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शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

भारतेन्दु जी की नाट्य दृष्टि

नाटक साहित्य-5

भारतेन्दु युग-1

भारतेन्दु जी की नाट्य दृष्टि

मनोज कुमार

images (50)भारतेन्दु जी सेठ अमीचन्द के वंशज थे। इनका जन्म 1850 में काशी में हुआ था। इनके पिता गोपालचन्द्र जी प्रसिद्ध कवि थे। उन्होंने ‘नहुष’ नामक नाटक भी लिखा था। हालाकि उनकी काव्य-प्रतिभा बाल्य-काल में ही चमक उठी थी, फिर भी उन्हें लगा कि अपने भावों और विचारों को जनता तक पहुंचाने का सबसे अच्छा साधन नाटक है। इसलिए नाटक-रचना की ओर उनका ध्यान आकर्षित हुआ।

उन दिनों अंग्रेज़ी नाटकों को पढ़ने वाले भारतीय, संस्कृत और देशी भाषाओं के नाट्य साहित्य का उपहास किया करते थे। भारतेन्दु जी जैसे स्वाभिमानी व्यक्ति को यह कहां से बर्दाश्त होता। उन्होंने मातृभाषा की सेवा में अपना सर्वस्व न्यौछावर करने का संकल्प लिया और इस दिशा में सक्रिय हो गए। उन्होंने सोद्देश्यपूर्ण साहित्य रचना की। नाट्य लेखन में उनकी चिंताएं आधुनिक थीं। उन्होंने नाट्य लेखन को सामाजिक परिवर्तन और राष्ट्रीय जागरण का माध्यम बनाया। वे हिंदी साहित्य को भी समृद्ध करना चाहते थे। इन उद्देश्यों को पूरा करने के लिए किए गए उनके प्रयास आन्दोलन की तरह थे।

भारतेन्दु जी के नाटकों का मूल आधार देश-प्रेम है। वे ख़ुद अभिनेता, रंगकर्मी और समीक्षक थे। उन्होंने अपनी भाषा और संस्कृति का प्रचार-प्रसार भी इस माध्यम से किया। उनके नाटकों का रुझान आदर्शवादी है। देश उस समय ग़ुलाम था। आज़ादी के लिए हमारे चरित्र बल का मज़बूत और शक्तिशाली होना बहुत ज़रूरी था। साथ ही अपनी भाषा, अपने राष्ट्र की भाषा भी होना बहुत ज़रूरी था। तभी हम सही मायनों में आज़ाद कहलाने के हक़दार होते। इन्हीं बातों को सम्प्रेषित करने के लिए उन्होंने अपने नाटकों में कहीं उपदेशात्मक शैली का प्रयोग किया तो कहीं भरत वाक्य में उसे प्रकट किया। नाटक में दृश्यात्मक और काव्यत्व को उन्होंने सबसे अधिक महत्व दिया। हास्य-व्यंग्य की शैली में लिखे गए उनके नाटक चरित्र निर्माण की शिक्षा देते हैं।

भारतेन्दु जी की नाट्य दृष्टि

भारतेन्दु जी ने न सिर्फ़ नाटकों की रचना की बल्कि नाटक संबंधी विस्तृत लेख लिखकर उन्होंने इस विषय पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। उन्होंने इस बात पर गहराई से चिंतन किया कि नाटक का लेखन और मंचन क्यों किया जाना चाहिए? नाट्य-परंपरा के विकास के लिए किस परंपरा का अनुपालन किया जाना चाहिए। उन्होंने लिखा है,

“आजकल यूरोप के नाटकों की छाया पर जो नाटक लिखे जाते हैं और बंगदेश में जिस चाल के बहुत से नाटक बन चुके हैं वह सब नवीन भेद में परिगणित हैं।”

जिस नवीन परंपरा की बात वो कर रहे थे उसे वह पश्चिम के यूरोपीय नाट्य परंपरा और बंगला नाटकों पर उसके प्रभाव से जोड़ते हैं। वे नवीन नाटकों के दो भेद मानते हैं,

१. नाटक – जिनमें कथाभाग विशेष और गीति न्यून, और

२. गीतिरूपक – जिसमें गीति विशेष हों।

इस तरह से वे ऐसे नाटकों की कल्पना नहीं कर सके जो गीत या पद्य रहित हो। वे संस्कृत नाट्य परंपरा को न तो पूरी तरह से अस्वीकार कर रहे थे और न ही उसके अनुकरण की बात कर रहे थे। किन्तु यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि वे प्राचीन नाट्य रीतियों को तब ही स्वीकार करने को तैयार थे जब वे आधुनिक ज़रूरतों के अनुरूप हों। उनके प्राचीन और नवीन के बीच की विभाजन रेखा यथार्थ के प्रति उनका दृष्टिकोण थी। उन्होंने नाटकों में लौकिक दृष्टि के समावेश का प्रयास किया। उनके अनुसार, “जो लोकातीत और असंभव हैं वे वर्तमान काल के लोगों को स्वीकार नहीं हो सकते।” यह उनका यथार्थवादी दृष्टिकोण था।

