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रविवार, 29 अगस्त 2010

कहानी ऐसे बनी-१ :: नयन गए कैलाश !

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कहानी ऐसे बनी

नयन गए कैलाश !

.करण समस्तीपुरी
हा... हा... हा.... ! राम-राम !! हा... हा....हा... हा.... !!!! अरे बाप रे बाप ... हा... हा... हा... हा... !!! आप भी सोच रहे होंगे कि करण समस्तीपुरी का दिमाग  ख़राब हो गया है क्या.... ? परंतु बात ही ऐसी है कि हंसी रुक ही नहीं रही है.... !!! आप भी सुन के ठहाका लगा ही दीजियेगा.... !
आज-कल तो जिसे देखो वही शहर-बाजार में ही रहने लगा है। आप लोग तो साहब-हुक्मरान हैं। परमानेंट शहरी। सावन-भादों क्या समझ मी आएगा। किन्तु चौमासा आते ही गाँव-घर में अभी भी हरियाली छा जाती है। झमाझम बरसते पानी में सिर पर बिचरा (धान का छोटा पौधा) और काँधे पर कुदाल लिए धानरोपनी के लिए जाते किसान और पीछे से भोजन लेकर चलती उनकी पत्नी.... ! हरे-पीले रंग-बिरंग के मेढक सब टर्र-टायं-टर्र-टायं कर के जो तान छोड़ता है कि आदमी तो आदमी पेड़-पौधों के तरु-शिखा तक नाचने लगते हैं। उस पर से यदि पुरबा हवा चल पड़ी तो, लहरिया लूटो हो राजा... !
चास-धानरोपनी हो गया। घर में लकड़ी-काठी समेटा गया फिर तो मौजा ही मौजा... ! क्या स्त्री और क्या पुरुष.... ! सब मिल-जुल कर जो छेड़-छाड़, हंसी-ठिठोली करते हैं कि मन आनंद से भीग जाता है। ताल-पचीसी , झूला-कजरी, चौमासा के तान मृदंग के थाप और बांसुरी के तान... वाह रे वाह.... समझिये कि पूरा गाँव ही वृन्दावन। नहीं कदम तो बगीचे में आम-कटहल, बरगद-पीपल जो भी मजबूत पेड़ मिल गया उसी में मोटी रस्सी टांग दिए और हो गए शुरू, "झूला लगे कदम के डारि, झूले कृष्ण-मुरारी ना.... !"
उस दिन आधी रात से ही आसमान फार के  मुसलाधार बारिश हो रही थी। हमारे टोले के सभी लोग बर्कुरबा और  खिलहा चौरी में तड़के ही हल-बैल छोड़ दिए थे। दोपहर तक धानरोपनी कर के आ गए। फिर घुघनी लाल की पत्नी और चम्पई बुआ घरक  पूरब वाले बगीचे में झूला का प्लान बनाई।  झिगुनिया और  नौरंगी लाल तुरत रस्सी-गद्दा लेकर बढ़ गए। एक बात तो मालूम ही होगा .... मौसम-बयार कैसा भी हो स्त्रियों को श्रृंगार से मन नहीं भरता। वो गीत में भी कहते हैं न....
"बरसे सावन के रस-झिसी पिया संग खेलब पचीसी ना...  !
मुख में पान,   नयन   में  काजल,   दांत में  मिसी       ना... !!"
बरसात में भी काजल-मेहँदी के बिना बात नहीं बनती।  बिना श्रृंगार के झूला कैसे झूलेगी। ऊपर से यहाँ तो टोला भर की स्त्रियों के बीच फैशन का कम्पेटीशन  होगा। किसकी मेहँदी सज रही थी, किसका पाउडर चमक रहा था। किसकी चुरी खनक रही थी और किसका लपेस्टिक लहक रहा था.... ।
