मैं सजग चिर साधना ले!
महादेवी जी के जीवन वृतांत का अगला चरण आरम्भ करने से पहले सभी सुधी पाठकों को अनामिका का नमन.
पिछले लेखों में महादेवी जी के बचपन के रंगों का समेटते हुए हमने उनकी वय के उस अध्याय को भी जाना जहाँ महादेवी जी ने अपने बाबू जी को विवाह ना करने का अटल निर्णय सुना दिया. इस प्रकार अपने परिग्राही जीवन को अस्वीकार कर महादेवी जी ने साहित्य के प्रशस्त पथ पर कदम रखा . जब उनकी काव्य प्रवृति उनकी मूलधारा की ओर पूर्ण रूप से उन्मुख हो गयी तो ...... यहाँ एक बार फिर महादेवी जी के शब्दों को दोहराना चाहूंगी ......
कहना नहीं होगा कि 'इस दिशा में मेरे मन को वही विश्राम मिला जो पक्षी शावक को कई बार गिर-उठकर अपने पंखों के संभाल लेने पर मिलता होगा.'
'नीरजा' इनके काव्य - संचरण का तीसरा सोपान है. इसमें अनुभूति के उत्कर्ष और कलात्मक मनोरमता के साथ हिंदी गीति-काव्य अपने चरम विकास की भूमिका पर पतिष्ठित हो जाता है. गीतों की दृष्टि से 'नीरजा' हिंदी की श्रेष्ठतम रचना है. छायावाद के दुर्वासा आलोचक आचार्य शुक्ल को भी इनके गीतों की सफलता को अनन्य मानना पड़ा था. 'नीरजा' में चिंतन और अनुभूति, भाव और अभिव्यक्ति तथा गीत और संगीत का बहुत ही उत्कृष्ट समन्वय पाया जाता है. 'रश्मि' की किरण-चेतना का आरोहण-क्रम 'नीरजा' में समात्मभाव के उस शिखर पर पहुँच जाता है, जो इनके काव्य की प्रतिष्ठा भूमि और आध्यात्मिक उन्मेष का प्रतीक है. आत्मभाव - 'सोअहं', समात्मभाव - 'तत्वमसि' तथा समात्म्भाव - 'सर्व खल्विदं ब्रह्मा' की स्थितियाँ 'नीरजा' में समाहित हैं. जीवन निष्ठा, आध्यात्मिक आस्था और व्यापक सौन्दर्य बोध के माध्यम से महादेवी जी ने 'नीरजा' के गीतों में जिस समात्मभाव की रहस्यात्मक अनुभूति को अभिव्यक्त किया है, वह कलात्मक रूप से छायावाद और भावात्मक रूप से रहस्यकाव्य का प्रतिनिधित्व करने में सहज ही सफल और सार्थक है -
मुस्काता संकेत भरा नभ
अली क्या प्रिय आने वाले हैं ?
सघन वेदना के तम में सुधी जाती सुख सोने के कण भर,
सुरधनु नव रचतीं निश्वासें स्मित का इन भीगे अधरों पर;
आज आंसुओं के कोशों पर स्वप्न बने पहरे वाले हैं !
नयन श्रवणमय श्रवण नयनमय आज हो रही कैसी उलझन ?
रोम-रोम में होता री सखि एक नया उर का सा स्पंदन ,
पुलकों से भर फूल बन गए जितने प्राणों के छाले हैं.
आंतरिक और बाह्य संसार में सभी जगह आत्ममिलन के संकेत मिल रहे हैं. वेदना के अंधकार में स्मृति प्रकाश भर रही है. भीगे होंठों पर निःश्वासें स्मित का इन्द्रधनुष बना जाती हैं. आंसुओं के कोष पर सपनों का पहरा लग गया है. नेत्र और कान एक से हो गए हैं - प्रिय को देखने और उसकी बातें सुनने की समान आकुलता है. रोम-रोम में ह्रदय की उत्सुकता धड़क रही है. प्राणों के सारे दुख पुलक के कारण फूल की तरह उत्फुल्ल हो उठे हैं. 'नीरजा' की यही विशेषता है. वास्तव में 'नीरजा' जैसा कलापक्ष और भावपक्ष का समन्वय अन्यत्र दुर्लभ है.
