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गुरुवार, 13 अक्तूबर 2011

चाहता है यह पागल प्यार


आदरणीय पाठक वृन्द को अनामिका का नमन !  आप सब नें  पिछले लेखों में  जीवन - विजयिनी महादेवी जी  की पृष्ठभूमि को जाना और उनके बचपन के अतरंग प्रसंगों का रसास्वादन किया.  अब उनके  वयस्क जीवन काल की प्रतिभा निखर कर सामने आने लगी है...तो चलिए आगे की उनकी अनुभूतियों से अभिभूत होते हैं...



दसवां, ग्यारहवां दर्जा पास करते करते कवि-सम्मेलनों, वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में प्राप्त तमगों और पुरस्कारों से छात्रावास का कमरा भर गया. प्रचलित प्रसिद्द पत्रिकाओं में रचनाएं निरंतर प्रकाशित होने लगीं और काव्य - मर्मज्ञों का ध्यान इस नवीन प्रांजल प्रतिभा की ओर उत्सुकता से आकर्षित होने लगा. इंटर की विद्यार्थिनी के रूप में ही आपको आश्चर्य जनक ख्याति मिल चुकी थी. सन २३-२४ में श्री इलाचंद्र जोशी को अपने अल्पकालीन चाँद के सहकारी संपादक के रूप में महादेवी वर्मा के नाम से प्रकाशन के लिए  आई हुई कविता देखकर आश्चर्य के साथ जो संदेह हुआ था उसका वर्णन उन्होंने 'संगम' के महादेवी अंक के अपने लेख 'जीवन - विजयिनी महादेवी' में रोचकता और विशदता के साथ किया है.

कालेज की विद्यार्थिनियों को नाटक खेलने के लिए आपने एक काव्य रूपक की भी रचना की थी, जिसमे वसंत, फूल भ्रमर, तितली तथा वायु को पात्र बनाया गया था.  न जाने क्यों, आपने इस विद्या को प्रश्रय नही दिया. कालेज की सभी छात्राएं और अध्यापिकाएं समान रूप से आपको सम्मान और स्नेह देती थीं. श्री सुभद्राकुमारी से प्रगाढ़ मैत्री की नींव भी यहीं पड़ी. कविवर पंतजी को हिन्दू - बोर्डिंग हाउस के कवि सम्मलेन में उसी समय पहली बार देखा. उनके बड़े बाल और वेशभूषा विन्यास के कारण उन्हें लड़की समझकर पुरुषों के बीच बैठने की ढिठाई पर मन ही मन रुष्ट भी हुई.



बी. ए. पास होते ही गौने का प्रश्न उपस्थित हुआ. इस बार इन्होने साफ़ शब्दों में दृड़तापूर्वक, किन्तु सहज भाव से जिज्जी को बता दिया कि वे विवाह को किसी भी स्थिति में स्वीकार करने को तैयार नहीं और तब गौने की चर्चा ही व्यर्थ है.  जिज्जी को यह निश्चय सुनकर स्वभावतः अत्यंत पीड़ा हुई और उन्होंने बहुत तरह से समझाया- बुझाया भी, पर महादेवी जी अपने निश्चय पर अटल रहीं. बाबूजी को भी बहुत दुख हुआ और उन्होंने इन्हें एक लम्बे पत्र  में अबोध बालिका के प्रति विवाह रूप में किये गए अन्याय की मुक्त कंठ से क्षमा मांगते हुए भी लिखा कि यदि इनकी इच्छा दूसरा विवाह करने की है तो वे इनके साथ धर्म - परिवर्तन करने को भी तैयार हैं. इन्होने स्पष्ट कर दिया कि दूसरे विवाह की बात नहीं, वे विवाह करना ही नहीं चाहती. यदि पिछले कृत्य की ग्लानि छोड़कर उनके वर्तमान निश्चय को सहर्ष स्वीकार कर लिया जाय तो दोनों ही पक्ष पिछले पापों से मुक्त हो जायेंगे.  बाबूजी ने इसे स्वीकार कर लिया.  उसी समय से इस प्रसंग का अंत हो गया.

उन दिनों भारतीय नारी के लिए विवाह को इस प्रकार अस्वीकार कर देना कितना कठिन और विस्मयकारी था, कहने की बात नहीं.  बचपन से ही महादेवी जी का यह स्वभाव रहा है कि उन्होंने जो अपने जीवन विकास के लिए उचित और उपयुक्त समझा सो किया, हठ और भीषण विद्रोह के साथ किया. संसार का कोई भी प्रलोभन या भय उन्हें अपने पथ से विमुख नहीं कर सका. 

                      घिरती रहे रात !
                      न पथ रुन्धतीं ये गहनतम शिलाएं,
                      न गति रोक पाती पिघल मिल दिशाएं ;
                                 चली मुक्त मैं ज्यों मलय कि मधुर बात !
                     न आंसू गिने औ' न कांटे संजोये,
                     न पग-चाप दिग्भ्रांत उच्छ्वास खोये;
                                 मुझे भेंटता हर पलक-पात में प्रात !

