मनोज कुमार
उपन्यास साहित्य की चर्चा के क्रम में अब हम आधुनिक युग के उपन्यासों की चर्चा करेण्गे।
आधुनिक युग के उपन्यासकार यूरोप के उपन्यासकारों से अत्यधिक प्रभावित प्रतीत होते हैं। पश्चिमी साहित्य के प्रभाव के कारण ही उपन्यासकारों ने आज जात-पात, वर्ण-धर्म तथा देश और संस्कृति के बंधन को तोड़ डाला है। आज वे नवीन मानवता की सृष्टि में संलग्न हैं। यही कारण है कि आज के उपन्यासकार किसी एक धारा को नहीं स्वीकार करते हैं वरन् वे पश्चिमी साहित्य के आधुनिकतम या नवीन वादों से प्रभावित होकर नवीन विचारधाराओं को विकसित करने का प्रयास करते हैं।
प्रेमचंद के बाद उपन्यास कई मोड़ों से गुज़रता हुआ दिखाई देता है। इन्हें मुख्यतः तीन वर्गों में बांटा जा सकता है –
१. 1950 तक के उपन्यास,
२. 1950 से 1960 तक के उपन्यास और
३. साठोत्तरी उपन्यास।
1950 तक के उपन्यास में मुख्यतः चार प्रकार की विचारधाराएं विकसित हो रही हैं –
१. फ़्रायडियन धारा,
२. मनोवैज्ञानिक धारा,
३. मार्क्सवादी धारा, और
४. राजनीतिक धारा
फ़्रायड ने सेक्स को महत्ता प्रदान की है। यदि विचारपूर्वक देखा जाए तो काम-वासनाओं की अतृप्ति से उत्पन्न होने वाली कुंठाओं को लेकर ही फ़्रायड के सेक्स मनोविज्ञान ने प्रगति की है। फ़्रायड के कुंठावाद के आधार पर लेखकों ने मनुष्य की दमित वासनाओं, कुंठाओं, काम-प्रवृत्तियों, अहं, दंभ और हीन-भावना आदि ग्रंथियों का चित्रण करके हिन्दी उपन्यास में व्यक्ति का ऐसा रूप प्रस्तुत किया जिसमें वह अपनी आन्तरिक छवि देख सकता है। इन कुंठाओं का हल उपस्थित करने के लिए जिस प्रणाली को अपनाया गया उसे ही मनोविश्लेष्णात्मक प्रणाली कहा जाता है।
प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों में समाज के साथ व्यक्ति के एडजस्ट होने के प्रश्न को अधिक महत्व दिया। प्रेमचंद के बाद हिन्दी उपन्यास में मनोविश्लेषणवादी उपन्यासकारों की एक ऐसी पंक्ति तैयार हुई जिसने हिन्दी को अनेक श्रेष्ठ उपन्यासों से समृद्ध किया है। फ़्रायड, एडलर और युंग की मनोविश्लेषण-संबंधी मान्यताओं का इस धारा के लेखको पर गहरा प्रभाव है।
हिन्दी उपन्यासकारों में इलाचंद्र जोशी इस प्रणाली (फ़्रायड के मनोविश्लेषण) से अत्यधिक प्रभावित प्रतीत होते हैं। उन्होंने फ़्रायड के सिद्धान्तों के आधार पर मनोविश्लेषणात्मक उपन्यास लिखे। उनका पहला उपन्यास ‘घृणामयी’ (1929) है। परन्तु उन्हें ख्याति ‘संन्यासी’ (1941) से मिली। उनके लिखे उपन्यास हैं - ‘संन्यासी’, ‘पर्दे की रानी’ (1941), ‘प्रेत और छाया’ (1946), ‘निर्वासित’ (1946), ‘मुक्तिपथ’ (1950), ‘जिप्सी’ (1955), ‘जहाज का पंछी’ (1955), ‘ऋतुचक्र’ (1973), ‘भूत का भविष्य’ (1973) सुबह के भूले, और कवि की प्रेयसी।
