सुमित्रानन्दन पन्त
मोह
छोड़ द्रुमों की मृदु छाया,
तोड़ प्रकृति से भी माया,
बाले ! तेरे बाल जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन ?
भूल अभी से इस जग को !
तज कर तरल तरंगों को,
इन्द्रधनुष के रंगों को,
तेरे भ्रूभंगों से कैसे बिंधवा दूँ निज मृग-सा मन ?
भूल अभी से इस जग को !
कोयल का वह कोमल बोल,
मधुकर की वीणा अनमोल,
कह, तब तेरे ही प्रिय स्वर से कैसे भर लूँ सजनि ! श्रवण ?
भूल अभी से इस जग को !
ऊषा सस्मित किसलय दल,
सुधारश्मि से उतरा जल,
ना, अधरामृत ही के मद में कैसे बहला दूँ जीवन ?
भूल अभी से इस जग को !
***
{‘पल्लव’ से ... }
कैसे बहला दूँ जीवन ?
जवाब देंहटाएंपन्त के नैसर्गिक -प्रकृति प्रेम के आगे वर्ड्सवर्थ की लूसी की क्या औकात ?
sunder rachna ...padhvaane ke liye abhar...
जवाब देंहटाएंsunder rachna ...padhvaane ke liye abhar...
जवाब देंहटाएंपंत जी की अनुपम कृति हमसे साझा करने के लिए आभार मनीज़ जी
जवाब देंहटाएंपन्त जी की सुन्दर रचना पढवाने का शुक्रिया
जवाब देंहटाएंsunder...
जवाब देंहटाएंप्रकृति के कवि के चरणों में प्रणाम!!
जवाब देंहटाएंbahut bahut dhanywad is rachna ko padhwane ke liye.
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