विवाहित जीवन अस्वीकार करने की बात को लेकर कतिय फ्रायड-भक्तों और भक्त्नियों ने, जिनका संयम और साधना पर विश्वास नहीं है, महादेवी जी के प्रति मनमाने अनुमान आरोपित करते हुए उनके व्यक्तित्व और कृतित्व में इसकी प्रतिक्रिया का प्रतिफलन देखने की हास्यास्पद चेष्टा की है. वैवाहिक जीवन अस्वीकार करने के मूल में भारतीय नारी की युग- युगों से चली आती हुई वह दयनीय दशा, जिसका उल्लेख अपने सामाजिक निबंधों में महादेवीजी ने बारम्बार आक्रोश और क्षोभपूर्ण शब्दों में किया है तथा उनकी सहज वैराग्य भावना भी हो सकती है.  इस सहज स्वाभाविक सत्य को न  स्वीकार कर सकने का मनोवैज्ञानिक कारण हमें महादेवीजी में न खोजकर अपने में ही खोजना चाहिए. बौद्ध भिक्षुणी बनने की उनकी इच्छा से भी विवाह की अस्वीकृति का समर्थन होता है. इसके अतिरिक्त पुरुष-निरपेक्ष नारी-व्यक्तित्व की स्थापना का उनका जीवन व्यापी उद्देश्य भी इस प्रवृति में सक्रिय रहा हो तो कुछ आश्चर्य नहीं.  अनुमान से अधिक महत्त्व स्वयं उनके स्पष्ट कथन को ना देकर हम अपने को ही लांछित करते हैं, इसमें संदेह नहीं. उनके इस कथन पर ध्यान दीजिये - 
           " मेरे जीवन ने वही ग्रहण किया जो उसके अनुकूल था ! कविता सबसे बड़ा परिग्रह है, क्यूंकि वह विश्व मात्र के प्रति स्नेह की स्वीकृति है ! "

परिग्रही जीवन को अस्वीकार करके इन्होने अपना कोई सीमित परिवार नहीं बनाया, पर इनका जैसा विशाल परिवार - पोषण सबके वश की बात नहीं. गाय, हिरन, कुत्ते, बिल्लियाँ, गिलहरी, खरगोश, मोर, कबूतर तो इनके चिरसंगी हैं ही, लता-पादप-पुष्प आदि तक इनकी पारिवारिक ममता के समान अधिकारी हैं. आगंतुक और यदि वह अतिथि हो, तो उसके स्वागत की इनकी तन्मयता देखने लायक होती है. विशाल साहित्यिक परिवार में से प्रयाग आनेवाले साहित्यिकों के लिए तो इनका निवास घर ही सा है, पर आसहित्यिकों के लिए भी उनका द्वार मुक्त रहता है. 

गुप्त जी ने ठीक ही कहा था -
        
         "मेरी प्रयाग-यात्रा केवल संगम स्नान से पूरी नहीं होती, उसको सर्वथा सार्थक बनाने के लिए मुझे सरस्वती (महादेवी) के दर्शनों के लिए प्रयाग महिला विद्यापीठ जाना पड़ता है ! संगम में कुछ फूल-अक्षत भी चढ़ाना पड़ता है, पर सरस्वती के मंदिर में कुछ प्रसाद मिलता है. साहित्यकार संसद हिंदी के लिए उन्हीं का प्रसाद है. "

क्रमशः 

चाहता है यह पागल प्यार 

             चाहता है यह पागल प्यार,
             अनोखा एक नया संसार !

कलियों के उच्छ्वास शून्य में ताने एक वितान,
तुहिन-कणों पर मृदु कम्पन से सेज बिछा दे गान,
            जहाँ सपने हों पहरेदार;
            अनोखा एक नया संसार !

करते हों आलोक जहाँ बुझ-बुझ कर कोमल प्राण,
जलने में विश्राम जहाँ मिटने में हो निर्वाण,
           वेदना मधु-मदिरा की धार;
           अनोखा एक नया संसार !

मिल जाएँ उस पर क्षितिज के सीमा सीमाहीन,
गर्वीले नक्षत्र धरा पर लोटें हो कर दीं,
           उदधि हो नभ का शयनगार;
          अनोखा एक नया संसार !

जीवन की अनुभूति तुला पर अरमानों से तोल,
यह अबोध मन मूक व्यथा से ले पागलपन मोल,
           करें दृग आंसू का व्यापार;
           अनोखा एक नया संसार !

13 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बढ़िया आलेख... सारगर्भित ..जानकारी परक...

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  2. बात फ्रायडवादियों की नहीं हैं…अपने नजरिए से समझने की है…छायावाद तो लगता ही है खुद को ठगने का तरीका, बच्चन के शब्दों में…

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  3. मुझे जो सबसे बड़ी बात लगती है वह यह है कि महादेवी ने हिन्दी गद्य और पद्य दोनों को ही एक नयी भावभूमि भाषा शिल्प सौन्दर्य का संस्कार दिया ....बाकी तो खुद का जीवन जीने का उनका अपना अधिकार था ...

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  4. संन्यासी भी,सामान्य दाम्पत्य का निर्वाह करते हुए वैराग्य को प्राप्त करना सहज भले बताते हों,मगर वे स्वयं अविवाहित रहकर ही उस लक्ष्य तक पहुंचे हैं। विशिष्ट को सामान्य का त्याग करना ही पड़ता है।

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  5. इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए बधाई स्वीकार करें.

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  6. जानकारीपरक सारगर्भित आलेख्…………आभार्।

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  7. सार्थक जानकारियों से भरी हुई बेहतरीन पस्तुति ..

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  8. वे सचमुच महा-देवी थीं.. गद्य और पद्य दोनों विधाओं पर समान प्रभाव!! बहुत अच्छी प्रस्तुति!!

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