इलाचंद्र जोशी का जन्म 13 दिसंबर 1902 को अल्मोड़ा में हुआ था। उनका निधन 14 दिसंबर 1982 को हुआ। हिंदी में मनोविश्लेषवादी उपन्यास और कहानी लेखन की दृष्टि से उनका स्थान शीर्ष पर है।
जोशी जी के उपन्यास चेतन और अचेतन मन में छुपी हुई वासनाओं और कुंठाओं का ही अध्ययन उपस्थित करते हैं। इनकी भावभूमियां एकांगी, संकुचित और छोटी हैं। इनके पात्र किसी न किसी मनोवैज्ञानिक ग्रंथि का शिकार हैं। इन ग्रंथियों के कारण वे असामाजिक कार्य में संलग्न होते हैं। उनके उपन्यासों में मनोविश्लेषण का इतना प्रभाव है कि उनके उपन्यास फ़्रायड की मान्यताओं के साहित्यिक संस्करण प्रतीत होते हैं। उनके उपन्यासों के पात्र अनेक मनोग्रंथियों से पीड़ित रुग्ण और दुर्बल हैं। फ़्रायड के मनोविश्लेषण का मूल आधार काम-भावना है। उसी को केन्द्र में रख कर ये उपन्यास लिखे गए हैं।
‘संन्यासी’ उनका सफल उपन्यास है जो कला के विचार से उच्चकोटि का है। इसमें आत्महीनता की ग्रंथि है। ‘प्रेत और छाया’ में इडिपस ग्रंथि है, जबकि ‘पर्दे की रानी’ के सभी पात्र मानसिक कुंठाओं से ग्रस्त हैं। ‘मुक्तिपथ’, ‘जिप्सी’ और ‘जहाज का पंछी’ में जोशी जी ने सामाजिकता का भी सन्निवेश किया है।
जोशी जी के उपन्यासों को पढककर लगता है, मानो उनका प्रतिपाद्य यह है कि जीवन के चरम सत्य की उपलब्धि सेक्स में ही होती है।
जोशी जी के अतिरिक्त इस पद्धति के उपन्यासकारों में सचिदानन्द हीरानन्द वात्सयायन अज्ञेय का भी प्रमुख स्थान है। अज्ञेय ने उपन्यास कला को एक नया शिल्प दिया। इनसे पहले अंग्रेज़ी उपन्यासों के जिस गद्य को लोग आदर्श मानते थे, उसे ‘अज्ञेय’ जी ने आत्मसात् कर अपनी रचनाओं में मूर्तरूप दिया। इनकी कहानियों में जीवन की सच्चाई, व्यक्तित्व की स्पष्ट झलक और विचारों की ताज़गी थी। फ़्रायड के मनोविश्लेषण शास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान अज्ञेय जी ने मनोविश्लेषण शास्त्र के प्रतीकों का सफलतापूर्वक प्रयोग किया है।
‘शेखर एक जीवनी’ (1941-1944) (अज्ञेय जी के बारे में यहां और यहां पढ़ें) के प्रकाशन के साथ हिन्दी उपन्यास की दिशा में एक नया मोड़ आया। यह उपन्यास हिन्दी के उपन्यास जगत में एक बिल्कुल नए अध्याय का श्रीगणेश करता है। यह उपन्यास मानव के मनोविकास का वैज्ञानिक चित्र उपस्थित करता है। इसमें मूलतः व्यक्ति-स्वातंत्र्य की समस्या उठाई गई है। कथ्य, शिल्प और भाषा की दृष्टि से यह परंपरा हट कर एक नया प्रयोग था। आधुनिकता का सर्वप्रथम समावेश इसी उपन्यास में दिखाई देता है। इसका मूल मंतव्य है – स्वतंत्रता की खोज। यह खोज सबसे काट कर नहीं की गई है, बल्कि मनवीय परिस्थितियों के बीच की गयी है। स्वतंत्रता की तलाश में शेखर अनेक प्रकार के आंतरिक संघर्षों से जूझता है, किंतु अपने निषेधात्मक रोमांटिक विद्रोह को लेकर वह बहिर्मुखी नहीं हो पाता। फलतः सारा संघर्ष मौखिक रह जाता है, क्रिया में नहीं बदलता। फिर भी शेखर के