अंक-11
हिन्दी के पाणिनि - आचार्य किशोरीदास बाजपेयी
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में चर्चा की गयी थी कि 1942 का आन्दोलन छिड़ने के कारण आचार्य जी भैणी (पंजाब) में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन स्थगित करने का हिन्दी साहित्य सम्मेलन को एक पत्र लिखकर 13 अगस्त को हरिद्वार के लिए रवाना हो गए। जब 14 अगस्त को सवेरे हरिद्वार पहुँचे, तो पूरी तरह आन्दोलन की आग भड़क चुकी थी। गोलियां चलीं, जिसमें ऋषिकुल आयुर्वेदिक कालेज का एक छात्र मारा गया। आचार्य जी लिखते हैं कि दो दिनों तक हरिद्वार, कलखल और ज्वालापुर में स्वराज का अर्थ अंग्रेजी राज की समाप्ति हो गया था। डाकखाने जला दिए गये थे। चारों ओर सन्नाटा फैल चुका था। पर फौज बुला ली गयी, शासन का भय पैदा किया गया, अनेक गिरफ्तारियाँ हुई। आचार्य जी भी गिरफ्तार हुए।
प्रशासन आचार्य जी को अहिंसावादी कांग्रेसी नहीं मानता था। इन्हें तिलक तथा सुभाष चन्द्र बोस का समर्थक माना जाता था। अतएव इनकी गिरफ्तारी के लिए पुलिस भी उसी प्रकार की तैयारी के साथ पहुँची थी। अतएव तलाशी हुई, पर कुछ मिला नहीं। लेकिन इनकी पत्नी, पुत्र मधुसूदन और बेटी सावित्री, तीनों काफी घबरा गए थे, यह सोचकर कि पता नहीं क्या हो। सँभालने के लिए इनके पास कुछ था नहीं, अतएव पत्नी से इन्होंने कहा कि मायके चली जाना। आचार्य जी आश्वस्त थे कि उनका कुछ नहीं होगा। क्योंकि 14 अगस्त को उनकी उपस्थिति हरिद्वार में सिद्ध करना कठिन था। चौदह को उनके भैणी में होने के प्रमाण थे, क्योंकि जो चिट्ठी सम्मेलन को भेजी गयी थी, 13 अगस्त को डाकखाना बन्द होने के कारण उस पर 14 अगस्त डाल दी गयी थी। हाँ, उसे पोस्ट 14 अगस्त को दूसरे द्वारा किया गया था।
आचार्य जी को को गिरफ्तार कर सीधे जेल भेज दिया गया। इन्होंने समझा कि हवालात में बन्द नहीं किया, मतलब कि केस नहीं चलेगा। पर ऐसा हुआ नहीं । चूँकि ये बाहर उपद्रव करने वाली भीड़ के साथ गिरफ्तार नहीं हुए थे, इनका मुकदमा अलग तरह से बना। किन्तु पुलिस कुछ सिद्ध न कर सकी। इनके ऊपर एक ही आरोप था कि ये कांग्रेस के डिक्टेटर थे, जिसे इन्होंने स्वीकार कर लिया। क्योंकि उसका लिखित प्रमाण था। अब आचार्य जी अपने छूटने की आशा छोड़ चुके थे। लेकिन उक्त अपराध के लिए मजिस्ट्रेट की दृष्टि में अर्थदण्ड ही पर्याप्त था। अब जुर्माने की धनराशि तय होनी थी। पुलिस इन्स्पेक्टर ने इनकी जो भी हैसियत बताई हो। उसने कहा कि इनके सामान बेचकर पचास रुपये तक वसूल हो जाएगा।
उनकी बातें अंग्रेजी में हो रही थीं। आचार्य जी की अंग्रेजी अच्छी न थी। वे लिखते है कि उनकी अंग्रेजी का स्तर कुलियों और तांगेवालों जैसा था। उन्होंने समझा कि वे लोग वेतन की बात कर रहे हैं। इसलिए इन्होंने कह दिया कि फिफ्टी नहीं सिक्सटी। क्योंकि 50 रुपये तक वेतन पाने वालों को जेल में ‘सी’ क्लास मिलता था और उससे ऊपर पाने वालों को ‘बी’ क्लास मिलता था। इनको लगा कि शायद वेतन कम करके इन्हें ‘सी’ क्लास की जेल में डालने का षडयन्त्र किया जा रहा है। इनकी बात सुनकर सभी उपस्थिति अधिकारी भौचक्के हो गए कि यह पहला व्यक्ति है जो अपने जुर्माने की धनराशि बढ़वाना चाहता है। जब आचार्य जी को समझाया गया, तो बोले तब तो ठीक है, एक पैसे भी वसूल न हो सकेगा।
