पुस्तक परिचय-2
मित्रो मरजानी
मनोज कुमार
इस सप्ताह एक ऐसा उपन्यास पढ़ा जिसे 1967 में लिखा गया। इसकी लेखिका कृष्णा सोबती ने उन दिनों इतना कुछ लिखने का साहस दिखा दिया और इस उपन्यास को इतना पसंद किया गया कि तब से लेकर आज तक इसके पांच संस्करण निकल चुके हैं। आप सोचिए बीसवीं सदी के सातवें दशक में कोई ऐसी नारी पात्र की रचना करे जो यह कहे – “- जिन्द जान का यह कैसा व्यापार? अपने लड़के बीज डालें तो पुण्य, दूजे डालें तो कुकर्म! ” तो यह इसकी लेखिका के साहस का कमाल ही है। सोबती जी ने मित्रो जैसे चरित्र को केन्द्र में रखकर कहानी लिखी, और उसके द्वारा देह के सुख और उसके लिए मुखर होने की चाह, परिवार, मर्यादा और सतीत्व जैसे पदबंधों की कमजोरियों को उघाड़कर रख दिया। रूढ़िवादी समाज इसे उत्तेजक कह सकता था, लेकिन विश्वनाथ त्रिपाठी जी के शब्दों में “इसके लिए बहुत साहस, निर्ममता और ममता की ज़रूरत पड़ी होगी। यह सब बहुत-बहुत आत्मीय परिचय, पात्र से तादातम्य के बिना संभव नहीं था।”
‘मित्रो मरजानी’ की कहानी पंजाब के किसी गांव में बसे एक संयुक्त परिवार की कहानी है। यह परिवार धीरे-धीरे बिखर कर टूट रहा है। गुरुचरन दास और उनकी पत्नी धनवंती के तीन बेटे और बहुएं हैं। समित्रावंती यानी मित्रो मंझली बहू है, जिसे उसका पति सरदारी आए दिन पीटता रहता है। इसका कारण यह है कि मित्रो ‘जग की रीत ठेंगे पर’ रखने के स्वभाव वाली है। ऐसे पात्र का सृजन इसके पहले भारतीय हिन्दी साहित्य में शायद ही हुआ हो। यह एक सजीव और सदेह पात्र है। उस संयुक्त परिवार के हर सदस्य से वह टक्कर लेती है। पति से उसे शिकायत है कि वह बस मार-पीट की भाषा जानता है, उसके तन और मन के सुख की परवाह नहीं करता। वह उन दिनों की आम नारी की तरह इसे अपनी नियति नहीं मान बैठती। बेलौस टक्कर लेती है। पूरी धौंस के साथ अपने शरीर और मन की चाह को कभी अपनी जिठानी तो कभी अपनी सास के सामने बयां करती है।
अब उन दिनों की क्या आज के समाज के संदर्भ में भी इस पात्र को देखें तो ऐसे चरित्र को कुलटा या ऐसे ही तमाम विशेषणों से नवाज दिया जाएगा। देखने में तो लगता है कि मित्रो के कई पुरुषों से संबंध रहे हों, और उसका पति इसी बात से क्रोधित भी होता रहता है। कहानी के विकास के साथ-साथ पारिवारिक दाव-पेंच भी चलते रहते हैं जो एक संयुक्त परिवार में होता रहता है। लेकिन इन सब के बीच भी यह चरित्र बहुत सहज है। उसमें कोई उलझाव, अवास्तविकता या बनावटीपन नहीं है। वह कोई असामान्य पात्र भी नहीं है।
मगर मित्रो के चरित्र की कहानी सिर्फ प्यास की ही कहानी नहीं है, आग की भी कहानी है और उसके नीचे धीमे आंच में पकते प्यार की भी। जहां एक ओर वह अपनी बहानेबाज़ देवरानी फुलवंती की खूब खबर भी लेती है तो वहीं दूसरी ओर जब घर में पैसों की जरूरत पड़ती है तो अपने साज-सिंगार की चाह को आले पर रखकर आभूषण देने को तैयार हो जाती है। जब उस पर सास और जिठानी द्वारा बच्चा न होने के कारण संशय किया जाता है तो बेख़ौफ़ सुना देती है कि जब तुम्हारे लाल में ही दमखम नहीं तो मैं क्या करूं। कहती है “मेरा बस चले तो गिनकर सौ कौरव जन डालूं, पर अम्मा अपने लाडले बेटे को भी तो आड़-तोड़ जुटाओ।”
मित्रो के द्वारा स्त्री देह से जुड़े पारंपरिक मानदंडों को चुनौती देने वाले इस उपन्यास में उसके द्वारा यह प्रश्न भी उठाया जाता है कि समाज में ऐसा क्यों है कि पति से पैदा हुआ बच्चा ही सही माना जाता है और किसी और से पैदा हुए बच्चे को पाप कह दिया जाता है। क्यों बच्चे को हमेशा बाप से ही जोड़ा जाता है? मां से क्यों नहीं?
