हिन्दी के पाणिनि – आचार्य किशोरीदास वाजपेयी
(अंक-2)
- आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में आचार्यजी के जीवन-वृत्त पर, थोड़ी-बहुत जो जानकारी उस समय तक उपलब्ध थी, चर्चा करते हुए दिया था कि इस अंक से आचार्यजी के ग्रंथों पर चर्चा की जाएगी। किन्तु इसी बीच प्रिय मित्र श्री हरीश प्रकाश गुप्तजी के सार्थक प्रयास से आचार्य किशोरीदास वाजपेयी ग्रंथावली उपलब्ध हो गयी है और उसमें आचार्यजी के जीवन-वृत्त के कुछ संकेत उन्हीं की लेखनी से मिले। अतएव विचार बदल गया और सोचा क्यों न इस पर कुछ और चर्चा की जाय।
आचार्यजी की एक छोटी सी (79 पृष्ठों की) पुस्तक है- साहित्यिक जीवन के अनुभव और संस्मरण। उन्होंने अपने साहित्यिक जीवन के अनुभव और संस्मरण को चार उन्मेषों में बाँटा है- पहला 1919 से 1930 तक, दूसरा 1931 से 1940 तक, तीसरा 1941 से 1950 तक और चौथा 1951 से आगे।
प्रथम उन्मेष के आधार पर आचार्यजी के जीवन के कुछ पहलुओं पर यहाँ बात करते हैं। आचार्य जी प्रथम उन्मेष की चर्चा करते हुए कहते हैं कि उनके साहित्यक जीवन का प्रारम्भ 1919 में शास्त्री की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद से शुरु हुआ। वे लिखते हैं कि एक बार 1916 में वे श्री किशोरीलाल गोस्वामी से झगड़ा कर बैठे थे, केवल इस बात पर कि दश प्रकार की भक्ति के दश को काटकर उन्होंने दस कर दिया था। पर गोस्वामीजी मुस्कराते हुए बोले कि हिन्दी में दस ही चलेगा, दश नहीं और यह बात आगे आनेवाले दिनों में स्पष्ट हो जाएगी। इसके बाद तीन वर्षों तक आचार्यजी हिन्दी के स्वरूप को समझते रहे।
इन्हीं दिनों आचार्यजी ने जलियाँवाले बाग नाम की एक पुस्तक लिखी और प्रकाशन के लिए उस समय की हिन्दी की प्रतिष्ठित ग्रंथमाला हिन्दी-ग्रंथरत्नाकर, बम्बई उसे भेजा। इस ग्रंथमाला के संचालक श्री नाथूराम प्रेमी थे। श्री प्रेमी ने पुस्तक प्रकाशित करने से यह कहकर मना कर दिया कि उनके यहाँ केवल स्थायी साहित्य ही प्रकाशित होते हैं। अपने पत्र में श्री प्रेमीजी ने आचार्यजी की हिन्दी की काफी प्रशंसा की थी। इससे आचार्यजी का आत्मविश्वास काफी बढ़ा कि लोग बोलचाल की भाषा भी पसन्द करते हैं और यहीं से इन्होंने अपनी भाषा का स्वरूप निश्चित किया। हाँ, प्रेमीजी ने इसके साथ ही जैन धर्म की संस्कृत पुस्तकों का हिन्दी में अनुवाद करने का प्रस्ताव भी भेजा। आचार्यजी की स्वीकृति के बाद चार पुस्तकें- प्रद्युम्नचरित, अनिरुद्धचरित, सागारधर्मामृत और सम्भवतः पार्श्वनाथचरित आ गयीं। उन्हें पढ़ने के बाद आचार्यजी ने उनका अनुवाद करने से यह कहकर पुस्तकें बिना अनुवाद किए वापस कर दीं कि वे सनातनी होकर अपने धर्म के विरुद्ध बात करनेवाली पुस्तकों का अनुवाद नहीं कर सकते। आचार्यजी लिखते हैं कि इस प्रथम प्रस्ताव को ठुकराकर उन्होंने जो लक्ष्मीजी को चोट दी उसका उन्होंने इतना बुरा माना कि जीवनभर न वे मानीं और न मैंने मनाने की चेष्टा की।
शास्त्री पूरा करने के पहले ही आचार्यजी ने अध्यापन शुरु कर दिया था। अतएव संस्कृत में लिखी अपनी पहली पुस्तक निम्बार्काचार्यस्तन्मतं च को हाथ में वेतन आते ही छपवाया। लेकिन यह पुस्तक बिक नहीं पायी और इसकी प्रतियाँ वृन्दावन तथा काशी में मुफ्त में बाँट दी गयीं। आचार्यजी पुनः हिन्दी को छोड़ संस्कृत की ओर मुड़े। पहले तो उनके मन में आया कि क्यों न इतिहास, भूगोल, समाजशास्त्र आदि की पुस्तकें संस्कृत में लिखी जाएँ, फिर सोचे कि राष्ट्रीय-चेतना को ध्यान में रखकर मैट्रिक के लिए संस्कृत की एक पुस्तक लिखी जाए। सो लिखी भी। इसमें पं. मदनमोहन मालवीय, लोकमान्य तिलक, महात्मा गाँधी, भगवान बुद्ध, शंकराचार्य,, महारानी लक्ष्मीबाई आदि की संक्षिप्त जीवनी देते हुए पाठ तैयार किए गए। पुस्तक लाला आत्माराम एम.ए. को दिखाई गई, जो अम्बाला डिवीजन के विद्यालय निरीक्षक थे। आचार्यजी लिखते हैं कि लालाजी बड़े ही सहृदय और संस्कृत के विद्वान थे। वे पुस्तक देखकर बहुत प्रसन्न हुए और सलाह दिए कि उस पुस्तक में ईसा मसीह, महारानी विक्टोरिया और वर्तमान सम्राट के जीवन-वृत्त भी जोड़ दें। आचार्यजी को वह सब स्वीकार्य न था। अतएव उन्होंने उस पुस्तक को फाड़कर फेंक दिया।
