जयशंकर प्रसाद
प्रसाद जी का जन्म एक समृद्ध परिवार में 30 जनवरी 1890 में हुआ था। इनके पिता देवीप्रसाद का व्यापार वैभव काशी, कलकत्ता आदि कई प्रमुख नगरों में फैला था। यह परिवार अपने विद्या प्रेम और दानवीरता के लिए विख्यात था। किशोरावस्था तक प्रसाद जी का लालन-पालन सामंती वातावरण में हुआ। किन्तु प्रसाद जी की 11 वर्ष की अवस्था में पिताजी का स्वर्गवास हो जाने से वह वैभव ह्रासोन्मुख बन गया। 14 वर्ष की अवस्था में माता जी की मृत्यु हो गई। पैत्रिक सम्पत्ति के विभाजन के कारण परिवार में फूट पड़ गई। न्यायालय में अभियोग पर अभियोग चलने लगे। चार वर्ष में लाखों रुपये व्यय हुए। अतः व्यवसाय बन्द हो गया। दुकानों पर ताले लग गए। बड़े भाई शम्भुदत्त जी यह सब झेल न पाए और 1906 में उनका भी निधन हो गया। प्रसाद जी के पूरे परिवार के भरण-पोषण का भार आ पड़ा। उनकी पत्नी का भी स्वर्गवास हो चुका था। 19 वर्ष की अवस्था में यानी 1909 उनका विवाह विंध्यवासिनी देवी के साथ हुआ। 10 वर्ष दांपत्य जीवन बिताने के बाद 1919 में विंध्यवासिनी देवी का निधन हो गया। प्रसाद जी का दूसरा विवाह 1920 में सरस्वती देवी के साथ हुआ। अगले वर्ष प्रसूति काल में पुत्र जन्म के अवसर पर मां-बेटा दोनों चल बसे। इस प्रकार परिवार में मृत्यु आघात को सहते हुए उनमें एक प्रकार का विराग का भाव आ गया था। वे दांपत्य जीवन में पड़ना नहीं चाहते थे। लेकिन भाभी के अनुरोध पर 35 वर्ष की अवस्था में कमला देवी से उनका विवाह हुआ। उन्हीं से एक मात्र संतान रत्नशंकर का जन्म हुआ।
उनकी पढ़ाई-लिखाई गोवर्धन सराय की पाठशाला में शुरु हुई थी। 2-3 वर्षों तक उनकी शिक्षा क्वींस कॉलेज में हुई थी। परंतु 1901 में पिता जी की मृत्यु और व्यवसाय की भारी जिम्मेदारी के कारण उनके अध्ययन की व्यवस्था घर में ही की गई। जब वे रचनात्मक शिखर पर थे और उनकी आयु सैंतालीस वर्ष की थी, तब वे तपेदिक के घातक रोग से पीड़ित हो गए। डॉक्टरों की सलाह अर इलाज के लिए सेनेटोरियम जाने की बजाय वहीं अपनी प्रिय काशी में प्राण त्यागने का निश्चय किया। 14 नवंबर 1937 को काशी में ही उनका देहावसान हो गया।
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