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शुक्रवार, 27 मई 2011

खुजली का सुख

 
मनुष्य शरीर  में  व्यापने वाले  असंख्य व्याधियों में ऐसी कोई  व्याधि नहीं जो कष्टकर न हो...परन्तु " खुजली " एक ऐसी व्याधि है जो भले त्वचा को  लाख घात पहुंचाए, पर खुजाने के  सुख आनंद और तृप्ति का वह भली प्रकार कह  सकता है जो कभी भी इस व्याधि के चपेट में आ चुका हो और खुजाने का सुख पा चुका हो....सोचिये न ,कहीं किसी ऐसे स्थान और स्थिति में जहाँ चहुँ ओर से हम वरिष्ठ जनों  से घिरे हुए हों और  उसी पल  शरीर के नितांत वर्ज्य प्रदेश में जोर की खजुआहट  मचे.. शिष्टाचार  का तकाजा, हम खुलकर खजुआ ही  नहीं सकते...कैसी कष्टप्रद स्थिति बनती है, कितनी कसमसाहट होती है...घोर खुजलीकारक उस क्षण  में यदि मन भर खुजलाने का सुअवसर मिल जाए तो वह सुख बड़े बड़े सुखो को नगण्य ठहराने लायक हो जाती है.
 
खुजली एक ऐसा रोग है, जितना खुजाओ, त्वचा  जितनी ही छिले जले , आनंद उतना ही बढ़ता चला जाता है...खुजाते समय इस बात का किंचित भी भान  कहाँ रहता है कि चमड़ी की क्या गत बन रही है..परन्तु क्या  खुजली का निराकरण खुजलाना है ???
नहीं !!!
बल्कि समय रहते यदि इसका उपचार न कराया गया तो कभी कभी त्वचा पर पड़ा दाग जीवन भर के लिए अमिट बनकर रह जाता है या फिर कई अन्य असाध्य रोग का कारण भी बन जाता है.....
 
अब आगे,
क्या  खुजली केवल एक बाह्य शारीरिक रोग है,जो शरीर के त्वचा में ही हुआ करती है????
नहीं !!!
खुजली का प्रभावक्षेत्र केवल शरीर नहीं...मन भी है. शारीरिक खुजली के विषय में तो हम सभी जानते हैं,चलिए आज हम मानसिक खुजली को जाने,जो कि त्वचा के रोग से कई लाख गुना अधिक गंभीर और अहितकारी है.. शारीरिक  खुजली तो कतिपय  औषधियों द्वारा मिटाई भी जा सकती है, परन्तु मानसिक खुजली के निराकरण हेतु तो बाह्य रूप में खा सकने वाली कोई गोली या सिरप अभी तक  बनी ही नहीं  है..
 
अब  यह मानसिक खुजली है क्या  ?? 
"जीवन में घटित दुखद कष्टदायक घटनाओं की स्मृति को  वर्षों तक स्मृति पटल पर संरक्षित और पोषित रखना ही मानसिक खुजली है".
जिस प्रकार शारीरिक खुजली त्वचा को घात पहुंचाते हुए भी सुखकारी लगती है,ठीक वैसे ही यह मानसिक खुजली भी मन मस्तिष्क को क्षत विक्षत करते संतोषकारी लगती है...
सचेत रहें ,देखते रहें , जब भी हमारी प्रवृत्ति इस प्रकार की बनने लगे कि हम अपने जीवन में घटित दुर्घटनाओं को, दुखद स्मृतियों को बारम्बार दुहराने लगे हैं, नित्यप्रति उनका  स्मरण  करने और दुखी होने को सामान्य  दिनचर्या का अंग  बनाते जा रहे हैं, तो निश्चित मानिए कि हम उस गंभीर असाध्य रोग  से ग्रसित हो रहे  हैं..यह रोग आगे बढ़ते हुए  दीमक की भांति  मनुष्य के अंतस को खोखला करता जीवन  दृष्टिकोण ही नकारात्मक करने लगता है और इसके चपेट में आया मनुष्य इसका आभास भी नहीं कर पाता..
 
इस व्याधि संग  हमें दुखी रहने का व्यसन लग जाता  है.. हम दुखी रहने में ही सुख पाने लगते हैं.. अवस्था यहाँ तक पहुँच जाती है कि यदि कभी कोई दिन ऐसा बीता कि दुखद स्मृतियों को दुहराया नहीं,तो और दुखी हो जाते हैं और फिर यह जीवन जगत  सब निस्सार  अर्थ हीन लगने लगता है..हमारे सम्मुख लाख सुख आकर क्यों न बिछ जाँय हम हर्षित नहीं हो पाते  और यही नहीं हमारे आस पास हमारा नितांत ही आत्मीय भी यदि  प्रसन्न  हो तो हम यथासंभव प्रयास करेंगे कि वह हमारे दुःख के कुएं में आ उसमे डूब जाय और ऐसा न हुआ तो अपने उस  आत्मीय  की प्रसन्नता से ही  चिढ होने लगेगी...
 
