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बुधवार, 11 जनवरी 2012

जुही की कली

निराला की कविता-6निराला

जुही की कली

विजन-वन-वल्लरी पर
सोती थी सुहाग-भरी--स्नेह-स्वप्न-मग्न--
अमल-कोमल-तनु तरुणी--जुही की कली,
दृग बन्द किये, शिथिल--पत्रांक में,
वासंती निशा थी;
विरह-विधुर-प्रिया-संग छोड़
किसी दूर देश में था पवन
जिसे कहते हैं मलयानिल।
आई याद बिछुड़न से मिलन की वह मधुर बात,
आई याद चाँदनी की धुली हुई आधी रात,
आई याद कांता की कमनीय गात,
फिर क्या ? पवन
उपवन-सर-सरित गहन -गिरि-कानन
कुंज-लता-पुंजों को पार कर
पहुँचा जहाँ उसने की केलि
कली खिली साथ।
सोती थी,
जाने कहो कैसे प्रिय-आगमन वह ?
नायक ने चूमे कपोल,
डोल उठी वल्लरी की लड़ी जैसे हिंडोल।
इस पर भी जागी नहीं,
चूक-क्षमा माँगी नहीं,
निद्रालस बंकिम विशाल नेत्र मूँदे रही--
किंवा मतवाली थी यौवन की मदिरा पिए,
कौन कहे ?
निर्दय उस नायक ने
निपट निठुराई की
कि झोंकों की झाड़ियों से
सुन्दर सुकुमार देह सारी झकझोर डाली,
मसल दिये गोरे कपोल गोल;
चौंक पड़ी युवती--
चकित चितवन निज चारों ओर फेर,
हेर प्यारे को सेज-पास,
नम्र मुख हँसी-खिली,
खेल रंग, प्यारे संग।

13 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत दिनों के बाद इसे पढा.... वाकई कितनी आसानी से कितना कुछ कह दिया है न..

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  2. उत्तर
    1. आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति

      शुक्रवारीय चर्चा मंच पर

      charchamanch.blogspot.com

      हटाएं
  3. निराला की जीवनी पढ़ रहा हूँ .उनकी चर्चित रचना पढवाने का आभार !

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  4. सटीक और सार्थक प्रस्तुति!
    इस रचना को तो निराला जयन्ती
    बसन्त पंचमी पर प्रकाशित होना चाहिए था!

    जवाब देंहटाएं
  5. Nirala ji ki itni uttam kriti se hamara prichay karane ke liye bahut bahut dhnyawad

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  6. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  7. निरालाजी की तो हर रचना मुझे प्रभावित करती है .....पढने का अवसर देने के लिए आभार

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