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रविवार, 10 अक्तूबर 2010

कहानी ऐसे बनी– 7 :: मरद उपजाए धान ! तो औरत बड़ी लच्छनमान !!

कहानी ऐसे बनी– 7

मरद उपजाए धान ! तो औरत बड़ी लच्छनमान !!

हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतिम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रही इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी।

रूपांतर :: मनोज कुमार

नमस्कार मित्रों! आज फिर रविवार है। आप कहाँ खोये हुए हैं... ? देखिये हम अपने गाँव से सीधे चले आ रहे हैं आपको 'कहानी कैसे बनी' सुनाने। वैसे तो अब गाँव-देहात में भी पहले वाली बात नहीं रही। लेकिन इस बार नए धान का मीठा चूरा खा कर आये हैं इसलिए मुंह मिठास से भरा है।

हां धान से याद आया... इस बार तो इन्द्र महराज ने धोखा दे दिया। बरसे ही नहीं मन से। खरीफ का तो इस साल हालत खराब हो ही गया साहब! पहले यही पैदावार इस कदर होती थी कि उपजे हुए धान की ढेर हर दरवाजे पर लगी रहती थी और लोग-बाग़ कहते थे, "अगहन के महीने में  तो चूहा-मूसा भी दो-दो बीवी रखते हैं।" लेकिन इस बार तो पलटन बाबू के दालान पर भी पिछली बार की तुलना में आधा ही पुआल था। धान का फसल मार खा गया। पूरे गाँव में सारे किसान सर पर हाथ रखे थे! लेकिन मंगरु के आँगन से सुबह चार बजे से झटा-झट धान झाड़ने के ताल पर पूरा टोला थिड़क उठता था। अब क्या बताएं भैया! हमें तो खुद ही बहुत आश्चर्य हुआ! जब से घुरण काका और काकी गुज़रे, उनका बेटा मंगरु.... उसे तो पूरा गाँव ही निखट्टू समझे लगा।

घुरण काका थोड़ी बहुत खेती कर के छः महीने का जुगाड़ लगा लेते थे। बांकी मजदूरी से चलता था। लेकिन उनके स्वर्ग सिधारते ही मंगरु तो खेत-खलिहान की तरफ़ नज़र फेर कर भी नहीं देखता... बस इधर-उधर घूम-फिर कर, किसी का बेगारी कर किसी तरह पेट भर लेता है अपना। अकेला पेट तो कुत्ते भी पाल लेते हैं, साहब! मंगरु की जिन्दगी वैसी ही समझ लीजिये। बरसों बीत गया... घर के छप्पर का के खर-पतवार हाथी-दांत की तरह दोनों तरफ से निकल गया है परन्तु उसने एक फूस भी नहीं उगाया है। उसका दिन तो वैसे ही पानी जैसा बह रहा था।

वह तो धन्य हो सुक्कन मामू का ! बीते लगन में मंगरु का भी ब्याह रचा दिए, चन्दनपट्टी की रूपवती से। जैसा नाम वैसा काम! रूपवती गुणवंती भी निकली।  मंगरुआ का घर उसने बसा ही दिया। बरसों से जहां चूल्हा नहीं जला, उसके टूटे छप्पर से सांझ-सबेरे दोनों बक़्त धुंआ उठने लगा। दोनों जून सिद्ध अन्न पेट में और घर में सुन्दर लुगाई देख कर मंगरु को भी अपना कर्त्तव्य-बोध हुआ।

इस बार हार नहीं मानेगा, पट्ठा! पिल गया कुदाल ले कर। सारे खेत की मेढ़-क्यारी ठीक किया। पानी का ठहराव किया। धान का चारा डाला। दिन-दुगुना रात चौगुना मेहनत किया लेकिन चनपट्टी वाली को घर से बाहर नहीं निकलने दिया। पिछले तीसों बरस का दम इसी बार लगा दिया उसने। अब इन्द्र भगवान रूठे तो क्या? गड्ढे-तालाब मे जमे पानी से खेतों को पटाया उसने।... हार नहीं मानी! ... शादी में मिले रेडियो को बंधक रख कर डी.ए.पी  यूरिया भी डाला खेत में। मुखिया जी के हाथ-पांव पर कर दमकल से पानी दिया... आ हा हा... ! भगवान ने उसकी मेहनत का फल भी दिया। चढ़ते अगहन उसके दरवाज़े पर धान के बोझों का पहाड़ खड़ा हो गया।

