तोड़ती पत्थर
वह तोड़ती पत्थर
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर -
वह तोड़ती पत्थर।
नहीं छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार,
श्याम तन, भर बँधा यौवन,
नत नयन, प्रिय कर्म रत मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार बार प्रहार -
सामने तरु मालिका अट्टलिका, प्राकार।
चढ़ रही थी धूप,
गर्मियों के दिन,
दिवा का तमतमाता रूप,
उठी झुलसाती हुई लू,
रूई ज्यों जलती हुई भू
गर्द चिंदी छा गई
प्राय: हुई दोपहर -
वह तोड़ती पत्थर।
देखते देखा, मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्न तार,
देख कर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से,
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहम सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार।
एक छन के बाद वह काँपी सुघर
ढुलक माथे से गिरे सीकर
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा -
"मैं तोड़ती पत्थर।"
दसवीं में यह कविता पढ़नी थी। निराला का निरालापन।
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत पोस्ट आभार
जवाब देंहटाएंभारतीय स्वाधीनता दिवस पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं .
मुझे यह रचना बहुत पसंद है ..आज तो बहुत अच्छी शुरुआत रही दिन की
जवाब देंहटाएंजब भी पढो तभी एक वेदना का दिग्दर्शन कराती है………यही निराला की निराली महिमा है।
जवाब देंहटाएंkhubsurat post....
जवाब देंहटाएंmeri pasndida rachna...aabhar
जवाब देंहटाएंसार्थक प्रस्तुति.....
जवाब देंहटाएंस्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं.
meri muh mangi murad puri kar di.
जवाब देंहटाएंaabhar.
वेदना का दिग्दर्शन? यह तो नया प्रयोग लग रहा है हिन्दी में।
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