उद्देश्य

भारतेन्दु जी के नाटकों के उद्देश्य में विवेकपूर्ण आधुनिक दृष्टिकोण दिखाई देता है। नाटक रचना का मूल उद्देश्य मनोरंजन के साथ ही जनमानस को जाग्रत करना और उसमें आत्मविश्वास उत्पन्न करना था। उन्होंने अपने समय की सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों के साथ ही अपने उद्गारों को अभिव्यक्त करते हुए प्रचुर नाट्य साहित्य की रचना की जो मौलिक भी हैं और अनूदित भी। अपने निबंध में नवीन नाटकों के उद्देश्य की चर्चा करते हुए पांच उद्देश्य बताते हैं,

१. श्रृंगार, २. हास्य, ३. कौतुक, ४, समाज संस्कार और ५. देशवत्सलता।

जहां एक ओर वे देशवत्सलता नाटकों का उपयोग लोगों में देशभक्ति की भावना जगाने के लिए करना चाहते थे वहीं दूसरी ओर समाज संस्कार से उनका उद्देश्य था कुरीतियों और धर्म संबंधी अन्य विषयों में सुधार। लोगों में जागृति पैदा करना उनका प्रमुख उदेश्य था। भारत जननी, नील देवी और भारत दुर्दशा आदि नाटक इसके उदाहरण हैं। वे इन नाटकों के द्वारा उस समय की प्रस्थितियों के प्रति लोगों को जागरूक करना चाहते थे। वे जनजागरण और लोक रुचि के लिए मनोरंजन और हास्य को ज़रूरी मानते थे। उन्होंने नाटक को खेल आदि कहा। हास्य और तीखे व्यंग्य में वे बड़ी से बड़ी समस्या को प्रस्तुत कर देते थे। उनके नाटकों में स्थानीय बोली का प्रयोग, टोन और मुहावरे भी होते थे। नाटक की प्रकृति के साथ जनता की प्रकृति और देश की आवश्यकताओं का सामंजस्य बिठाते हुए उन्होंने साहित्यिकता और रंगमंचीयता का अनूठा उदाहरण पेश किया है।

संदर्भ ग्रंथ

१. हिन्दी साहित्य का इतिहास – सं. डॉ. नगेन्द्र, सह सं. डॉ. हरदयाल २. डॉ. नगेन्द्र ग्रंथावली – खंड-९ ३. हिन्दी साहित्य उद्भव और विकास – हजारीप्रसाद द्विवेदी ४. हिन्दी साहित्य का इतिहास – डॉ. श्यम चन्द्र कपूर ५. हिन्दी साहित्य का इतिहास – आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ६. मोहन राकेश, रंग-शिल्प और प्रदर्शन – डॉ. जयदेव तनेजा ७. हिन्दी नाटक : उद्भव और विकास – डॉ. दशरथ ओझा ८. रंग दर्शन – नेमिचन्द्र जैन ९. कोणार्क – जगदीश चन्द्र माथुर १०. जयशंकर प्रसाद : रंगदृष्टि नाटक के लिए रंगमंच – महेश आनंद ११. अन्धेर नगरी में भारतेन्दु के व्यक्तित्व के सर्जनात्मक बिन्दु – गिरिश रस्तोगी, रीडर, हिन्दी विभाग, गोरखपुर विश्व विद्यालय

12 टिप्‍पणियां:

  1. आपके द्वारा प्रस्तुत ' भारतेंदु जी की नाट्य-दृष्टि ' आद्योपांत अपनी पूर्ण समग्रता में क्रमबद्ध रूप में सामने आया है। स्नात्कोत्तर स्तर पर भी इतनी महत्वपूर्ण जानकारी से वंचित रह गया था। आज इसे पढ़ कर ऐसा प्रतीत हुआ कि हिंदी साहित्य जगत में पूर्णता की प्राप्ति के लिए अमरत्व प्राप्त करना होगा। ज्ञानार्जन के संदर्भ में सर आइजक न्यूटन के कुछ मित्रों ने प्रश्न किया की तुमने तो अनगिनत वैज्ञानिक उपलब्धियों को प्राप्त कर लिया है, अब क्यों इतने व्यस्त रहते हो ! प्रत्युत्तर में उन्होंने बस यही कहा था -" I seem myselef like a small child picking up pebbles lying on the sea-shore while the boundless ocean of truth lies undiscovered before me. "
    सर,कृपया बताएं कि क्या मेरे उदगार इस संदर्भ में सही प्रतीत होते नही लगते !
    बहुत-बहुत धन्यवाद।

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  2. टंकण संबंधी त्रुटि- Please read myself in place of myselef. Thanks.

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  3. ज्ञानवर्द्धक आलेख...भारतेन्दु का नाट्यशिल्प अद्वीतीय रहा है। हिन्दी-यात्रा में गति के निमित्त आपका यह प्रयास स्तुत्य है...बहुत-बहुत धन्यवाद

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  4. ज्ञानवर्द्धक आलेख| धन्यवाद|

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  5. आपको हरियाली अमावस्या की ढेर सारी बधाइयाँ एवं शुभकामनाएं .

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  6. गहन विश्लेषण युक्त ज्ञानवर्धक प्रस्तुति.
    सादर,
    डोरोथी.

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