उसी समय महामहोपाध्याय पं. सकलनारायण शर्मा ने माधुरी पत्रिका में एक लेख लिखा था कि भिन्न लिंग के कई कर्त्ता होने पर क्रिया का लिंग अंतिम कर्त्ता के लिंग के अनुसार होना चाहिए, लेकिन देखि रूप मोहे नर-नारी जैसे प्रयोग इस नियम को भंग करते हैं। गद्य में भी कश्यप और अदिति प्रणाम करते हैं इस तरह के प्रयोग हो रहे हैं। ऐसी स्थिति में व्याकरण के इस नियम का क्या होगा? आचार्यजी लिखते हैं कि इस लेख ने उन्हें हिन्दी भाषा के स्वरूप पर सोचने के लिए प्रेरित किया। शर्माजी संस्कृत के विद्वान और हिन्दी के ख्यातिलब्ध साहित्यकार थे। साथ ही वे शिखा नामक पत्रिका का काफी लम्बे समय तक प्रकाशन कर चुके थे और श्री रामावतार शर्मा तथा पं. पद्मसिंह शर्मा जैसे प्रतिष्ठित साहित्यकारों के मित्र भी थे। आचार्यजी ने पं. सकलनारायण शर्मा की उक्त जिज्ञासा का समाधान तैयार किया और माधुरी में छापने के लिए भेज दिया। लेख छपने के बाद उसपर किसी ने आपत्ति नहीं की।
तबतक आचार्यजी की दृष्टि में सम्पादक देवता थे। अतएव अध्यापन के झमेले को छोड़कर वे इन देवताओं के बीच काम करने का मन बना लिए और सुधा तथा चाँद नामक पत्रिकाओं के संचालकों को पत्र लिखे। दोनों ही स्थानों से बुलावा आ गया। आचार्यजी की पत्रकारिता की यात्रा यहाँ से शुरु हुई। पहले तो वे सुधा कार्यालय, लखनऊ आए, पर भार्गवजी के व्यवहार से वे बहुत दुखी हुए और उलटे पाँव चाँद के प्रकाशन कार्यालय प्रयाग के लिए चल पड़े। आचार्य वाजपेयी लिखते हैं कि मैं लू से उतना नहीं जला था, जितना कि सुधा पत्रिका के दफ्तरी-व्यवहार से।
इस अंक में बस इतना ही। आभार।
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जानकारी परक आलेख...
जवाब देंहटाएंरोचक एवं उपयोगी ज्ञानवर्धक जानकारी. आभार
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा। पढ़ रहे हैं लगातार।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति वाह!
जवाब देंहटाएंजानकारी परक आलेख
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक आलेख ....
जवाब देंहटाएंआचार्य किशोरीदास वाजपेयी (अंक-2) पढ़ कर अच्छी जानकारी मिली । धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंइस समापन अंक (?)के लिए आभार !
जवाब देंहटाएंश्री अरविन्द मिश्रजी,
जवाब देंहटाएंसादर सूचित किया जा रहा है कि यह समापन अंक नहीं है। कम से कम 15 अंक तो आदरणीय आचार्य जी के जीवन-संघर्ष को लेकर हो सकते हैं। टिप्पणी के द्वारा प्रोत्साहित करने के लिए सभी पाठकों को हार्दिक साधुवाद। कुछ टंकण की त्रुटियाँ रह गयी हैं। उन्हें ठीक करके भेज दिया गया है। आशा है मनोज कुमारजी उसे शुद्धरूप दे देंगे।
बढ़िया पोस्ट .
जवाब देंहटाएंनवरात्रि की हार्दिक बधाई .
इतनी अच्छी जानकारी देने हेतु आभार।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी जानकारी देता लेख ... इन सबके बारे में यहीं जानकारी मिली ..आभार
जवाब देंहटाएंटंकण की अशुद्धियों को दूर करने के लिए मनोज कुमारजी को साधुवाद।
जवाब देंहटाएंश्रद्धेय
जवाब देंहटाएंआपके आलेखों को देखने के बाद मेरे मन की यह उत्कण्ठा अधिक हो रही है कि मैं लवली प्रोफ़ैशन युनिवर्सिटी फ़गवाड़ा पंजाब से किसी शोधार्थी को पीएच.डी. का विषय अवश्य दिया जाए
डॉ. विनोद कुमार
कला एवं भाषा विभाग
लवली प्रोफ़ैशनल युनिवर्सिटी फ़गवाड़ा(पंजाब)
मोबा: 09876758830