कबीरदास की रचनाएं
(2)
एक अचंभा देख्या रे भाई।
समंदरि लागि आगि, नदियां जल कोइला भई।
देखि कबीरा जागि, मछी रूखां चढ़ि गई॥
आकासे मुखि औंधा कूवा, पाताले पनिहारि।
ताका पाणी को हंसा पीवै, बिरला आदि विचारि॥
एक अचंभा देख्या रे भाई।
ठाढ़ा स्यंघ चरावै गाई॥ टेक॥
पहले पूत पछैं भई माइ। चेला कै गुर लागै पाइ।
जल को मछली तरवरि ब्याई। पकड़ि बिलाई मुरगै खाई।
बैलहि डारि गूनि घरि आई। कूता कू लै गई बिलाई।
तलि करि साषा ऊपरि करि मूल। बहुत भांति जड़ लागे फूल।
कहै कबीर या पद को बूझै। ताकू तीन्यू त्रिभुवन सूझै॥
कबीर साहब की अनमोल रचना.. आज कबीर की दूसरी प्रस्तुति देखने को मिली दिन भर में..
जवाब देंहटाएंसादर आभार....
जवाब देंहटाएंएक अच्छी और गहन रचना. की प्रस्तुति के लिए धन्यवाद । मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति,यदि हो सके तो कृपया हिंदी अर्थ भी उल्लेखित कर दें जिससे जो नहीं समझ पायें उनके लिए सुविधा हो व वे भी ज्ञानवर्धन कर सकें ।
जवाब देंहटाएंमेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है,कृपया अपने महत्त्वपूर्ण विचारों से अवगत कराएँ ।
http://poetry-kavita.blogspot.com/2011/11/blog-post_06.html
बहुत सुन्दर प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंअच्छी प्रस्तुति !
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंइसका अर्थ कृपया अस्पस्ट करे
जवाब देंहटाएंMujhe eska prasang vyakhya btaiye please
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