आदरणीय पाठकों को अनामिका का प्रणाम ! पिछले छः अंकों में आपने कथासरित्सागर से शिव-पार्वती जी की कथा, वररुचि की कथा पाटलिपुत्र (पटना)नगर की कथा, उपकोषा की बुद्धिमत्ता और योगनंद की कथा पढ़ी.
पिछले अंक में वररुचि शास्त्र में प्रवीण होने के बाद अपने गुरु उपाध्याय वर्ष से प्रार्थना करते हैं कि वे गुरु दक्षिणा के लिए निर्देश करें. उपाध्याय वर्ष गुरु दक्षिणा में एक करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ मांगते हैं. वररुचि एक करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ लेने के लिए राजा नन्द के पास पहुँचते हैं जहाँ राजा नन्द की मृत्यु हो चुकी है. इन्द्रदत्त योगसिद्धि से परकाय प्रवेश की विद्या द्वारा मृत राजा के देह में प्रवेश करता है, और वररुचि याचक बन कर एक करोड़ स्वर्णमुद्राएँ प्राप्त करता है. इधर अपार लक्ष्मी के मद ने पूर्वनंद के देह में रहते इन्द्रदत्त (योगनंद) को बावला बना दिया. योगनंद के मन में वररुचि के लिए मन में मिथ्या शंका घर कर जाती है और वो अपने मंत्री शकटार को एकांत में बुला मंत्री वररुचि को समाप्त करने का आदेश देता है.शकटार बुद्धिमान और ब्राह्मण वररुचि की हत्या कराना उचित नहीं समझता और उसे छिपा देता है. एक बार राजा योगनंद विपत्ति में पड़ जाता है तो उसे उस समय को उचित अवसर जान शकटार वररुचि के जीवित होने का रहस्य खोलता है और वररुचि योगनंद की विपत्ति का समाधान करता है तब योगनंद खुश होकर वररुचि का बड़ा सम्मान करता है और फिर से मंत्री पद पर कार्य करने का अनुरोध करता है. वररुचि उसके दान-सम्मान की उपेक्षा कर के चल दिया.
अब आगे...
योगनंद की कथा
घर पहुंचा तो मुझे देख कर सब रोने लगे . बिलखते हुए मेरे श्वसुर उपवर्ष ने बताया कि राजा के द्वारा मुझे मृत्युदंड देने का समाचार सुन कर उपकोषा ने उसी समय आत्महत्या कर ली थी. फिर मेरी माता का हृदय भी शोक से फट गया.
पत्नी और माता दोनों के ऐसे दारुण निधन का समाचार सुन कर मैं कटे वृक्ष की भांति धरती पर गिर कर मूर्छित हो गया. चेतना लौटी तो मैं पागलों की तरह प्रलाप करने लगा.
आचार्य वर्ष को यह सब पता चला और वे तुरंत आये, और मुझे ढाढस बंधाने लगे. उसके पश्चात मेरा जीवन ही बदल गया. सारा संसार अनित्य प्रतीत होने लगा. मैंने जगत के सारे बंधन तोड़ दिए और तप करने के लिए तपोवन चला गया.
तपोवन में रहते -रहते बहुत दिन बीत गए. एक बार अयोध्या से एक ब्राह्मण तपोवन में आया, तो मैंने उससे योगनंद राजा का हाल पूछा. ब्राह्मण ने कहा - शकटार तो यही चाहता था कि तुम फिर से मंत्री का पद स्वीकार न करो और उसे राजा से बदला लेने का अवसर मिल जाए. तुम्हारे पाटलिपुत्र छोड़ कर चले जाने के कुछ समय पश्चात शकटार की चाणक्य नामक ब्राह्मण से भेंट हो गयी. पहली बार जब वह शकटार को मिला, तो वह धरती खोद रहा था. शकटार के पूछने पर उसने बताया कि कुंशों ने चुभ कर मेरे पाँव में चोट पहुंचाई है, इसलिए इन्हें समूल उखाड़ रहा हूँ.
शकटार ने उससे परिचय प्राप्त किया, अपना परिचय उसे दिया और फिर उसे राजा नन्द के प्रसाद में त्रयोदशी की तिथि को श्राद्ध में भोजन करने का निमंत्रण दे दिया. उसे यह वचन भी दिया कि भोजन की दक्षिणा में एक लाख सोने की मोहरें दी जाएँगी, और चाणक्य को ही सर्वोच्च आसन दिया जाएगा.