इनकी चौथी काव्य कृति 'सांध्यगीत' है . 'नीरजा' के भाव-विस्तार के साथ इस कृति की अनुभूत तन्मयता अधिक सघन और व्यापक हो गयी है. विरह के अभिशाप को इन्होने वरदान के रूप में रूपांतरित कर लिया है. उनका भाव-पथ निश्चित हो चुका है और कवियित्री ने अपनी निश्चित दिशा खोज ली है. सापेक्षताओं से ऊपर उठने के कारण वे इतनी निर्द्वन्द्व हो गयी हैं कि उनके लिए और तो और जीवन मृत्यु का पार्थक्य भी मिट गया.
चाँदनी मेरे अमा का भेंटकर अभिषेक करती,
मृत्यु जीवन के पुलिन दो आज जागृति एक करती,
हो गया अब दूत प्रिय का प्राण का सन्देश - स्पंदन !
सजनी मैंने स्वर्ण पिंजर में प्रलय का वात पाला,
आज पुंजीभूत तम को कर बना डाला उजाला,
तूल से उर में समाकर हो रही नित ज्वाल चन्दन !
अस्तु अब उनके लिए -
'विरह की घड़ियाँ हुई अली मधुर मधु की यामिनी सी '
वस्तुतः समन्वय, सामंजस्य और सापेक्षताओं से ऊपर उठने का भावयोग 'सांध्यगीत' की चरम उपलब्धि है. इस गीत की ध्वनि से इस स्थिति का स्पष्टीकरण हो जाता है -
मैं सजग चिर साधना ले !
सजग प्रहरी से निरंतर
जागे अली रोम निर्झर,
निमिष के बुदबुद मिटाकर,
एक रस है समय सागर !
हो गयी आराध्य्मय मैं विरह की आराधना ले !
विरह का युग आज दीखा मिलन के लघु पल सरीखा,
दुख सुख में कौन तीखा मैं न जानी औ' न सीखा,
मधुर मुझको हो गए सब मधुर प्रिय की भावना ले !
इस कृति के साथ कवयित्री का चित्रकत्री रूप भी सामने आया. इस प्रकार 'सांध्यगीत' काव्य, संगीत और चित्र के समन्वित स्वरुप से आलोकित है.
क्रमशः
महादेबी छायावादी काव्य-धारा की चिंतनशील लेखिका रही हैं । अतः इस काव्य-धारा की भाषा-शैली के सब गुण उनमें मिल जाते हैं । साहित्य के प्रति उनकी समर्पित अनुरागिता का प्रबल भाव इनकी कविताओं में देखने को मिलता है जहाँ वे अज्ञात प्रिय से न मिल पा लेने वाली वेदना को ही अपना निजी धन मान लेती हैं । उन्हे चिर विरह की विषम वेदना में कुंठित रहना ही इस बात का द्योतक है कि कहीं न कहीं उनके अंतर्मन में एक द्वंध बैठा रहता है । जीवन में कुमारी रहने का निश्चय एवं तत्पश्चात पुनः प्रणय सूत्र में बध कर असमय बैधव्य ने उनके जीवन को आत्मलीन, शांत और एकाकी अवश्य बना दिया लेकिन इनका बहिर्मुखी व्यक्तित्व सदा परहित भाव के साथ जीवन पर्यंत समर्पित रहा । आपकी प्रस्तुति बेहद अच्छी लगी । सुधी साहित्य प्रेमियों को इन जैसे अनमोल साहित्यकारों को विस्मृत करना संभव नही है । आभार ।
जवाब देंहटाएंछायावादी काव्या की मुक्त कलकल निर्झरनी है महादेवी ...
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति ... महादेवी जी पर काफी कुछ पढने को मिला .
जवाब देंहटाएं...
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया जानकारी मिल रही है………आभार्।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर और रोचक जानकारी..
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्द्धक व संग्रहणीय.
जवाब देंहटाएंमहादेवी जी के बारे में इतनी गहन जानकारी पहले न थी। आपके द्वारा बहुत कुछ जानने को मिल रहा है।
जवाब देंहटाएंबढ़िया जानकारी
जवाब देंहटाएंGyan Darpan
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