जयशंकर प्रसाद की कविताएं-3
ले चल मुझे भुलावा देकर
ले चल मुझे भुलावा देकर,
मेरे नाविक! धीरे-धीरे!
जिस निर्जन में सागर लहरी
अम्बर के कानों में गहरी --
निश्छल प्रेम-कथा कहती हो,
तज कोलाहल की अवनी रे!
जहां सांझ-सी जीवन छाया
ढीले अपनी कोमल काया,
नील नयन से ढलकाती हो,
ताराओं की पांति घनी रे!
जिस गम्भीर मधुर छाया में --
विश्व चित्र-पट चल माया में --
विभुता विभु-सी पड़े दिखाई
दुःख-सुख वाली सत्य बनी रे!
श्रम-विश्राम क्षितिज-वेला से --
जहां सृजन करते मेला से --
अमर जागरण-उषा नयन से --
बिखराती हो ज्योति घनी रे!
प्रसाद जी की सुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंप्रसाद जी की सुन्दर रचना पढवाने के लिये आभार्।
जवाब देंहटाएंabhar ..sunder rachna ke liye ...
जवाब देंहटाएंछोटी से अभिव्यक्ति का कितना व्यापक भाव !
जवाब देंहटाएंजयशंकर प्रसाद जी की कविता "ले चल मुझे भुलावा देकर मेरे नाविक धारे -धारे " एक ऐसे सत्य को उदभाषित करती है जिसकी दार्शनिक भाव-बोध की चाह हर संवेदनशील हृदय की चाह होती है ।. यह बात जिगर है कि हम उन कल्पनाओं के सहारे जी न सकें किंतु सत्य से विमुख होकर एक अलौकिक संसार में तो जी सकते हैं । कवि अपनी कल्पना लोक में जीता है एवं वह किसी अन्य की दुनिया से सरोकार नही ऱखता । प्रसाद जी की दुनिया ही अलग थी एवं उनकी दुनिया में जीना एक बहुत बड़ी बात है । .काश! !.आज के साहित्य प्रेमियों को वह कल्पना -लोक मिल पाता । उनकी इस रचना को प्रस्तुत करने को लिए धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर..आभार ..
जवाब देंहटाएंइस सुन्दर रचना से पुनः परिचित करवाने का आभार
जवाब देंहटाएंबहुत दिन बाद प्रसाद जी की यह सुंदर रचना पढ़ाने का आभार।
जवाब देंहटाएंप्रसाद जी की कविता पढवाने के लिये धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंजिस निर्जन में सागर लहरी
जवाब देंहटाएंअम्बर के कानों में गहरी --
निश्छल प्रेम-कथा कहती हो,
तज कोलाहल की अवनी रे!
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अनुपम है ये रचना
इसका अनुवाद बताइय।
जवाब देंहटाएंयह रचना किस कृति में संग्रहित है ?
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