पेज

बुधवार, 27 अप्रैल 2011

उपन्यास साहित्य-प्रेमचंदोत्तर उपन्यास


    प्रेमचंदोत्तर उपन्यास


:

१. प्रेमचंद के निधन (1936) से स्वतंत्रता प्राप्ति (1947) तक

(क) सामाजिक एवं मानवतावादी उपन्यास :

इस चरण में उपन्यास साहित्य काफ़ी समृद्ध हुआ। यह एक बड़ी शक्ति के रूप में स्थापित होने लगा। उपन्यासकारों ने न सिर्फ़ समाज के विभिन्न रूपों, प्रवृत्तियों, आदि का विस्तृत प्रत्यक्षीकरण किया बल्कि साथ ही साथ उसके निराकरण की प्रवृत्ति भी उत्पन्न किया। गांधी जी के नेतृत्व में स्वाधीनता संग्राम तो चल ही रहा था। मज़दूरों का अन्दोलन भी बढ रहा था। धीरे-धीरे राजनीति में वामपंथी विचारधारा का ज़ोर बढता गया। साहित्यकारों में भी हलचल दिखाई दी। 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हुई। प्रेमचंद जी इसके सभापति हुए। फलस्वरूप साहित्य के संघटित रूप से आंदोलन और प्रचार शुरु हुआ, जिसे आगे चलकर प्रगतिवादी साहित्य नाम दिया गया।


clip_image001

मानवतावादी लेखक मनुष्य को पशु-सामान्य धरातल से ऊपर का प्राणी मानता है। वह त्याग और तप को मनुष्य का वास्तविक धर्म मानता है। वह विश्वास करता है हालाकि मनुष्य में बहुत पशु-सुलभ वृत्तियां रह गई हैं, फिर भी वह पशु नहीं है। वर्षों की साधना से उसने अपने भीतर त्याग, तप, सौंदर्य-प्रेम और पर-दुख-कातरता जैसे गुणों का विकास किया है। ये गुण ही मनुष्य की निशानी हैं। उसके भीतर संभावनाएं अनेक हैं। इसी मर्त्यलोक को अद्भुत अपूर्व शांतिस्थल बनाने की क्षमता इस मनुष्य में है।

प्राचीन धर्मभावना में मनुष्य को परलोक में सुखी बनाने का संकल्प था। मानवतावदी दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से प्राचीन धर्मभावना के विपरीतगामी था। परिणामस्वरूप आचारों, विश्वासों और क्रियाओं के मूल्य में अंतर आया। ईश्वर और मोक्ष को मानना गौण बात हो गई, मनुष्य को इसी लोक में सुखी बनाना मुख्य।

यह परम्परा मूलतः प्रेमचंद की ही परम्परा है, जिसमें सामाजिक यथार्थ के चित्रण को और मनुष्य के चतुर्दिक विकास और हित पर विशेष बल दिया गया है। प्रेमचंद जी का ‘सेवासदन’, ‘निर्मला’ और ‘गोदान’ पारस्परिक संबंधों की मार्मिकता पर प्रधान लक्ष्य रखने वाले उपन्यास हैं। प्रेमचंद ने अपने एक मौजी पात्र से कहलवाया है,

“जो यह ईश्वर और मोक्ष का चक्कर है इस पर तो मुझे हंसी आती है। यह मोक्ष और उपासना अहंकार है जो हमारी मानवता को नष्ट किए डालती है। जहां जीवन है, क्रीड़ा है, चहक है, प्रेम है, वहीं ईश्वर है, और जीवन को सुखी बनाना ही मोक्ष और उपासना है ज्ञानी कहता है होठों पर मुस्कराहट न आवे, आंखों में आंसू न आवे। मैं कहता हूं, अगर तुम हंस नहीं सकते, रो नहीं सकते, तो तुम मनुष्य नहीं पत्थर हो। वह ज्ञान जो मानवता को पीस डाले, ज्ञान नहीं कोल्हू है।”

विश्वंभर नाथ कौशिक के उपन्यासों में प्रेमचंद के ही सिद्धांत दृष्टिगोचर होते हैं, जैसे ‘मां’ और ‘भिखारिणी’। ‘कौशिक’ जी का जन्म 1891 में अम्बाला छावनी के निकट हुआ था। चार वर्ष की अवस्था में ही उनके कानपुर निवासी बाबा ने उन्हें दत्तक पुत्र बना लिया था। उनकी शिक्षा मैट्रिक तक ही हुई थी। घर पर ही उन्होंने हिन्दी और संस्कृत का अध्ययन किया था। वे पहले उर्दू में लिखते थे। बाद में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की प्रेरणा से हिन्दी में लिखने लगे। उनकी सबसे पहली कहानी ‘रक्षाबन्धन’ 1911 में ‘सरस्वती’ मे प्रकाशित हुई थी। उनके कहानी संग्रह हैं : चित्रशाला, मणीमाला, गल्प मन्दिर, और कल्लोल। ‘दुबे जी का चिट्ठा’ उनकी हास्य-रस की रचना है।

