रवृत्ति का ह्रास हो गया था लेकिन यह ऐसी प्रवृत्ति है जो कभी मर नहीं सकती। विद्वानों का तो यह भी मानना है कि यह प्रवृत्ति मन्मथनाथ गुप्त, यशपाल और राहुल सांकृत्यायन जैसे लेखकों में भी मौज़ूद है। वैसे किसी रचना में किसी प्रवृत्ति का होना एक बात है और उसका प्रधान होना दूसरी बात।
सामाजिक यथार्थ के चित्रण और मनुष्य के चातुर्दिक विकास और हित पर विशेष बल देने वालों उपन्यास के परम्परा में शिवपूजन सहाय का नाम भी आता है। शिवपूजन सहाय का जन्म 1893 में बिहार के शाहाबाद ज़िले के उनवास गांव में हुआ था। हाई स्कूल की परीक्षा पास कर हिन्दी शिक्षक नियुक्त हो गए। हिन्दी की पत्रिकाओं ‘मतवाला’, ‘बालक’, ‘आदर्श’, ‘समन्वय’, ‘गंगा’, ‘जागरण’ और ‘साहित्य’ का सम्पादन कार्य किया। छपरा के राजेन्द्र कॉलेज के हिन्दी विभागाध्यक्ष पद को सुशोभित किया। 1960 में पद्मभूषण से सम्मनित किया गया। देहावसान 1963 में हुआ।
इनकी भाषा सहज और स्वाभाविक है। बोल-चाल के व उर्दू शब्दों का प्रयोग हुआ है। भाषा में अनुप्रासों व भाषण कला के दर्शन होते हैं।
इनकी प्रमुख रचनाएं हैं,
१. कहानी संग्रह : विभूति
२. जीवनियां : अर्जुन, भीष्म
३. उपन्यास : देहाती दुनिया
४. संस्मरण : बिहार का विहार
५. शिवपूजन रत्नावली चार खण्डों में।
सियारामशरण गुप्त (जन्म 1896) के ‘गोद’, ‘अंतिम आकांक्षा’, और ‘नारी’ में गांधीवादी विचारधारा का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। इनमें व्यक्तिगत चिंतन और अनुभूति स्पष्ट है।
प्रतापनारायण श्रीवास्तव के ‘विजय’, ‘विकास’, ‘बयालीस’, ‘विदा’, ‘बेकसी का मज़ार’ और ‘विसर्जन’ जैसे उपन्यासों में गांधीवादी विचारधारा का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है।
प्रतापनारायण श्रीवास्तव के उपन्यासों की कथावस्तु से भारतीय आदर्श की झलक मिलती है। उनके उपन्यासों में यदि प्रेमचंद जैसी उपदेशात्मकता है तो प्रसाद जैसी दार्शनिकता भी है। वे आध्यात्मिक स्तर पर गांधीवाद, दृदय-परिवर्तन और आत्मपीड़न के सिद्धान्त को मान्यता देते हैं।
मानवतावादी दृष्टि के उदर से ही उपन्यास के क्षेत्र में सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक शोषण से विद्रोह करनेवाली स्वच्छंदतावादी प्रेमधारा का भी जन्म हुआ। इस काल के उपन्यासों का स्वर शोषित के प्रति सहानुभूति का है। यह विश्वास जताया गया कि जो शोषित है वह यदि शोषण मुक्त हो जाएगा तो उसमें सब प्रकार के सद्गुणों का विकास हो जाता है।
इस परम्परा में वृन्दावन लाल वर्मा ने यदि हिन्दी में ऐतिहासिक उपन्यासों की नींव डाली तो ठीक इसके विपरीत चण्डी प्रसाद हृदयेश ने कल्पना प्रधान-भाव-मूलक उपन्यासों का प्रणयन किया। बाह्य और आभ्यांतर प्रकृति की रमणीयता का समन्वित रूप में चित्रण करने वाले सुंदर और अलंकृत पदविन्यासयुक्त उपन्यास ‘मंगल प्रभात’ उल्लेखनीय है।
वृन्दावनलाल वर्मा का जन्म झांसी के मऊ रानी पुर नामक गांव में 9 जनवरी 1889 में हुआ। पिता अयोध्या प्रसाद स्वतंत्रता संग्राम में मारे गए। परदादी द्वारा सुनाई गई वीरों की कथाएं उनके मन पर अंकित हो गईं। पुरातत्व, मनोविज्ञान, साहित्य, मूर्तिकला, चित्रकला, सितारवादन आदि में रुचि रखने वाले वर्मा जी शिकार के भी शौकीन थे। वकालत छोड़ झांसी में ही रहकर उन्होंने साहित्य साधना की। उनके उपन्यासों के कथानक आदर्श एवं रोमांस की पृष्ठभूमि पर आधारित हैं। जिसमें सांस्कृतिक चेतना राष्ट्रीय गौरव और अतीत के दिनों के कारनामों की स्पष्ट झांकी देखने को मिलती है। इनका देहावसान 23 फ़रवरी 1969 को हुआ। वर्मा जी की प्रमुख रचनाएं
१. ऐतिहासिक उपन्यास : गढ़ कुण्डार, विराटा की पद्मिनी, झांसी की रानी महारानी लक्ष्मी बाई, मुसाहिब जू, कचनार, मृगनैनी, छत्रसाल, सत्रह सौ उन्नीस, ललिता दिव्य, माधवजी सिंधिया टूटे कांटे, अहिल्या बाई।
