प्रस्तुतकर्ता : मनोज कुमार
आज इस ब्लॉग पर प्रेरक प्रसंग पोस्ट करने का दिन है।
आज डॉ. हरिवंश राय बच्चन का जन्म दिन है।
सोचा क्यों न उनकी आत्मकथा “क्या भूलूं क्या याद करूँ” से कोई प्रसंग लूं जो प्रेरक भी हो और उनके प्रति श्रद्धांजलि भी। तो लीजिए उसी पुस्तक का एक अंश प्रस्तुत है ...
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मेरा जन्म 27 नवम्बर 1907 को हुआ। मेरा नाम हरिवंश राय रक्खा गया, घर पर मुझे बच्चन नाम से पुकारा जाता। हरिवंश नाम रखने का विशेष कारण था। मेरे से पहले के दो बच्चे अल्पायु में ही चल बसे थे। तब पंडित रामचरण शुक्ल ने प्रताप नारायण (पिता) को यह सलाह दी कि अब मेरी माता गर्भवती हों तब वे हरिवंश पुराण सुनें। घंटों पति-पत्नी गांठ जोड़कर परिवार के पुरोहित से हरिवंश पुराण की कथा सुनते, ‘पुत्रप्रद संतान गोपाल यंत्र’ की पूजा करते।
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मेरे होने और जीने के लिए मेरी माता ने और भी बहुत-से दाय-उपाय, टोटके-टामन आदि किए। मेरे जन्म के पूर्व मुहल्ले की किसी बड़ी-बूढ़ी ने उन्हें सलाह दी थी कि तुम्हारे लड़के नहीं जीते तो अब जब लड़का हो तो उसे किसी चमारिन-धमारिन के हाथ बेच देना और मन से उसे पराया समझकर पालना-पोसना। उन दिनों बच्चा जनाने के लिए हमारे यहां लछमिनियां चमारिन आती थी। मैं पैदा हुआ तो मेरी मां ने पांच पैसे में मुझे लछमिनियां चमारिन के हाथों बेच दिया और उनके बतासे मंगाकर खा लिए। कहते हैं, साल-भर पहले लछमिनियां का अपना एक मात्र लड़का कुछ महीने का होकर गुजर गया था और उसका दूध सूख गया था, पर जैसे ही उसने मुझे अपनी गोद में लिया उसकी छाती कहराई और उसने बारह दिन तक मुझे अपना दूध पिलाया। मैं उसे चम्मा कहता था, अपनी मां को अम्मा। वह मुझे अपनी मां से अधिक सुन्दर लगती थी। मुझे मोल लेने के बाद चम्मा के कोई संतान नहीं हुई। किसी रूप में यदि उसकी वत्सलता का कोई आधार हो सकता था तो एक मैं – उसका होकर भी कितना न उसका !
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चम्मा की मृत्यु मेरे लड़कपन में ही हो गई थी। उसने इच्छा प्रकट की कि अंत समय पर मेरे हाथों से ही उसके मुंह में तुलसी गंगाजल डाला जाए। दूसरे दिन चम्मा की अर्थी उठी तो किसी ने मुझे कमर से उठाकर मेरा कंधा उसकी अर्थी से छुला दिया। बचपन में चम्मा की झोपड़ी में खेलने-खाने और उसकी ममतामयी आंखों के नीचे तरह-तरह की शैतानी करने की धुंधली-धुंधली-सी स्मृति अब भी मेरे साथ है।
मुझे गर्व है कि मेरी तो एक मां चमारिन चम्मा थी। एक दिन नगर में आयोजित किसी प्रीतिभोज में मैंने अछूतों की पंगत में बैठकर कच्चा खाना खा लिया। मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। संतोष का अनुभव हुआ। पर मेरे संबंधियों और नातेदारों को यह खबर बड़ी नागवार गुज़री। उन्होंने व्यंग्य से कहा कि आखिर इसने चमारिन की छाती का दूध पिया था, उस कुसंस्कार का कुछ असर होना था। मेरे मन से बहुत पहले ही अछूतों को अछूत समझने की बात बिलकुल उठ गई थी। जब स्वतंत्र रूप से अपना घर हुआ तो अक्सर चमार ही मेरे खाना बनानेवाले रहे। मुझे आश्चर्य और क्रोध तो तब होता जब घर की कहारिन चमार के छुए बर्तनों को मांजने से इन्कार कर देती। मुझे लगता है कि मेरे पूर्वजों ने अछूतों का अपमान करके जो पाप किया था उसका यत्किंचित प्रायश्चित मैं कर रहा हूं। सामाजिक स्तर पर कोई सुधार हो, इसके पूर्व व्यक्ति-व्यक्ति को निर्भिकता और साहस के साथ आगे बढ़ना होगा।