‘मित्रो मरजानी’ नारी देह की आजादी के प्रश्न का संकेत देता है। किन्तु इस उपन्यास को पढ़ते समय हमें स्त्री देह की उन्मुक्तता और स्त्री के लिए देह की मुक्ति के बीच फ़र्क करना ज़रूरी है। पूरे उपन्यास में मित्रो देह सुख की चाह बयान करती नजर आती है, मगर आखिर में जब उसकी मां महज इसी के लिए प्रबंध करने जुटाती है, तो मित्रो उसे सिरे से नकार देती है। उस वक्त की मित्रो का चरित्र सशक्त होकर हमारे सामने आता है। वह एक ऐसा चरित्र है जो नियति का गुलाम नहीं है।
इस उपन्यास में सोबती जी ने अपनी संयमित अभिव्यक्ति और सुधरी रचनात्मकता के साथ-साथ बिंदास और बेलाग संवाद जिसे बोल्ड भी कह सकते हैं, के द्वारा कथा-भाषा को एक विलक्षण ताज़गी दी है। लेखिका ने अपनी भावनात्मक ऊर्जा और कलात्मक उत्तेजना से न सिर्फ़ पेचीदा सच उद्घाटित किए हैं बल्कि पाठक वर्ग को यह बताने में भी सफल होती हैं कि औरत सिर्फ तन नहीं और सिर्फ मन भी नहीं है। कहानी द्वारा कोई बना-बनाया निर्णय पाठकों को नहीं थमाना चाहिए, बल्कि पाठक को एक मद्धिम आंच देता हुआ विचार नियामक सौंप दिया जाए, इस नीति का पालन करते हुए सोबती जी ने इस उपन्यास में कोई ठोस निर्णायक उपसंहार देकर समाप्त नहीं किया है बल्कि पाठक के हिस्से यह बेचैनी छोड़ कर चुप हो जाती है कि कहानी यूं खत्म क्यों हो गई। उनके इस उपन्यास का यह शिल्प और वह अंत ही इसकी ताकत है--
“सैयां के हाथ दाबे, पांव दाबे, सिर-हथेली ओठों से लगा झूठ-मूठ की थू कर बोली – कहीं मेरे साहिब जी को नज़र न लग जाए इस मित्रो मरजानी की!”
पुस्तक का नाम – मित्रो मरजानी (उपन्यास)
लेखिका : कृष्णा सोबती
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली
पहला संस्करण : 1967 (पुस्तकालय संस्करण)
संस्करण : 1984, 1991, 2007, 2009
मूल्य : 60 रु. (पेपरबैक्स में)
पेज : 99
बहुत बढ़िया लगा! लाजवाब प्रस्तुती!