२. सामाजिक उपन्यास : लगन, प्रेम की भेंट, कुंडली-चक्र, संगम, प्रत्यागत, हृदय की हिलोरें, कभी न कभी, अचल मेरा कोई, अमर बेल, सोना।
३. कहानी संग्रह : हरश्रृंगार, कलाकार का दण्ड, दबे पांव, शरणागत, तोषी।
४. नाटक : सेनापति, ऊदल, फूलों की दीवाली, कश्मीर का कांटा, झांसी की रानी, हंस मयूर, पूर्व की ओर, वीरबल, जहां दाराशाह, धीरे-धीरे, राखी की लाज, बांस की फांस, लो भाई पंचों लो, पीले हाथ, पायल, मंगल सूत्र, सगुन, खिलौनो की खोज, नीलकण्ठ, कनेर, विस्तार, देखादेखी, केवट।
इस परम्परा में जयशंकर प्रसाद (तितली), निराला (अप्सरा, अलका, प्रभावती), भगवती चरण वर्मा (तीन वर्ष, चित्रलेखा), और उषा देवी मित्रा (प्रिया) का योगदान उल्लेखनीय है।
हालाकि प्रेमचंद्रोत्तर काल में स्वच्छंदतावादी प्रवृत्ति का ह्रास हो गया था लेकिन यह ऐसी प्रवृत्ति है जो कभी मर नहीं सकती। विद्वानों का तो यह भी मानना है कि यह प्रवृत्ति मन्मथनाथ गुप्त, यशपाल और राहुल सांकृत्यायन जैसे लेखकों में भी मौज़ूद है। वैसे किसी रचना में किसी प्रवृत्ति का होना एक बात है और उसका प्रधान होना दूसरी बात।
बहुत सार्थक जानकारी ...उपन्यास के इतिहास की श्रृंखला की अच्छी कड़ी ...
जवाब देंहटाएंयह कड़ी ज्ञानवर्धक है ...आशा है आप इसे विश्लेषण और रचनाकारों के परिचय के साथ यूँ ही जारी रखेंगे ....आपका आभार
जवाब देंहटाएंउपन्यास के इतिहास का विस्तृत वर्णन देख कर बहुत ख़ुशी हुई, अब जब अपने प्रस्तुत कर दिया है तो बता दूं, उपन्यासकार प्रताप नारायण श्रीवास्तव मेरे ताऊ जी थे. इसके बारे में विस्तृत लेख मैं बहुत जल्दी राजभाषा पर देती हूँ.
जवाब देंहटाएं.
@ रेखा जी,
जवाब देंहटाएंधन्यवाद रेखा जी।
बहुत खुशी यह जान कर कि प्रताप नारायण श्रीवास्तव जी आपके ताऊ थे।
इसी तरह एक और ब्लॉगर मित्र ने बताया कि वेवेकी राय उनके ताऊ है, और उन्होंने विवेकी राय जी पर एक विस्ट्रुत आलेख दिया है जो हम यथा समय, आंचलिक उपन्यास की श्रृंखला के तहत पोस्ट करेंगे।
आप यथा शीघ्र प्रताप नारायण जी के ऊपर पोस्ट डालें, उसके बाद ही हम इस कड़ी को आगे बढ़ाएंगे।
यह हमारे लिए ख़ुशी और गौरव की बात होगी।
अपने उपन्यास के इतिहास की श्रृखला शरू करके एक अनुकर्णीय कार्य किया है जारी रखियेगा
जवाब देंहटाएंसाहित्यिक एवं परिचयात्मक ....
जवाब देंहटाएंप्रेम चन्दोत्तर उपन्यास लेखकों के बारे में सार्थक चर्चा एवं महत्वपूर्ण जानकारी.....
सराहनीय प्रयास ...
बहुत बढिया जानकारी उपलब्ध करवा रहे हैं…………आभार्।
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया और विस्तृत जानकारी मिल रही है...
जवाब देंहटाएंइनमे उल्लिखित अधिकाँश किताबे पढ़ चुकी हूँ....उनका फिर से जिक्र...भूली हुई यादें ताज़ा कर रही हैं. बहुत बहुत आभार आपका .
इन साहित्यकारों के बारे में जानकारी प्रदान करने के लिए आपका विशेष आभार। अनुरोध है भविष्य में भी आप हमे हिंदी साहित्य के प्रकाशस्तभों के बारे में सूचनापरक जानकारी से अवगत कराते रहेंगे।।आपका प्रयास सराहनीय है।धन्यवाद।
जवाब देंहटाएं"बहुत ही शौक से सुन रहा था जमाना,
और आप सो गए दांसता कहते-कहते।"
आपने अच्छी शृंखला शुरू की है। कॉलेज के दिनों में जो पढ़ाई नहीं कर सके थे अब कर रहे हैं। बधाई।
जवाब देंहटाएंprerana dayak darshan -sahity ke punit darshan kara rahe hain aap .bahut shukriya ji .
जवाब देंहटाएंसंग्रहणीय पोस्ट...
जवाब देंहटाएंये तथ्य इस मंच पर उपलब्ध करा बड़ा पुनीत कार्य कर रहे हैं आप...
बहुत बहुत आभार..
सार्थक एवं महत्वपूर्ण जानकारी..आपका आभार
जवाब देंहटाएंbahut sundar bhaijee.....sangrahniya
जवाब देंहटाएंpost.......anuj, sanjay
pranam.