बिकाऊ
खोयी आंखें लौटीं :
धरी मिट्टी का लोंदा
रचने लगा कुम्हार खिलौने।
मूर्ति पहली यह
कितनी सुन्दर! और दूसरी --
अरे रूपदर्शी! यह क्या है --
यह विरूप विद्रूप डरौना?
“मूर्तियां ही हैं दोनों,
दोनों रूप : जगह दोनों की बनी हुई है।
मेले में दोनों जावेंगी।
यह भी बिकाऊ है,
वह भी बिकाऊ है।
“टिकाऊ – हां, टिकाऊ
यह नहीं है
वह भी नहीं है,
मगर टिकाऊ तो
मैं भी नहीं हूं --
तुम भी नहीं हो।”
रुका वह एक क्षण
आंखें फिर खोयीं, फिर लौटीं,
फिर बोला वह :
“होती बड़े दुःख की कहानी यह
अन्त में अगर मैं
यह भी न कह सकता, कि
टिकाऊ तो
जिस पैसे पर यह-वह दोनों बिकाऊ हैं
(और हम-तुम भी क्या नहीं हैं?)
वह भी नहीं है :
बल्कि वही तो
असली बिकाऊ है।”
(तोक्यो, जापान, २४ अप्रैल १९५७)
“मूर्तियां ही हैं दोनों,
जवाब देंहटाएंदोनों रूप : जगह दोनों की बनी हुई है।
मेले में दोनों जावेंगी।
यह भी बिकाऊ है,
वह भी बिकाऊ है।
अज्ञेय ने जिस मध्यवर्गीय चेतना को अपनी कविता 'बिकाउ' का विषय-वस्तु बनाया है, उसका सीधा असर इसके संरचना-शिल्प पर भी पड़ा है। भाषा की दृष्टि से इस कविता में उन्होंने बोल-चाल की भाषा के शब्दों का ही प्रयोग अधिक किया है, लेकिन इन साधारण शब्दों में एक विशेष प्रकार की लाक्षणिकता,सांकेतिकता ,प्रतीकात्मकता एवं बिंबधर्मिता आदि का भी समावेश देखने को मिलता है। इस कविता के बारे में और कुछ कहना सूर्य के सामने दीपक दिखाने की तरह लगेगा। मेरे पोस्ट पर आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद सहित।
अज्ञेय जी की खूबसूरत रचना पढवाने के लिए आभार
जवाब देंहटाएंहर चीज में धनात्मक और रिनातक बोध को परिचित कराती ...बेजोड़ कृति है यह
जवाब देंहटाएंआपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
जवाब देंहटाएंप्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (4-7-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
अज्ञेय जैसे रचनाकार की इस कला पर मुग्ध तो हुआ जा सकता है प्रतिक्रया नहीं डी जा सकती!!
जवाब देंहटाएं“टिकाऊ – हां, टिकाऊ
जवाब देंहटाएंयह नहीं है
वह भी नहीं है,
मगर टिकाऊ तो
मैं भी नहीं हूं --
तुम भी नहीं हो।”....
विचार करें तों अभिमान पर चोट लगेगी और अभिमान मिट जाये तों बहुत से दुःख स्वतः ही दूर हो जायेंगे