इधर मैं सोचने लगा हूं कि अछूतों के साथ या उनके हाथ का खाना-पीना अथवा उनके लिए मन्दिरों का द्वार खोल देना केवल रूमानी औपचारिकताएं अथवा प्रदर्शन हैं। समाज में उनको अपना यथोचित स्थान तभी मिलेगा जब उनमें शिक्षा का व्यापक प्रचार हो और उनका आर्थिक स्तर ऊपर उठे। साथ ही जाति की श्रृंखला को ऊपर से नीचे तक टूटना नहीं तो ढीली होना होगा। जाति की जड़, अर्थहीन और हानिकारक रूढ़ियों से निम्नवर्ग के लोग उतने ही जकड़े हैं जितने उच्च वर्ग के लोग। एक छोटा-सा क़दम इस दिशा में यह उठाया जा सकता है कि लोग अपने नाम के साथ अपनी जाति का संकेत करना बन्द कर दें। वे अपने नाम के साथ अपनी जाति न जोड़ें – अपने को राम प्रसाद त्रिपाठी नहीं; केवल राम प्रसाद कहें।
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और अब मधुशाला से बच्चन जी के विचार ...
दुतकारा मस्जिद ने मुझको
कहकर है पीनेवाला,
ठुकराया ठाकुरद्वारे ने
देख हथेली पर प्याला,
कहां ठिकाना मिलता जग में
भला अभागे काफिर को?
शरणस्थल बनकर न मुझे यदि
अपना लेती मधुशाला।
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कभी नहीं सुन पड़ता ‘इसने,
हा, छू दी मेरी हाला’
कभी न कोई कहता, ‘उसने
जूठा कर डाला प्याला’;
सभी जाति के लोग यहां पर
साथ बैठकर पीते हैं;
सौ सुधारकों का करती है
काम अकेली मधुशाला।
Sansmaran ka bahut chuninda hissa pesh kiya hai aapne!
जवाब देंहटाएंअनमोल प्रस्तुति ...
जवाब देंहटाएंnice.........................nice..............
जवाब देंहटाएंप्रेरक प्रसंग के अन्तर्गत एक बेहतरीन पोस्ट ..आभार..
जवाब देंहटाएंबच्चन जी की आत्मकथा के चारों खंड बड़ी लगन से तब पढ़े थे ,जब पढ़ने से लगभग विरक्ति-सी हो चली थी !
जवाब देंहटाएंउन्हें पढ़ना हमेशा सुखद लगता है !
मनोज जी,
जवाब देंहटाएंएक अद्भुत प्रकरण है यह भी और ऐसे ही कितने प्रकरण हैं बच्च्चन जी की आत्मकथा में... हमारी पीढ़ी तक तो पुराने लोगों का चलन था, किन्तु हमारे बाद वाली पीढ़ी के नाम से हमने जातिसूचक उपनाम हटा दिया है!!
बच्चन जी के जन्मदिवस पर उनके जीवन से प्रस्तुत यह प्रसंग अनुकरणीय है!!
अच्छी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंप्रेरक प्रसंग ………बच्चन जी के जीवन के अद्भुत प्रकरण से रु-ब-रु करवाने के लिये आभार्।
जवाब देंहटाएंहरिवंश राय बच्चन जी के जन्मदिवस पर बहुत अच्छी पोस्ट ... सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंजाति की जड़, अर्थहीन और हानिकारक रूढ़ियों से निम्नवर्ग के लोग उतने ही जकड़े हैं जितने उच्च वर्ग के लोग।
जवाब देंहटाएंnice.
क्या भूलूं, क्या याद करूं मैं?