बड़का कक्का के दालान पर टपकू भाई हरमुनिया टेर रहे थे। सुखाई ढोलकी पर ताल दे रहा था और हम भी वहीं मजीरा टुनटुना रहे थे। महिलाओं  का झुण्ड वहीं बन रहा था। पूरा टोला इकट्ठा हो जाए तो झूला झूलने जायेंगे। महिला मंडली के सरदार बड़की काकी ही तो थी। अरे रे रे .... कोई पनिहारन बन के... तो कोई मनिहारन बन के.... कोई गुज़री बन के तो कोई सिपाहन बन के.... सज-धज के आने लगी। किसी की सजावट में एक चुटकी कमी नहीं रहना चाहिए। बड़की काकी खुद से सब को परख रही थी और जो भी कमी उनको नज़र आता, अपने श्रृंगारदानी से भर देती थी। काकी की तीनो बहुएं भी साज-श्रृंगार में लगी हुई थी। समझिये कि काकी का दरवाज़ा नहीं हुआ कि वो शहर में क्या कहते हैं.... हाँ ! ब्यूटी-परलर हो गया।
सब  सज-धज के तैयार हो गयी तो काकी जोर से सबको पुकार के बोली, "सब तैयार हो गयी न.... अब चलो!"
"अरे बड़की भौजी ! अरे इतना जल्दी क्या है अरे.... ठहरिये-ठहरिये... ! हम भी आ रहे हैं।", उत्तर की तरफ़ से  छबीली मामी बोलती हुई धरफराते हुए चली आ रही थी।
"मार हरजाई..... तो मार..... छि..... !" काकी और छबीली मामी का हंसी-मजाक इलाका-फेमस है।
रसभरी ठिठोली वहाँ भी हो गया फिर काकी बोली, "ऐ छैल-छबीली ! अब चलो भी... ! नहीं तो अंधरिया में झूलते रहना.... !"
"अरे क्या हड़बड़ी मचा रखी हो.... कोई इन्तज़ार कर रहा है क्या....? जरा तैय्यार तो होने दो !"
मामी की बात पर महिलाएं मुँह में आँचल दबा के हंस पड़ीं थी। फिर मामी के केश में गजरा लगा के काकी बोली, "अब बाग़ में चलें हेमा मालिनजी....?"
मामी अपनी आँखों से मोटा चश्मा हटा के बोली, "अरे भौजी ! हमरे अधबयस रूप में नजर-गुजर नहीं लग जाएगा क्या.... ?" फिर एक आँख दबा के बोली थी, “जरा काजल तो लगाने दो !"
"धत्‌ तेरे के... ! 'नयन गए कैलाश  और कजरा के तलाश !!' आँख गया जहन्नुम में और ई मोटका चश्मा के भीतर काजल लगाएगी.... !!" हा....हा.... हा.... ! ही....ही....ही....ही..... !! ओ...होह्हो.....हो...हो.... !!! काकी जिस अदा से बाया हाथ नाचा के बोली थी कि नयी दुल्हने भी आँचल के नीचे से ही खिल्खिला के हंस पड़ीं। खें......खें....खें........ !!! हे....हे....हे....हे... !!!!" हम तो मजीरा पटक के हँसते-हँसते लोट-पोट हो गए। हो...हो...हो...हो.... बड़का कक्का भी पेट पकड़ कर हंस रहे थे। अरे बाप रे बाप..... "नयन गए कैलाश ! कजरा के तलाश !!" ही....ही...ही....ही.... ! आज वही दृश्य याद आ गया इसीलिए हँसते-हँसते बेदम हैं हम तो..... हें....हें...हें....हें.... !!
अरे महाराज ! उस के बाद तो यह कहावत ही बन गया, 'नयन गए कैलाश ! कजरा के तलाश !!' मतलब आधारविहीन उपयोगिता। जब आँख है ही नहीं तो काजल का क्या काम ? काजल लगाने से आँख की शोभा बढती है नाकि चश्मे की। सो जब आधार ही नहीं रहा तो उपयोगी साधन का उपयोग भी हम कहाँ करेंगे ? इसीलिए पहले आधार जरूरी है फिर अन्य संसाधन। समझे...? तो यही था आज का देसिल बयना। खाली ठहाके मत लगाइए। अर्थ भी समझते जाइए। नहीं तो बस, "नयन गए कैलाश ! कजरा के तलाश !!”

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बढ़िया तरीके से कहावत को वर्णित किया है ...देसिल बयना मजेदार रहा ..

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    बहुत सुन्दर प्रस्तुति, बहुत ही प्रभावशाली रूप में व्याख्या की है। आनंद आ गया ।

    बधाई।
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