मन और मष्तिष्क यदि निरंतर ही दुखद ( नकारात्मक ) स्थिति में पड़ा रहे, तो न केवल हमारे  संरचनात्मक सामर्थ्य का ह्रास होता है अपितु यह तीव्रता से शरीर को भी रोग ग्रस्त कर देता है..स्वाभाविक ही तो है,शरीर का नियंत्रक  मन मष्तिष्क  ही जब स्वस्थ न रहे,तो हम कैसे अपेक्षा कर सकते हैं कि मनन चिंतन सोच कार्य व्यवहार सब स्वस्थ  और सकारात्मक हो .... 
 
अब विचार रोग के स्रोतों पर :-
अन्न जल के रूप में जो भोज्य पदार्थ हम  ग्रहण करते हैं वह शारीरिक सञ्चालन हेतु भले यथेष्ट हो ,पर मनुष्य को इतना ही  तो नहीं चाहिए, उसे मानसिक आहार भी चाहिए.यद्यपि ग्रहण की गयी अन्न जल वायु रूपी आहार भी मनोवस्था पर प्रभाव डालती है,पर इसके अतिरिक्त  विभिन्न दृश्य श्रव्य माध्यमो से तथा मनन चिंतन द्वारा नित्यप्रति जो हम ग्रहण करते हैं,वह आहार मुख्य रूप से हमारे मानसिक स्वस्थ्य को प्रभावित और नियंत्रित करता है.. और जैसे  दूषित भोजन शारीरिक अस्वस्थता का कारण होता है,वैसे  ही विभिन्न दृश्य श्रव्य माध्यमों से ग्रहण की गयी दूषित/नकारात्मक  सोच विचार हमारे मानसिक अस्वस्थता का हेतु बनती है...
 
विडंबना है कि दिनानुदिन जटिल होते जीवन चक्र के मध्य  जितनी मात्रा में हमारे मानसिक सामर्थ्य का ह्रास/खपत  हो  रहा है, उतनी मात्रा में न तो पौष्टिक शारीरिक आहार जुटा पाने में हम सक्षम हो पा रहे हैं और न ही  स्वस्थ मानसिक आहार..आज तनाव ग्रस्त मष्तिष्क जब मनोरंजन के माध्यम से विश्राम चाहता है, तो मनोरंजन के साधन रूप में उसे सबसे  सुगम साधन टी वी के रूप में ही मिलता है. और देखिये न, मन मष्तिस्क और नयनों  को चुंधियाते  इस चमकीले माध्यम ने ,जो अहर्निश नकारात्मक पात्र कथाएं परोस परोस कर, षड़यंत्र ,अश्लीलता और सनसनी दिखा दिखाकर लोगों को क्या खुराक दे रहा है..बड़े आराम  से यह मानव मन मस्तिष्क का प्रेम पूर्वक भक्षण कर रहा है. यद्यपि ऐसा नहीं है कि  इससे नियमित जुड़े रहने वाले भी यह सब देख खीझते नहीं हैं,पर इनमे स्थित रहस्य रोमांच इन्हें इनसे दूर नहीं होने देता और फलतः सब जानते समझते भी  इस से जुड़े रहते हैं..अपनी हानि देख सह भी उसी से जुड़े रहना, यह मानसिक  खुजली नहीं तो और क्या  है ??
 
पठन पाठन, बागवानी,समाज सेवा ,विभिन्न कला माध्यम, इत्यादि  अनेक रचनात्मक कार्य  जो व्यक्ति में असीमित सकारात्मक उर्जा भर सकते हैं...पर आज कितने लोग  रह गए हैं जो इन श्रोतों के साथ जुड़े हुए सुख संतोष पाने को प्रयासरत हैं ??  भौतिक सुख सुविधायों के साधनों की आज कैसी बाढ़ सी आई हुई है,पर जितनी तीव्रता  से इनकी भरमार हो रही है, उससे दुगुनी  तीव्रता  से मानवमात्र में मानसिक अवसाद भी बढ़ रहा है,मनोरोग बढ़ रहें हैं, आत्महत्याएं बढ़ रही हैं, सम्बन्ध आत्मीयता सहनशीलता धैर्य सब  ध्वस्त हुए जा  रहे हैं,परिवार ,समाज  और देश टूट रहा है..यह सब टूट इसलिए रहा है क्योंकि इसकी प्रथम इकाई मनुष्य रोज स्वस्थ मानसिक आहार  के आभाव में अन्दर से टूट रहा है..
 