जवाब देंहटाएंअगणित उन्मादों के क्षण हैं,
अगणित अवसादों के क्षण हैं,
रजनी की सूनी की घडियों को किन-किन से आबाद करूं मैं!
क्या भूलूं, क्या याद करूं मैं!
याद सुखों की आसूं लाती,
दुख की, दिल भारी कर जाती,
दोष किसे दूं जब अपने से, अपने दिन बर्बाद करूं मैं!
क्या भूलूं, क्या याद करूं मैं!
दोनो करके पछताता हूं,
सोच नहीं, पर मैं पाता हूं,
सुधियों के बंधन से कैसे अपने को आबाद करूं मैं!
क्या भूलूं, क्या याद करूं मैं!
(हरिवंशराय बच्चन)
(आज हालावाद के प्रसिद्ध प्रवर्तक एव उमर खैयाम के रूबाईयों को आत्मसात करने वाले वाले “हरिंवंश राय बच्चन ” जी का जन्म दिन है । इनकी कविता से लेकर आत्म-कथा कहीं न कहीं हम जैसे पाठकवृंद को जीवन के साक्षात्कार क्षणों से परिचित करा जाती है । आपका यह पोस्ट बहुत प्रशंसनीय है । निवेदन है कि मेरे पोस्ट पर आकर अपनी प्रतिक्रिया देकर मुझे प्रोत्साहित करें । धन्यवाद ।
सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंवाह,इतनी भावपूर्ण व विचारपूर्ण प्रस्तुति के लिये बहुत-बहुत बधाई। वे मेरे प्रियतम कवि हैं। आज उनके जन्मदिवस पर उनकी मधुशाला सहित सम्पूर्ण कृतियो को नमन। इस पुण्य अवसर पर मैं अपना नमन अपनी एक पुरानी पोस्ट - हरिवंशराय बच्चन जी कविता – कवि की वासना द्वारा करता हूँ।
जवाब देंहटाएंसौ सुधारकों का करती है
जवाब देंहटाएंकाम अकेली मधुशाला।
जैसा व्यक्तित्व ऊंचा कवि का वैसे ही भाव रचना के .
अनमोल पोस्ट है ये सहेज रही हूँ.
आभार.
चाहे कितना हू सर पटको,
जवाब देंहटाएंपर इससे क्या कुछ होने को,
लिखा भाग्य में जो जिसके
बस वही मिलेगी मधुशाला।।
श्री बच्चन जी के जन्म-दिन पर उनकी आत्मकथा से चुना गाया अंश वास्तव में काफी प्रेरक है। साधुवाद।
शराब के बहाने होशवालों की बेहोशी तोड़ने की जुगत!
जवाब देंहटाएंप्रसंग तो बहुत अच्छा है। अब हमारे यहाँ नाम में जाति सू्चक शब्द दो बचपन से लगा हुआ है। मित्रों-साथियों से कहता था कि मिश्रा। मिश्राजी आदि न कहा करें लेकिन उच्च विद्यालय के समय से ही शिक्षकों ने नाम कम लिया और जाति सूचक शब्द से सब जानने लगे। समस्या समाज में भी कम कहाँ है?…फिर भी यह एक अच्छी कोशिश होगी। लेकिन उनको भी तो ध्यान देना होगा जो बाबा जी, बाबा, पंडी जी, पंडित जी, बाबू साहब, राय जी, लाला जी कहते फिरते हैं…कुछ को तो हम भी कहते हैं क्योंकि बचपन से सुनते हैं और उसी सम्बोधन से उनको जाना जाता है।
जवाब देंहटाएंक्या भूलूं क्या याद करूं, पूर्व में पढ़ी गयी थी लेकिन उनकी चमारन माँ का वृतान्त आज नवीन ही लगा। बहुत अच्छा संस्मरण।
जवाब देंहटाएंमधुशाला की बात ही कुछ और है
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंऐसे प्रसंगों को बार बार याद किए जाने की जरूरत है। मैंने अपने नाम से जाति सूचक शब्द को लगभग 30 साल पहले विदा कर दिया था। और बच्चे तो सामान्यत: अपने पहले नाम का ही उपयोग करते हैं।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंयह प्रसंग मुझे भी प्रिय है बच्चन जी की आत्मकथा में !!!
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