विद्रोह के पीछे आज की पीढ़ी का विद्रोही स्वर है। दूसरे भाग में उसका बिखरा व्यक्तित्व संघटित होकर रचनात्मक बनता है। शेखर एक विद्रोही है। समाज के निर्मित प्रतिमान उसे सह्य नहीं है। अपनी अनुभूतियों को वह अभिव्यक्ति देता है। यह एक प्रयोगधर्मी उपन्यास है। एक रात में देखे गए विजन को शब्दबद्ध किया गया है। इसमें अनुभूति के टुकड़ों को जहां-तहां से उठा लिया गया है। चेतना प्रवाह, प्रतीकात्मकता और भाषा की अंतरिकता के कारण यह उपन्यास अप्रतिम है।
अज्ञेय का दूसरा उपन्यास ‘नदी के द्वीप’ (1951) में व्यक्तिवादी जीवन दर्शन व्यक्त हुआ है। उन्होंने मध्यम वर्गीय कुंठित जीवन के प्रतीक के रूप में नदी के द्वीप की कल्पना की है। नदी का द्वीप धारा से कटा हुआ है। मध्यवर्गीय जीवन भी शेष-जन-प्रवाह से विछिन्न है। अज्ञेय का अपनी-विद्रोह भावना, वरण की स्वतंत्रता और व्यक्तित्व की अद्द्वितीयता के कारण विशिष्ट स्थान है। उन्हें भाषा एवं मनोविश्लेषण की दृष्टि से ‘नदी के द्वीप’ में अपूर्व सफलता मिली।
‘अपने-अपने अजनबी’ (1961) अज्ञेय का तीसरा उपन्यास है। इसमें एक प्रकार की धार्मिक दृष्टिसंपन्नता दिखाई पड़ती है। इसमें मुख्य समस्या स्वंत्रता के वरण की है। संत्रास, अकेलेपन, बेग़ानगी, मृत्युबोध, अजनबीपन आदि से स्वंत्रता संयुक्त हो गई है। स्वतंत्रता को अहंकार से जोड़कर अज्ञेय जी ने इसमें अस्तित्ववादी स्वतंत्रता मे मूल अर्थ को ही बदल दिया है।
‘नर – नारी’ और ‘हमारा मन’ नाम की दो अनूठी पत्रिकाओं का सम्पादन - प्रकाशन करने वाले द्वारिका प्रसाद के उपन्यास ‘मम्मी बिगड़ेगी’ और ‘घेरे के बाहर’ भी इसी कोटि के अन्तर्गत आते हैं। ये एक विवादास्पद उपन्यास थे। हिन्दी में सेक्स और मनोविज्ञान के ऊपर लेखन में यह पहला गंभीर प्रयास था जिसे पाठकों ने पढ़ा और सराहा। इन उपन्यासों में कथा के विकास पर ज्यादा जोर न देकर इस सम्बन्ध को जायज ठहराने की कोशिश अधिक की गयी है। इन उपन्यासों के चर्चित होने का मुख्य कारण इसका विषय था। उपन्यास कला की दृष्टि से यह बहुत महत्वपूर्ण उपन्यास नहीं कहा जा सकता, किन्तु हिन्दी में यह एक अनूठा और साहसपूर्ण उपन्यास है।
डॉ. देवराज के ‘पथ की खोज’, ‘अजय की डायरी’ और ‘मैं, वे और आप’ भी इसी श्रेणी के उपन्यास हैं।
मनोहर श्याम जोशी का ‘हमजाद’ भी इसी श्रेणी के तहत आता है।
संदर्भ -
1. हिंदी साहित्य का इतिहास – आचार्य रामचन्द्र शुक्ल 2. हिंदी साहित्य का इतिहास – सं. डॉ. नगेन्द्र 3. हिन्दी साहित्य का इतिहास – श्यामचन्द्र कपूर 4. हिन्दी साहित्य उद्भव और विकास – हजारी प्रसाद द्विवेदी 5. डॉ. नगेन्द्र ग्रंथावली खंड-7 6. साहित्यिक निबंध आधुनिक दृष्टिकोण – बच्चन सिंह 7. झूठा सच – यशपाल 8. त्यागपत्र – जैनेन्द्र कुमार
आधुनिक युग के उपन्यासों और उपन्यासकारों के विषय में अच्छी जानकारी मिली ..
