'इन्डियन लेबर गोज़ कैजुअल' : रोज़गार का बदलता चेहरा
अरुण चन्द्र रॉय
पिछला सप्ताह बहुत व्यस्त गुज़रा. हमारी विज्ञापन एजेंसी के एक प्रतिष्ठित कारपोरेट ग्राहक का एक टाउनशिप लांच होने वाला था. ढेर सारी तैयारियां थी. 360 डिग्री मीडिया प्लान के हिसाब से. जों मेरी कविता पढ़ते हैं वे 360 डिग्री मीडिया प्लान से वाकिफ होंगे ही. खैर. इसी बीच मुझे आवश्यक काम से करनाल भी जाना पड़ गया गत शुक्रवार को. शुक्रवार को ही मुझे अपने क्लाइंट को उनकी कंपनी पुस्तिका मुद्रित करके देनी थी. शाम को पता चला कि पुस्तिका प्रिंट हो चुकी है लेकिन लेमिनेशन नहीं हुआ है. आनन फानन में मुझे किसी और लेमिनेशन वाले के पास भेजना पड़ा. जब तक मैं करनाल से वापिस लौटता पुस्तिका लेमिनेट हो चुकी थी. अब बारी थी फाइनल कटिंग, क्रीज़िंग और बाइंडिंग की. ये तीनो काम एक ही जगह होने थे. लेकिन बाइंडिंग वाला करने को तैयार नहीं था क्योंकि उन्हें यहाँ काम करने वाले लेबर दो रात से लगातार काम कर रहे थे. मैं खुद वहां पंहुचा. देखा तो सभी श्रमिक अभी युवा ही हो रहे थे और मेरे अपने प्रान्त या कहिये अपने ही इलाके के थे.
अपनी भाषा मैथिलि यहाँ काम काम कर गई और वे लोग मेरे लिए चार पांच घंटे और काम करने के लिए तैयार हो गए. मैंने मन ही मन में जय बिहार कहा. और यहीं जन्मी मेरी ताज़ी कविता 'एक घंटे दाई कटिंग मशीन पर'. लेकिन तब से मन में विचारों का रेला चल ही रहा था.
इन दिनों हिंदुस्तान टाइम्स का कारोबारी अखबार मिंट पढता हूँ. इकोनोमिक टाइम्स पढना छोड़ दिया है. क्यों यह बात कभी और. मिंट के पहले पन्ने पर कैप्शन था "इन्डियन लेबर गोज़ कैजुअल". माथा ठनका कि कोई कारपोरेट जगत का प्रतिनिधित्व करने वाला अखबार कैसे इतनी बड़ी समाजवादी हेडलाइन लिख सकता है. एन एस एस ओ (नेशनल सेम्पल सर्वे ऑफिस ) जो कि भारत सरकार का एक विभाग है और सर्वेक्षण का कार्य करता है, उसकी ताज़ी रिपोर्ट अभी पेश हुई है. यह सर्वेक्षण बताता है कि किस तरह देश में कारपोरेट का चेहरा, श्रमिकों से काम लेने का तौर तरीका बदला है पिछले दशक में. आज देश में अधिक कैजुअल लेबर हैं पांच साल पहले की तुलना में जो इस बात की ओर इशारा करता है कि देश में कामगार की गुणवत्ता में परिवर्तन कहिये या गिरावट कहिये आया है. साथ ही इस दौरान रोज़गार वृद्धि के दर में भी कमी आई है.
2004-05 और 2009-10 के बीच कैजुअल श्रमिको की संख्या बढ़ कर 2.19 करोड़ हो गई है जबकि स्थायी श्रमिको की संख्या आधी होकर लगभग 58 लाख रह गई गई है. यही नहीं स्व नियोजितों की संख्या जिसमे सबसे अधिक कृषि व्यवसाय से जुड़े छोटे बड़े किसान होते थे, उनकी संख्या में भारी कमी आई है.
कैजुअल लेबर वे होते हैं जिन्हें कभी भी बिना किसी पूर्व सूचना के हटाया जा सकता है, किसी दुर्घटना होने की दशा में कोई मुआवजा नहीं दिया जाता, भविष्य निधि या चिकित्सा सुविधा नहीं मिलती है. जबकि स्थायी श्रमिको के लिए भविष्य निधि, चिकित्सा सुविधा, औद्योगिक दुर्घटना होने की दशा में मुआवजा आदि का प्रावधान होता है. देश के बड़े बड़े औद्योगिक परिसरों में लाखों की संख्या में कुशल और अकुशल मजदूर काम करते हैं. लेकिन कंपनी उनके प्रति जिम्मेदार नहीं होती है. देश में श्रम क़ानून तो हैं लेकिन जिनके पास उन्हें क्रियान्वित करने की जिम्मेदारी है वे अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं कर रहे.
श्रम मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार प्रत्येक 1000 कामगारों में केवल 157 कामगारों को ही उचित मजदूरी मिलती है. प्रत्येक 1000 में से केवल 57 कामगारों को ही छुट्टियों का पैसा मिलता है. ऐसे में भविष्य निधि, पेंशन, बीमा, चिकित्सा लाभ आदि की बात तो बहुत दूर है. इसका तात्पर्य है कि सरकार जो न्यूनतम मजदूरी तय करती है वह क्रियान्वित नहीं हो रहा ना ही कोई मंशा दिख रही है. पिछले कुछ वर्षों में सरकार के फोकस से ये मुद्दे हैं ही नहीं.
