आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री की कविताएं-6
ज़िंदगी की कहानी
ज़िंदगी की कहानी रही अनकही !
दिन गुज़रते रहे, साँस चलती रही !
अर्थ क्या ? शब्द ही अनमने रह गए,
कोष से जो खिंचे तो तने रह गए,
वेदना अश्रु-पानी बनी, बह गई,
धूप ढलती रही, छाँह छलती रही !
बाँसुरी जब बजी कल्पना-कुंज में
चाँदनी थरथराई तिमिर पुंज में
पूछिए मत कि तब प्राण का क्या हुआ,
आग बुझती रही, आग जलती रही !
जो जला सो जला, ख़ाक खोदे बला,
मन न कुंदन बना, तन तपा, तन गला,
कब झुका आसमाँ, कब रुका कारवाँ,
द्वंद्व चलता रहा पीर पलती रही !
बात ईमान की या कहो मान की
चाहता गान में मैं झलक प्राण की,
साज़ सजता नहीं, बीन बजती नहीं,
उँगलियाँ तार पर यों मचलती रहीं !
और तो और वह भी न अपना बना,
आँख मूंदे रहा, वह न सपना बना !
चाँद मदहोश प्याला लिए व्योम का,
रात ढलती रही, रात ढलती रही !
यह नहीं जानता मैं किनारा नहीं,
यह नहीं, थम गई वारिधारा कहीं !
जुस्तजू में किसी मौज की, सिंधु के-
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!!
जवाब देंहटाएंधूप ढलती रही, छाँह छलती रही !
जवाब देंहटाएंजिंदगी की धूप छाँव की कहानी कहती आचार्य जी की बेहतरीन कविता.
इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार!
जवाब देंहटाएंअर्थ क्या ? शब्द ही अनमने रह गए,
जवाब देंहटाएंकोष से जो खिंचे तो तने रह गए,
वेदना अश्रु-पानी बनी, बह गई,
बहुत सुन्दर रचना ..इसे यहाँ पढवाने के लिए आभार
द्वंद्व चलता रहा पीर पलती रही !
जवाब देंहटाएंअद्भुत रचना पढवाई.... धन्यवाद
शास्त्री जी की कविता अर्थ-गांभीर्य मुग्ध कर देता है !
जवाब देंहटाएं