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सोमवार, 5 जुलाई 2010

साहित्य-सिद्धांत और समालोचना

साहित्य का मूल्यांकन करने वाले शास्त्र को साहित्यशास्त्र कहा जाता है। संस्कृत में इस शास्त्र को काव्यशास्त्र, अलंकार शास्त्र, काव्य मीमांसा, क्रियाकल्प आदि कहते हैं।

इस शास्त्र के अंतर्गत काव्य-सौंदर्य का परीक्षण कर आधारभूत सिद्धांत का प्रतिपादन किया जाता है। इन्हीं सिद्धांतों के आधार पर काव्य के विभिन्न अंगों का मूल्यांकन किया जाता है।

समग्र रूप में परखने को आलोचना या समालोचना कहते हैं। अतः हम  किसी भी रचना के मूल्यांकन को आलोचना कह सकते हैं। आलोचना कवि और पाठक के बीच की कड़ी है। कोई भी रचना अच्छी है या बुरी यह निर्णय कर देना ही आलोचना नहीं है। अलोचना का उद्देश्य तो रचना का प्रत्येक दृष्टि से मूल्यांकन कर पाठक के समक्ष प्रस्तुत करना होता है। साथ ही पाठक की रुचि को भी परिष्कार करना इसका धर्म है, ताकि उसकी साहित्यिक समझ का विकास हो।

साहित्य-सिद्धांत और समालोचना में चोली-दामन का साथ है। साहित्य-शास्त्र के ज्ञान से आलोचक को व्यावहारिक दृष्टि मिलती है। कुछ मौलिक सिद्धांत जैसे रस, अलंकार, रीति, वक्रोक्ति, ध्वनि, अनुकरण सिद्धांत, विरेचन सिद्धांत आदि का ज्ञान कवि, पाठक और अलोचक, तीनों के लिए काफी उपयोगी है। यह सृजन के मूल्यांकन में काफी मदद पहुंचाता है। मूल्यांकन में वैयक्तिक रुचियों या प्राभावों की जगह नहीं होनी चाहिए।

भारतीय चिंतन की परंपरा के प्रमुख आचार्यों के बारे में इसी ब्लॉग पर आचार्य परशुराम राय जी के आलेख प्रस्तुत किए जा रहे हैं। कवि अपने विचार, अपनी भावनाएं शब्दों के मध्यम से व्यक्त करता है। शब्द और के सहभाव से काव्य का सृजन होता है।

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