सुभद्रा कुमारी चौहान
चलते समय
तुम मुझे पूछते हो ‘जाऊँ’?
मैं क्या जवाब दूं तुम्हीं कहो।
‘जा ...’ कहते रुकती है जबान
किस मुँह से तुमसे कहूँ रहो!
सेवा करना था जहाँ मुझे
कुछ भक्ति-भाव दरसाना था।
उन कृपा-कटाक्षों का बदला
बलि होकर जहाँ चुकाना था।
मैं सदा रुठती ही आयी,
प्रिय! तुम्हें न मैंने पहचाना।
वह मान बाण-सा चुभता है,
अब देख तुम्हारा यह जाना॥
एक अंतर मन की आवाज़.
जवाब देंहटाएंआभार इस खूबसूरत कविता को पढवाने का.
बहुत भावमयी और सुन्दर रचना पढवाने का शुक्रिया
जवाब देंहटाएंbaad me aise maan baan chubha hi karte hain . ek sachayi ujagar karti rachna padhane ke liye aabhar.
जवाब देंहटाएंकल 17/10/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
आभार इस खूबसूरत कविता को पढवाने का .....
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी प्रस्तुति ...।
जवाब देंहटाएंthis is my favourate poem
जवाब देंहटाएंthanks for reminding me....
सुन्दर!
जवाब देंहटाएंअति उत्तम, धन्यवाद
जवाब देंहटाएंअतीत के रत्नों को वर्तमान में लाने का प्रयास सराहनीय है।