इस त्रासद अवस्था में गंभीर रूप से आत्मावलोकन तथा  शारीरिक मानसिक स्वस्थ्य के प्रति यथेष्ट सचेष्ट रहने की आवश्यकता है.नहीं तो हमारा सुखी रहने का ध्येय कभी पूर्णता न  पायेगा.. व्यापक रूप में हमें अपने जीवन दृष्टिकोण को भी  निश्चित रूप से बदलना पड़ेगा...हमारा वश अपने भाग्य पर, अपने जीवन में घटित  घटनाओं पर भले न हो ,पर  हमारा वश इसपर अवश्य है कि हम उन घटनाओं को किस रूप में देखें..इस संसार का एक भी मनुष्य  यह दावा नहीं कर सकता कि उसके जीवन में सुखद कुछ भी न घटा है...तो हमें  करना यही होगा कि दुखद स्मृतियाँ जो घट  चुकी हैं,बीत चुकी हैं,उन्हें बीत जाने दें,मुट्ठी में भींच कर ,ह्रदय से लगाकर सदा उन्हें जीवित  पोषित न रखें और इसके विपरीत सुखद स्मृतियों को सदा ही जिलाएँ  रखें,नित्यप्रति उसे दुहराते रहें...जब हम अपने सुखद स्मृतियों की तालिका  को दुहराते रहने की प्रवृत्ति बना लेंगे,  न केवल  दुखद  परिस्थितियों के धैर्यपूर्वक  सामना करने की अपरिमित क्षमता पाएंगे बल्कि हमारी प्रसन्न  और प्रत्येक परिस्थिति में सहज, धैर्यवान  रहने की जीवन दृष्टियुक्त  सकारात्मक सोच,  कईयों के जीवन में सुख और सकारात्मकता  बिखेरने का निमित्त बनेगी... 
 
.............................................................
रंजना.

18 टिप्‍पणियां:

  1. रंजना जी ,

    बहुत ही रोचक अंदाज़ में शरीर की बाहरी खुजली से प्रारंभ करते हुए .. 'मानसिक खुजली ' की सूक्ष्म एवं व्यापक विवेचना की है आपने अपने जीवनोपयोगी लेख में ....

    यकीनन हमारी जिंदगी सभी सुख साधनों के होते हुए भी अतीत के दुःख सागर में गोते लगाना ही अपनी आदत बना लेती है , जिसका परिणाम दुखद ही होता है |

    ख़ुशी के क्षणों को याद करते हुए वर्तमान में जीना ही जिंदगी को असली सुख दे सकता है |

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  2. रंजना जी पद्य में विम्ब के माध्यम से किसी बात को कहना एक दुरूह कार्य है.. बढ़िया आलेख

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  3. एक अलग सा विचारोतेजक,एवं उपयोगी आलेख.

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  4. आपकी उम्दा प्रस्तुति कल शनिवार (28.05.2011) को "चर्चा मंच" पर प्रस्तुत की गयी है।आप आये और आकर अपने विचारों से हमे अवगत कराये......"ॐ साई राम" at http://charchamanch.blogspot.com/
    चर्चाकार:Er. सत्यम शिवम (शनिवासरीय चर्चा)

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  5. दुखद स्मृतियाँ जो घट चुकी हैं,बीत चुकी हैं,उन्हें बीत जाने दें,मुट्ठी में भींच कर ,ह्रदय से लगाकर सदा उन्हें जीवित पोषित न रखें और इसके विपरीत सुखद स्मृतियों को सदा ही जिलाएँ रखें,

    सार्थक लेख ... रोचक प्रस्तुतिकरण ...

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  6. विचारोतेजक,एवं उपयोगी आलेख.

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  7. दुखद को भूल कर, उससे शिक्षा ग्रहण करते हुए भविष्योन्मुखी हो तभी लक्ष्य तक पह्नुचा जा सकेगा

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  8. सार्थक एवं जनोपयोगी लेख अनुकरणीय तथा प्रेरक है.

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  9. बादशाह अकबर को एक बार बीरबल ने दुनिया के सर्वोत्तम सुख का अनुभव करवाया था और आज आपने शुरुआती पंक्तियों में उसी की नयी शाखा प्रस्फुटित कर दी!
    और जब आलेख अपना परिदृश्य बदलता है तब जो बातें आपने बताएं वो बस दिल में बिठाने की हैं. बहुत अच्छा आलेख कहना बहुत छोटी बात होगी!!

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  10. वैधानिक चेतावनी :
    खुजा खुजा के सुजा न देना

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  11. इस खुजली पुराण को पढवाने का शुक्रिया।

    इसे पढकर मुझे कमेंट की खुजली होने लगी थी, इसलिए मैंने इसे शान्‍त करना ही उचित समझा।

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    हंसते रहो भाई, हंसाने वाला आ गया।
    अब क्‍या दोगे प्‍यार की परिभाषा?

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  12. त्वचा रोग खुजली के बहाने मानसिक खुजली की प्रासंगिक चर्चा - अपने कथ्य को कहने का एक अलग अंदाज - वाह क्या बात है बहन रंजना - शुभकामनाएं। एक त्वरित दोहा इस आलेख के लिए मेरी ओर से-

    होते जब खुजली सुमन भले त्वचा या माथ।
    कर्मशील हर हाल में होते केवल हाथ।।

    सादर
    श्यामल सुमन
    +919955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com

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  13. बहन रंजना, राजभाषा हिंदी की टीम में शामिल होने के लिए आभार। नियमितता बनाए रखिएगा।
    रोचक शैली में लिखा यह आलेख बहुत पसंद आया।

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  14. मजा राज या खाज में ही है, राज तो मिलेगा ना, काम चलेगा खाज से,

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