धान की जब झराई हुई तो उसने धान के ढेर बनाए और उसके ऊपर गोबर का महादेव बना कर फूल चढाया! खुद ही मंगरु ने तराजू लेकर धान को तौलना शुरु किया। तौल-तौल कर जब वह धान को पत्नी के पास रखे डाले में डाल रहा था तो दोनों प्राणी का चेहरा ख़ुशी,गर्व और संतुष्टि से चमक उठा। उसी समय सुमित्रा बुआ का वहां पर पदार्पण हुआ!  मंगरु बोला, "पायं लागू बुआ !" चनपट्टी वाली डाला छोड़ माथे पर साड़ी डाली और बुआ को मोढे बिठा कर उनके चरण छूए। बुआ हाथ बढा कर आशीर्वाद दीं। बोली “मंगरु, तेरी बहुरिया तो साक्षात लक्ष्मी है रे। ऐसी उपज तो घुरण भाई के जमाने में भी तेरे घर नहीं आई थी। इस बार देखो, बड़े-बड़े किसान धोती के खूट से आँख पोछ रहे हैं। तेरे दरवाज़े पर तो लक्ष्मी दमक रही है। साल भर पहले कैसे ग़रीबी छाई थी यहां! आज देखो कैसा खिलखिला रहा है घर-आँगन! सच बड़ी लच्छनमान औरत आयी है तेरे घर। देखो पहली फसल में तेरा घर भर दिया इसने।

बुआ तो चनपट्टी वाली की तारीफ़ में कसीदे पढी जा रही थी। बात भी सही थी। लेकिन मंगरु के जी-तोड़ मेहनत की कोई चर्चा ही नहीं की बुआ ने। इस पर हमारे मुंह से निकल गया, "हाँ ! हाँ ! बुआ !! सोलह आने सच कहती हो !!! आखिर क्यों नहीं ? मरद उपजाए धान ! तो औरत बड़ी लच्छनमान !!" इस पर मंगरु तराजू की डंडी पटक कर लगा खिलखिला कर हंसने। … और चनपट्टी वाली भी साड़ी का पल्लू मुंह पर डाल कर दूसरी तरफ़  मुड़ गयी। बुआ बोलने लगी, "मार मुंहझौंसा! यह तो कहावत ही बनाते रहता है!"

लेकिन आप सोच कर देखिये तो बात बिलकुल दुरुस्त है। अब भाई, मेहनत किसी का और श्रेय किसी को मिले? मंगरु अगर मेहनत न करता तो चनपट्टी वाली लक्ष्मी होती क्या ???

कहावत की जड़ तो आपको दे दिए हम। तो फिर याद रखिये, जब भी मेहनत किसी की और श्रेय किसी और को मिले तो यही कहावत कहियेगा, "मरद उपजाए धान ! तो औरत बड़ी लच्छनमान !!'

15 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है!

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  2. इसे कहते हैं उत्तम लेखन । माटी की खुशबू में पगी भाषा । मैं भी चार दिन अपने सहारनपुर के गाँव से लौटा हूँ तो आपकी पोस्ट दिल में और घर कर गई ।
    आपके ब्लॉग का लिंक अपने ब्लॉग पर दे रहा हूं ।
    रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

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  3. ाउर पंजाबी मे इसेैसे कहते हैं
    घिओ[ घी] बनाये चोंचले बडी बहुत का नाम। इसकी कहानी कुछ ऐसे है कि ब्डी बहु की जब खाना बनाने की बारी होती तो वो अधिक घी आदि प्रयोग करती मगर जब छोटी बहु को खाना बनाने के लिये सामान देती तो घी आदि कम देती ,क्यों की बडी होने के नाती सब कुछ उसके हाथ मे था । अब अधिक घी आदि से खाना स्वाद बनता। सब लोग बडी की तारीफ करते। तो एक दिन छोटी से रहा न गया उसने कह दिया-- घिओ बणाये चोंचले बडी बहुत दा नाँ[ अर्थाक घी के कारण खाना स्वाद बना है पर नाम बडी बहु का हो गया। धन्यवाद।