जवाब देंहटाएंमेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://seawave-babli.blogspot.com/
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/
अच्छा लगा…यह कड़ी भी बेहतर जा रही है…इस उपन्यास के बारे में पता नहीं था कुछ खास, सिवाय नाम के…धन्यवाद
जवाब देंहटाएंमित्रो के द्वारा स्त्री देह से जुड़े पारंपरिक मानदंडों को चुनौती देने वाले इस उपन्यास में उसके द्वारा यह प्रश्न भी उठाया जाता है कि समाज में ऐसा क्यों है कि पति से पैदा हुआ बच्चा ही सही माना जाता है और किसी और से पैदा हुए बच्चे को पाप कह दिया जाता है। क्यों बच्चे को हमेशा बाप से ही जोड़ा जाता है? मां से क्यों नहीं?
जवाब देंहटाएंइस उपन्यास में (मित्रों मरजानी) कृष्णा सोबती जी ने जिन बिंदुओं एवं समाज के अंदर व्याप्त सत्य को उदघाटित किया है, उसी के परिणामस्वरूप इसे वह मुकाम हासिल हुआ जिसके कारण साहित्य -जगत में आज भी इसकी वर्चस्वता अक्षुण्ण है । एक अच्छे साहित्यकार की अनुपम कृति से परिचित कराने के लिए आपका तहे दिल से आभार । धन्यवाद ।
कृष्णा सोबती जी की इस रचना की चर्चा तो ख़ूब सुनी थी,आपने जिस तरह से समीक्षित करके इस कृति के प्रति उत्कंठा जताई है,जल्द ही मित्रो से मिलूँगा !
जवाब देंहटाएंJABARDAST KATHA |
जवाब देंहटाएंखूबसूरत प्रस्तुति |
त्योहारों की नई श्रृंखला |
मस्ती हो खुब दीप जलें |
धनतेरस-आरोग्य- द्वितीया
दीप जलाने चले चलें ||
बहुत बहुत बधाई ||
कृष्णा सोबती जी के एक - दो उपन्यास बहुत पहले पढ़े थे ..अब तो याद भी नहीं ...
जवाब देंहटाएंआपके द्वारा इस पुस्तक की समीक्षा से पुस्तक पढने की उत्कंठा जागृत हो गयी है ... बहुत सूक्ष्म समीक्षा दी है ..
पुस्तक परिचय के लिए आभार
सबसे पहले आपको मेरी तरफ से दीपावली की हार्दिक शुभकामना / " मित्रो मरजानी " की बड़ी सुंदर समीक्षा आपने की है /
जवाब देंहटाएंकृष्ण सोबती नाम तो सुना था पर उपन्यास कभी नहीं पढ़ा था.आभार इस जानकारी के लिए.
जवाब देंहटाएंउपन्यास के बारे मे जानकारी देने के लिये आभार्…………यही विड्म्बना आती है स्त्री के जीवन मे और उसे जिस तरह से सोबती जी ने उकेरा है सच मे वो काबिल-ए-तारीफ़ है।
जवाब देंहटाएंउपन्यास के बारे में विस्तारपूर्वक बताने के लिए धन्यवाद ...
जवाब देंहटाएंदीवाली की शुभकामनाएँ
बहुत सुन्दर प्रस्तुति..
जवाब देंहटाएंshukriya is upanyas k bare me ek bar fir se charcha kar ker. kuchh samay pahle hi padha tha yah upanyaas. ye ek aisa upanyaas hai jo kayi din tak hamare man-o-mastishk me daudta rahta hai.
जवाब देंहटाएंsach kaha aapne iska ant pathkon k liye ek aseem, unsuljhi baichaini chhod jata hai.
jabardast samvad hain isme.
कृष्णा सोबती की बहु चर्चित कृति है यह....संवादों के बोल्डनेस के लिए काफी मशहूर थी...अफवाह तो ये भी थी कि इसे कुछ शहरों में बैन कर दिया गया था...
जवाब देंहटाएंइसके कथानक से परिचित करवाने का आभार
krishna ji ki yah novele humare course me h study kiya bahut hi bold carrectre h mitro female ese jarur study kare aur aapane astitv ko pahachane aur sthapit kare MAHADEVI VARMA ne apane niband sangra shrinkhala ki kariya ki bhumika me kikha h (samasya ka samadhan samasya ke gyan meh.
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