श्राद्ध का दिन आया. चाणक्य भोजन करने वाले ब्राह्मणों में सर्वोच्च स्थान पर बैठ गया. पर सुबंधु नामक ब्राह्मण अपने लिए यह स्थान चाहता था. शकटार ने दोनों ब्राह्मणों के विवाद की बात जा कर राजा नन्द को बताई. नन्द ने सुबंधु को सर्वोच्च स्थान पर बिठाने का आदेश दिया. शकटार चाणक्य के पास आया और डरते डरते बोला - मेरा कोई अपराध नहीं है - यह कह कर राजाज्ञा की बात चाणक्य को उसने बताई.
सुन कर चाणक्य ने क्रोध से जलते हुए अपनी शिखा खोल कर सात दिन में राजा नन्द का नाश करने की प्रतिज्ञा की.
प्रतिज्ञा कर के चाणक्य वहां से चल पड़ा. शकटार ने गुप्त रूप से उसे अपने घर में रख लिया. फिर तो शकटार की दी हुई सामग्री से वह ब्राह्मण एकांत में कृत्य साधने लगा. उस कृत्या के प्रभाव से राजा नन्द दाह ज्वर से सातवें दिन मर गया. शकटार ने उसके पश्चात योगनंद के पुत्र हिरण्य गुप्त को भी मरवा दिया और पूर्वनंद के पुत्र चन्द्रगुप्त को राजा बना दिया. तत्पश्चात अपने दिवंगत सौ पुत्रों की स्मृति से दग्ध हृदय वाला वह शकटार भी अब चाणक्य को चन्द्रगुप्त का मंत्री बना कर वन में चला गया.
(आगे की कथा सुनाते हुए वररुचि ने काणभूति से कहा ) - हे काणभूते, उस ब्राह्मण के मुख से शकटार का सारा वृतांत सुन कर मैं और भी खिन्न हो उठा. उसके साथ ही मुझे अपने पूर्वजन्म का स्मरण भी हो गया और मैंने सोचा कि अब मुझे शापमुक्त हो कर शिवधाम पहुँचने का तुरंत जतन करना चाहिए. इसलिए मैं तुम्हें खोजता हुआ विन्ध्य वन में यहाँ आ पहुंचा और मैंने चोरी से छिप कर भगवान शिव के मुख से सुनी हुई बृहत्कथा तुम्हें सुनाई. अब मेरा शाप छूट गया है. मैं तो वास्तव में शिव का सेवक पुष्पदंत हूँ. हे काण भूते, तुम यहीं रह कर प्रतीक्षा करो. मेरा साथी माल्यवान जिसने गुणाढ्य के नाम से धरती पर जन्म लिया है, कुछ ही समय में तुम्हारे पास आएगा. उससे यह बृहत्कथा सुन कर तुम भी शाप मुक्त हो जाओगे.
यह कह कर वररुचि देह त्याग तथा मोक्ष पाने के लिए बद्रिकाश्रम चल पड़ा.
वररुचि की कथा यहीं समाप्त होती है.और अगले अंक में शिव जी के दूसरे गण और वररुचि (पुष्पदंत ) के साथी माल्यवान ( गुणाढ्य ) की कथा प्रस्तुत की जाएगी.....तब तक के लिए आज्ञा और नमस्कार!
चाणक्य की कथा को अजीब तरह से बताया गया है।
जवाब देंहटाएंBahut aanand aata hai aapko padhte hue!
हटाएंबहुत रोचक प्रस्तुति...चाणक्य और चंद्रगुप्त की कथा कुछ अलग सी लगी.
जवाब देंहटाएंबाद के रचनाकारों ने चाणक्य और चंद्रगुप्त की कथा से चमत्कार के तत्व दूर कर उसे ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत कर उसे यथार्थपरक बना दिया है .
जवाब देंहटाएंआपके पोस्ट पर इस प्रकार की जानकारी उन चीजों के बारे में ज्ञान कराते हैं जिससे आज तक मैं अनभिज्ञ रहा हूँ । सचमुच कुछ नया जानने का अवसर मिलता है । इस पोस्ट के लिए धन्ययद । मेरे पोस्ट पर आने के लिए एक दूसरा धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंएक रोचक कहानी ! चाणक्य की कहानी इस कथा से मेल नहीं खाती ! इसमें पौराणिकता है और चाणक्य की कथा में ऐतिहासिकता है ! लेकिन इस कहानी में भी रोचकता और उत्सुकता अपनी जगह बरकरार है !
हटाएंरोचक प्रस्तुति
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