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  4. पहली बात तो करण जी और मनोज जी को इस बात के लिए बधाई कि वे इस विरासत को सबके सामने ला रहे हैं।
    पर इसका एक और पहलू हैं कि हमारी ऐसी लोक्‍कोतियां,मुहावरे,कहावत आदि आज के संदर्भ में कितनी प्रासंगिक हैं उनका विश्‍लेषण भी किया जाना चाहिए। यह प्रसंग जब उल्‍टा होता होगा कि मेहनत करने के बाद भी धान नहीं उपजता तो लच्‍छमान औरत कुलच्‍छनी हो जाती है। गहरी बात यह है कि सारा दोष औरत के सिर ही जाता है।
    आशा करता हूं अगली पोस्‍ट में आप इस संदर्भ में भी चर्चा करेंगे।

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  5. kahawat ke peeche ki kahani badi rochakta se batayi gayi hai!
    nice post,
    best wishes!

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  6. कहावत को कहने के लिए बहुत बढ़िया कहानी ...निर्मला जी की कहानी भी बढ़िया लगी ...उत्साही जी की बात में दम है ..सही है मेहनत करने पर यदि धान न होता तो सारा दोष स्त्री पर ही जाता ...

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  7. "मार मुंहझौंसा
    हा.हा.हा. ये शब्द सही लिखा

    सच कहा . वैसे पहली बार देखा कि इस कहानी में स्त्री को मान दिया जा रहा है...वर्ना तो मामला उल्टा ही रहता है.

    इस बहाने हम पौराणिक बातों को जान पा रहे हैं.
    शुक्रिया.

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  8. लेकिन मंगरू की प्रेरणा तो रूपवती ही है | उसीने मंगरू को ठलुए से इन्सान बना दिया |

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  9. का कारन भाई, अबे धान उपजाने पड़ेंगे.....

    "मरद उपजाए धान ! तो औरत बड़ी लच्छनमान !!"

    बढिया लगा.

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  10. आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
    प्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
    कल (11/10/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
    देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
    अवगत कराइयेगा।
    http://charchamanch.blogspot.com

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  11. @ सहज साहित्य के कम्बोज जी
    ओह सर!
    धन्य हुआ।
    जब ब्लोग से जुड़ा था, तो अपने ब्लॉग "मनोज" पर पहली पोस्ट एक लघुकथा डाली थी जो राजस्थान पत्रिका में छपी थी! फिर सोचा कि लघु कथा ठीक ठाक लिखता हूं कि नहीं। तो सर्च मारा और पहुंचा आपके लघुकथा डॉट कॉम पर और आपके और अन्य लेखकों के आलेख पढे। और आपकी वह लघु कथा जो संवादों में कही गई थी जिसके पात्र इंटर्नेट पर मिलते हैं।
    पढा और उसी तर्ज़ पर एक लघुकथा भी लिखी। "ब्लेसिंग"।
    आप तो मेरे गुरु हैं इस लिहाज से।
    लिंक देकर तो आपने हमें हन्य कर दिया।
    सादर,
    मनोज

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  12. रूपवती सच में लच्छनमान है। यक़ीन न हो तो मायके भिजवा के देखिए। मंगरू फिर कहीं इधर-उधर टउआता ही मिलेगा!

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  13. कृषि-प्रधान समाज में ऐसे मुहावरे का चलन ज्योतिषीय आस्था के कारण शुरु हुआ होगा। यह मुहावरा औरों के लिए भले व्यंग्यात्मक हो,पति-पत्नी के लिए तो संबंधों में मिठास घोलने जैसा ही रहा होगा।

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  14. रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है , उसकी प्रेरणा वहां छुपी थी ,इसीलिए श्रेय उसे मिला है .

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