जहाँ अदालत लगी थी, आचार्य जी की लड़का मधुसूदन भी वहीं था। आचार्य जी ने उससे कहा कि वह जाकर गाँधी आश्रम से एक तिरंगा लेकर अपने मकान पर फहरा दो। क्योंकि पहले वाला पुलिस उठा ले गयी थी। आचार्य जी ने लिखा है कि उस समय कनखल, हरिद्वार और ज्वालापुर में केवल एक ही झंडा उस समय लहराता था, जिसे लोग बड़े कौतूहल, भय और उत्साह से देखा करते थे।
इससे मुक्त होकर आचार्य जी फिर हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन पर विचार करने लगे, जो भैणी में न हो सका। जनता में चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। कहीं कोई इसकी जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं था। अतएव सम्मेलन की कार्य-समिति ने यह अधिवेशन प्रयाग में करने का निश्चय किया। केवल स्थायी-समिति की सहमति शेष थी। इसके लिए प्रयाग में स्थायी-समिति की बैठक बुलाई गई थी, जिसमें आचार्य जी भी भाग लेने प्रयाग पहुँचे थे। वहाँ वे प्रयाग विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्राध्यापक और गाँधी जी के परम भक्त पं. दयाशंकर दुबे के घर पर ठहरे। वे सम्मेलन के परीक्षा-मंत्री भी थे। वहीं पं. भगीरथ प्रसाद दीक्षित से मुलाकात हुई, जो आचार्य जी के रिस्तेदार भी थे और पुराने मित्र भी। उन्हीं के यहाँ श्री भगवान दास केला भी रहते थे।
भोजन के समय बातचीत में सम्मेलन के अधिवेशन पर चर्चा होने लगी, तो आचार्य जी ने कहा कि यह अच्छा नहीं लग रहा है कि सम्मेलन के अधिवेशन के लिए कोई पूछनेवाला नहीं है और इसे स्वयं इसका प्रबन्ध करना पड़ रहा है। प्रयाग में गरमी भी बहुत है। लोगों को परेशानी होगी। दीक्षित जी ने भी हामी भरी। तब दुबे जी ने कहा फिर अधिवेशन हरिद्वार में करो। दीक्षित जी ने भी पीठ ठोक दी। आचार्य जी भी मजाक-मजाक में सहमत हो गए। स्थाई समिति की बैठक में प्रस्ताव आया और हरिद्वार के पक्ष में एक मत अधिक पड़ा, जिससे हरिद्वार में अधिवेशन का होना तय हो गया।
आचार्य जी के मन में थोड़ी दुविधा थी कि हरिद्वार के अपने लोगों से पहले से इस विषय में बातचीत नहीं किया था। ऐसे समय में कोई साथ दे या न दे। पर इतना उनको विश्वास था कि झोली लेकर निकलेंगे, तो कनखल, हरिद्वार और ज्वालापुर में ऐसा कोई न था, जो दस-पाँच रुपये दान न दे। क्योंकि इनके ईमानदारी और सामाजिक कार्यों से लोग इतने प्रभावित थे कि लकड़ी बेचनेवाला गरीब मजदूर भी एक अठन्नी तो दे ही देता। लेकिन इसकी जरूरत न पड़ी। उनके एक विद्या-शिष्य महन्त शान्तानन्द ने अकेले सारा खर्च उठा लिया और हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन बड़े धूमधाम से हरिद्वार में सम्पन्न हुआ। आचार्य जी ने लिखा है कि इस यज्ञ में अपने साहस, धैर्य, बुद्धि और सहिष्णुता का प्रयोग जितना उन्होंने किया, उतना जीवन में कभी नहीं किया।
इस अंक में बस इतना ही।
बधाई ||
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति ||
झंडे के लिए आचार्य जी का प्रेम…
जवाब देंहटाएंबहुत सी जानकारियां मिली ..आभार
जवाब देंहटाएंलगता ही नहीं है कि किसी साहित्यकार का जीवन-चरित पढ़ रहे हैं... सचमुच एक बहुआयामी व्यक्तित्व से परिचय कराया है आपने!!
जवाब देंहटाएंप्रभावकारी प्रस्तुति के लिये आभार व बधाई।
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