कौशिक जी के अतिरिक्त इस युग के उपन्यासकारों में सियारामशरण गुप्त, पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र, प्रतापनारायण श्रीवास्तव (‘विदा’, ‘विकास’, ‘विजय’), अमृतलाल नागर (बूंद और समुद्र, सुहाग के नुपूर), विष्णु प्रभाकर, उदय शंकर भट्ट, आचार्य चतुर सेन शास्त्री (हृदय की प्यास), भगवती चरण वर्मा (चित्रलेखा, तीन वर्ष), भगवती प्रसाद वाजपेयी, शिवपूजन सहाय, वृन्दावन लाल वर्मा, उषा देवी मित्रा, चण्डी प्रसाद हृदयेश, राजा राधिका रमण सिंह, अयोध्या सिंह उपाध्याय, ऋषभ चरण जैन, श्रीनाथ सिंह, अवधनारायण, गोविन्दवल्लभ पंत, अनूपलाल मंडल, नरोत्तम दास नागर, उदयशंकर भट्ट, राहुल सांकृत्यायन (सिंह सेनापति, जय यौधेय), मोहनलाल महतो वियोगी, धर्मेन्द्र, अंचल आदि ने भी उपन्यास लिख कर साहित्य की श्रीवृद्धि की।

भगवती प्रसाद वाजपेयी का जन्म कानपुर के मंगलपुर नामक गांव में संवत्‌ १९५६ (1899 ई.) मे हुआ था। प्रारम्भिक शिक्षा गांव में ही हुई। मिडल पास करने के बाद गाम के ही विद्यालय में पढाने लगे। किन्तु विद्याध्ययन नहीं छोड़ा। कुछ दिनों बाद नौकरी छोड़ होमरूल लीग पुस्तकालय के पुस्तकालयाध्यक्ष हो गए। यहां अंग्रेज़ी का ज्ञान प्राप्त किया। संसार नामक अखबार में पहले प्रूफ़रीडर का कम संभाला बाद में उसके प्रमुख संपादक भी हो गए। कुछ समय तक पुस्तक प्रकाशक और पुस्तक विक्रेता भी रहे। सिनेमा के लिए गीत और संवाद भी लिखा। उनका मानना था कि आज के मानव की मुक्ति पीड़ा में नहीं है, जीवन की आर्थिक विषमताओं को दूर करने में है।
उनकी प्रमुख रचनाएं हैं,

१. उपन्यास : प्रेमपथ, मीठी चुटकी, अनाथ पत्नी, त्यागमयी, प्रेम निर्वाह, पतिता की साधना, पिपासा, दो बहनें, निमन्त्रण, गुप्त धन, चलते-चलते, पतवार, धरती की सांस, मनुष्य और देवता।

२. कहानी संग्रह : मधुपर्व, दीप, मालिका, हिलोर, पुष्करिणी, खाली बोतल, मेरे सपने, ज्वार भाटा, कला की दृष्टि, उपहार, अंगारे, उतार-चढ़ाव।

३. नाटक : छलना।

४. कविता संग्रह : ओस के बूंद।

५. बाल साहित्य : आकास-पाताल की बातें, बालकों के शिष्टाचार, शिवाजी, बालक प्रह्लाद, बालक ध्रुव, हमारा देश, नागरिक शास्त्र की कहानियां, प्रौढ़ शिक्षा की योजना।

६. संपादित : प्रतिनिधि कहानियां, हिन्दी की प्रतिनिधि कहानियां, नव कथा, नवीन पद्य संग्रह, युगारम्भ।

9 टिप्‍पणियां:

  1. नमस्कार,
    प्रेमचंद जी के व अन्य के बारे में बेहतरीन जानकारी देने कि लिये आपका आभार।

    जवाब देंहटाएं
  2. वाह, आपने तो बहुत सुन्दर लिखा..बधाई.
    ____________________________
    'पाखी की दुनिया' में भी आपका स्वागत है.

    जवाब देंहटाएं
  3. अमर प्रेमचंद की अमर कृतियों की जानकारी से परिपूर्ण बहुत परिश्रम से लिखी गई पोस्ट। बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत मेहनत से लिख रहे हैं आप और हमें बहुत ही उपयोगी जानकारी मिल रही है. आभार.

    जवाब देंहटाएं
  5. प्रेमचंद के बाद के उपन्यासों का विवरण बहुत जानकारी पूर्ण है ...श्रमसाध्य पोस्ट ...आभार

    जवाब देंहटाएं
  6. एक लड़की जो एम् ए हिंदी विषय से कर रही है आपके आलेखों से लाभान्वित हो रही है... बहुत उच्च स्तर की सामग्री उपलब्ध करा रहे हैं... ब्लॉग जगत में हिंदी साहित्य से सम्बंधित सामग्री उपलब्ध करने कि दिशा में आप प्रणेता हैं..

    जवाब देंहटाएं
  7. wah bahut khoob premchand ji ki yatra par chalte chalte aur bhi jani mani hastiyon se avgat kara diya. bahut behtareen jankaari. aabhar.

    जवाब देंहटाएं
  8. हमेशा की तरह बहुत ही उच्च कोटि का आलेख
    कई भूले-बिसरे नाम पढ़ने को मिले...प्रेमचंद जी कि सारी किताबे फिर से पढ़ने की इच्छा जाग उठी है.
    जारी रखें इस तरह की श्रृंखला....सारी पोस्ट संग्रहणीय हैं.

    जवाब देंहटाएं

आप अपने सुझाव और मूल्यांकन से हमारा मार्गदर्शन करें