जवाब देंहटाएंजितने का आपने जिक्र किया,कई मैंने पढ़े हैं,पर व्यकतिगत रूचि की कहूँ तो मुझे ये कभी नहीं रुचे..बहुत बड़े नाम हैं ये, इनकी कृतियाँ कला की उच्च श्रेणी में रखी गयीं हैं, पर चाहकर भी मैं इनके लिए बहुत समानजनक स्थान अपने ह्रदय में नहीं बना पायी..कई उपन्यास तो आधे अधूरे में ही छोड़ देना पड़ा...
जवाब देंहटाएंखैर ,बहुत सुन्दर विवेचना प्रस्तुत की आपने...आपका सद्प्रयास सराहनीय है....
महोदया, आपके सम्मान देने न देने से कुछ नहीं होगा आज का साहित्यकार या आप 1 प्रतिशत भी उनके जैसे हो जाएंगे तो शायद हिन्दी साहित्य का कल्याण हो जाएगा |
हटाएंउपन्यासों से सम्बंधित आपकी इन पोस्ट्स को पढना मुश्किल हो रहा है...इनमे से कई उपन्यास पढ़े हुए हैं...और जो छूट गए थे...उनका नाम देख फिर से पढ़ने की अदम्य इच्छा बलवती हो उठती है...
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया विश्लेषण चल रहा है....सहेज कर रखने लायक पोस्ट.
आधुनिक युग -उपन्यास की अच्छी जानकारी देती हुई बढ़िया सार्थक पोस्ट...!!
जवाब देंहटाएंआधुनिक युग के उपन्यासों के क्रम मे, मैं य़ह कहना चाहूंगा कि बीतते हुए दशक और समाप्त होती बींसवी शताब्दी की सुरेंद्र वर्मा द्वारा विरचित उपन्यास 'मुझे चाँद चाहिए' एक अनूठी रचना है। जनवादी,मार्क्सवादी और क्रांतिकारी रचनाओं के बीच यह मानवीय भावनाओं का भिन्न स्वाद देने वाली विशिष्ट रचना है। इस युग के उपन्यासों मे किसी खास प्रवृति या विचारधारा का प्रभाव या दबाव नही है। इन उपन्यासों मे विषयगत विविधता तो है ही, शिल्पगत नवीनता और प्रयोगशीलता भी विद्यमान है। इन कारकों के कारण ये उपन्यास किसी परंपरा में अंतर्भुक्त न होकर अपनी विशिष्ट पहचान बनाते हैं ।प्रशंसनीय पोस्ट। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंअच्छी जानकारी-उत्तम पोस्ट.
जवाब देंहटाएंइला चन्द्र जोशी को यहाँ आकर काफी पढ़ा है.
जवाब देंहटाएंज्ञान वर्धक पोस्ट है.
Manovishleshanvaad ar usse jude lekhko ki jankari bhut mahatvapoorna h dhanyvaad
जवाब देंहटाएं