आर्थिक विषयों की जानकारी नहीं है मुझे लेकिन इतना अवश्य है कि लोग पहले पूछते थे कि क्या तुम्हारी कंपनी लिमिटेड है. लिमिटेड कंपनियों में भविष्य निधि, चिकित्सा सुविधा आदि प्राप्त होता था. लेकिन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगमन के बाद यह प्रथा लगभग समाप्त हो रही है. यही कारण है कि देश में निर्माण, उत्पादन तो बढ़ा है लेकिन स्थायी कामगारों की संख्या के कमी आई है. सरकार की सबसे बड़ी रोज़गार योजना मनरेगा आने के बाद देश में श्रमिको की यह स्थिति सरकार के दावों की पोल खोलती है.
पहले सभी औद्योगिक परिसरों में श्रमिक यूनियन होते थे. लेकिन लाल झंडे को साजिशन बदनाम किया गया और कालांतर में इन्हें ऐसे कमज़ोर किया गया कि आज श्रमिक आन्दोलन दम तोड़ दिया है. कोलकाता के औद्योगिक बदहाली का जिम्मा तो लाल झंडे के मत्थे मढ़ दिया गया लेकिन बेरोज़गारी और भूखमरी से बचने के उपाय में जिस तरह देश में श्रमिको का शोषण हो रहा है, उस पर किसी की नज़र नहीं गई है. ऐसे में मुझे अपनी कविता "एक घंटे डाईकटिंग मशीन पर" (http://aruncroy.blogspot.com/2011/06/blog-post_27.html) बहुत सार्थक लग रही है आज.
'इन्डियन लेबर गोज़ कैजुअल' हेडलाइन मैंने किसी दूसरे अखबार में नहीं देखा यह मीडिया की अन्धता और उसकी प्राथमिकता की ओर भी इशारा कर रहा है.
आपका आलेख 'ऱोजगार का बदलता चेहरा' सही संदर्भों में बहुत ही अच्छा लगा। मेरी अपनी भी मान्यता है कि स्थायी श्रमिकों की तरह इन कैजुअल श्रमिकों को भी उनके समतुल्य लाना अपरिहार्य सा हो गया है। ये श्रमिक भी देश के विकास की मुख्यधारा से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जुड़े हैं एवं इनके योगदान को नकारा नही जा सकता। सरकार इन मजदूरों के लिए न्यूनतम मजदूरी के निर्धारण पर क्यों कोई ठोस कदम नही उठा रही है!यह एक चिंतनीय मुद्दा है एवं सरकार को इस दिशा में सही कदम उठाने की नितांत आवयश्कता है। 'मनरेगा' और 'नरेगा' जैसी रोजगार योजनाओं को गांवों मे जाकर देखा जाए तो पता चलेगा कि सरकार के आदर्श का यथार्थ किस रूप में हास्यापद सा प्रतीत होता है।पोस्ट प्रासांगिक लगा।इन शोषित एवं उपेक्षित नजदूरों के साथ मेरी पूर्ण सहानुभूति है।धन्यवाद सर।
जवाब देंहटाएंआज आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....
जवाब देंहटाएंबटुए में , सपनों की रानी ...आज के कुछ खास चिट्ठे ...आपकी नज़र .
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अरुण जी, आपने विषय पर बहुत छान बीन कर इस आलेख को प्रस्तुत किया है। इस वर्ग का सचमुच बहुत शोषण हो रहा है। ज़रूरी है क़ानून का ठीक से अनुपालन हो!
जवाब देंहटाएंसिर्फ कैजुअल ही नहीं बल्कि मात्र १५०० से लेकर ५००० रूपए के बीच में ८० % कामगार गुजारा कर रहे है . न जाने सरकार विकास दर कैसे तय करती है . इन्हें सुविधा के नाम पर कुछ नहीं मिलता जिस दिन काम करो उस दिन का पैसा मिलता है.
जवाब देंहटाएंखोजपरक जागरूक करता हुआ आलेख. आभार.
जवाब देंहटाएंarun jee yahi to khaisyat hai aapki .....aap har baat pe painee najar rakhte ho..par show aise karte ho, jaise ek dum naye khilari ho:)
जवाब देंहटाएंisme koi sakk nahi iss varg ka har samay shoshan hua hai..aur jaise jaise multi national companies aa rahi hai...isme ijaafa hi hua hai...!!
bahut khojparak jaankari di aapne..!!
aur fir aaj jab aapse mila aur aapne tathyaparak baaten iss mudde pe bola to sach me andar se ek achchhi baat fir se ye mahsoos hua ki heera hamne samet kar rakha hua hai...:)
जब अपना कल ना सुरक्षित हो तो गुनवत्ता की चिंता कौन करेगा... ? काश हमारे देश के नीति-निर्माताओं औद्योगिक जगत के नुमाइंदो की नजर भी इस आलेख पर या ’मिंट’ के कैप्शन पर पड़े।
जवाब देंहटाएंमैं तो इसी व्यवस्था के बीच में हूँ। नीचे दिहारी पर काम करने वाले अनुवादक/लेखक, डबिंग आर्टिस्ट की आँखों में झलक रही लाचारी सालती है, उपर से क्वालिटी एश्योरेंस की मार कि "द प्रडक्ट इज नाट ऐट पार विद द इंडस्ट्री’ स्टैंडर्ड।"
उन्हे क्या पता कि ’अगर यहाँ से जल्दी हो जाये तो कहीं और भी रेकर्डिंग/मिक्सिंग कर के दो पैसे और कमा लें’ की लाचारी वाले कामगारों से इस से अधिक स्टैंडर्ड की उम्मीद कैसे करें?
यह ब्लॉग अब खुल गया है.आपका लेख अरुणजी आराम से पढूंगा और फिर टिपण्णी करूँगा.आभार.
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