काव्य प्रयोजन (भाग-2)संस्कृत के आचार्यों के विचार |
पिछले पोस्ट काव्य-सृजन का उद्देश्य में हमने यह चर्चा की थी कि सृजन कर्म आनंद का सृजन करे, ऐसा आनंद जो लोकमंगलकारी हो। आनंद और लोकमंगल के अंदर ही बाक़ी सभी प्रयोजन शामिल हैं। आइए अब इसी विषय पर संस्कृत के आचार्यों ने क्या कहा उसकी चर्चा करें। संस्कृत के रचनाकार अपने सृजन में मंगलाचरण लिखते थे। अपने सृजन के उद्देश्य को वे उसमें ही स्पष्ट कर देते थे। प्राचीन ग्रंथों के अध्ययन से पता चलता है कि आचार्यों ने जीवन के सभी पक्षों को काव्य सृजन का उद्देश्य माना है। उन्होंने जीवन में अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष, जिसे पुरुषार्थ चतुष्टय भी कहा जाता है, के सिद्धि की कामना की है। आज के सृजन में मोक्ष, निर्वाण, समाधि, आदि भले ही उतना स्थान न पाता हो, किन्तु संस्कृत के आचार्यों ने अपने देश काल के संदर्भ को ध्यान में रखते हुए यह कहा कि काव्य अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष का साधन है। आद्याचार्य भरतमुनि ने ‘नाट्यशास्त्र’ में कहा है, इस मत के अलावे काव्य में विलक्षणता, प्रीति एवं कीर्ति को भी स्थान मिलना चाहिए ऐसा भामह का ‘काव्यालंकार’ में कहना है। रुद्रट ने पुरुषार्थ चतुष्टय के साथ साथ काव्य में ‘आह्लाद’ को प्रधानता दी। कुन्तक ने भी ‘वक्रोक्ति जीवितम’ में कहा “काव्यबन्धोsभिजातानां हृदयाह्लादकारकः”। वामन तथा भोज के मतानुसार ‘यश’ और ‘आनंद’ ही काव्य का प्रयोजन होना चाहिए। आचार्य विश्वनाथ ने भी पुरुषार्थ चतुष्टय को ही काव्य का प्रयोजन माना है। आचार्य मम्मट ने भरत से लेकर कुन्तक तक सभी के विचारों को शामिल करते हुए ‘काव्यप्रकाश’ में कहा, मम्मट की इस सूचि में सबसे पहले आता है ‘यश’। उनका मानना था कि कविता का प्रयोजन कवि को यश दिलाना है। कालीदास से लेकर आज के कवियों तक देखें, तो हम पाते हैं कि सब “यशः प्रार्थी” होने की अभिलाषा रखते हैं। दूसरा प्रयोजन मम्मट ने ‘धन की प्राप्ति’ माना है। उस ज़माने के कवियों के आश्रयदाता, राजाओं के रूप में भी, हुआ करते थे। वे इनसे धन पाते थे। कई किस्से हमने सुन रखे है, अशर्फ़ी आदि देने-पाने के। तीसरा प्रयोजन, मम्मट के अनुसार ‘व्यवहार ज्ञान’ है। जीवन के व्यवहार ज्ञान से तुलसी, कबीर, रहीम, निराला, आदि का साहित्य भरा पड़ा है। सृजन हमें जीवन का व्यवहार ज्ञान देता है। मम्मट ने चौथे प्रयोजन के रूप में “शिवेतरक्षतये” को माना है। अर्थात् अमंगल का नाश होना। हम हनुमान चालीसा से लेकर जितने भी पाठ करते हैं, इसी उद्देश्य से ही तो करते हैं। पाचवां प्रयोजन मम्मट के अनुसार है, “सद्यः परनिर्वृतये”। अर्थात् दुख का नाश और आनंद की प्राप्ति। रस या आनंद प्राप्ति तो काव्य का काव्य का सर्वस्व काफ़ी बाद के दिनों तक माना जाता रहा। जयशंकर प्रसाद, रामचन्द्र शुक्ल और डॉ. नगेन्द्र भी रस को ही काव्य का सर्वस्व माना। ये तो जब नयी कविता की शुरुआत हुई तो रस सिद्धांत का खण्डन किया गया। और छठा उद्देश्य मम्मट के अनुसार “कान्तासम्मित उपदेश” है। अर्थात् कविता मीठा-मीठा बोलने वाली स्त्री की तरह लोकहितकारी उपदेश देने वाली होनी चाहिए। गोस्वामी तुलसी दास ने रावण की पत्नी मन्दोदरी का ज़िक्र करते हुए कई बार कान्ता शब्द का प्रयोग किया है। कान्ता वह स्त्री होती है जो पति का हित चाहने वाली होती है। मन्दोदरी रावण को बार-बार समझाती रही कि दूसरे की पत्नी और सम्पत्ति का हरण करने वाले का सर्वनाश हो जाता है, इसलिए सीता को लौटा दिया जाना चाहिए।
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Manoj ji....Ye post bhi pahli poston ki trah gyaanbhardhak rahi.
जवाब देंहटाएंPadhkar achha lagaa.
ये तो बेहद उपयोगी और ज्ञानवर्धक जानकारी उपलब्ध करवा दी………………………आभार्।
जवाब देंहटाएंसीखने योग्य विद्वतापूर्ण इस जानकारी के लिए साधुवाद.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी जानकारी ...अब उद्देश्यों से भी परिचय मिलेगा
जवाब देंहटाएंकमाल की जानकारी।
जवाब देंहटाएंअच्छी जानकारी.
जवाब देंहटाएंसुन्दर विचार....
जवाब देंहटाएं____________________
'पाखी की दुनिया' में अब सी-प्लेन में घूमने की तैयारी...
कविता हमें सभी क्षेत्रों के प्रति जागरूक बनाए, उसका यह उद्देश्य होना अनिवार्य है। ....
जवाब देंहटाएंसत्य कहा है .... कवि समाज का आईना jo होता है ...
अच्छा लिखा है .......
जवाब देंहटाएंकुछ लिखा है, शायद आपको पसंद आये --
(क्या आप को पता है की आपका अगला जन्म कहा होगा ?)
http://oshotheone.blogspot.com
ज्ञानवर्धक जानकारी प्रस्तुत करने के लिये धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंsarbh dhreshat bachan
जवाब देंहटाएंTHANK YOU SAAHAB
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