साहित्यकार-7
फणीश्वरनाथ रेणु
मनोज कुमार
हिन्दी कथा-साहित्य में अत्यधिक महत्वपूर्ण रचनाकार फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ का जन्म 4 मार्च 1921 को बिहार के पूर्णिया ज़िला के औराही हिंगना गांव में हुआ था।
वे सिर्फ़ सृजनात्मक व्यक्तित्व के स्वामी नहीं थे बल्कि एक सजग नागरिक व देशभक्त भी थे। 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन में उन्होंने सक्रिय रूप से योगदान दिया। इस प्रकार एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में उन्होंने अपनी पहचान बनाई। इस चेतना का वे जीवन पर्यंत पालन करते रहे और सत्ता के दमन और शोषण के विरुद्ध आजीवन संघर्षरत रहे।
1950 में जब बिहार के पड़ेसी देश नेपाल में राजशाही दमन बढ गया और वहां की जनता पर असीमित अत्याचार हो रहा था तो वे नेपाल की जनता को राणाशाही के दमन और अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के संकल्प के साथ वहां पहुंचे और वहां की जनता द्वारा जो सशस्त्र क्रांति व राजनीति की जा रही थी में उसमें सक्रिय योगदान दिया।
दमन और शोषण के विरुद्ध आजीवन संघर्षरत रहे ‘रेणु’ ने सक्रिय राजनीति में भी हिस्सेदारी की। 1952-53 के दौरान वे बहुत लम्बे समय तक बीमार रहे। फलस्वरूप वे सक्रिय राजनीति से हट गए। उनका झुकाव साहित्य सृजन की ओर हुआ। 1954 में उनका पहला उपन्यास ‘मैला आंचल’ प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास को इतनी ख्याति मिली कि रातों-रात उन्हें शीर्षस्थ हिन्दी लेखकों में गिना जाने लगा।
जीवन के सांध्यकाल में राजनीतिक आन्दोलन से उनका पुनः गहरा जुड़ाव हुआ। 1975 में लागू आपात् काल का जे.पी. के साथ उन्होंने भी कड़ा विरोध किया। सत्ता के दमनचक्र के विरोध स्वरूप उन्होंने पद्मश्री की मानद उपाधि लौटा दी। उनको न सिर्फ़ आपात् स्थिति के विरोध में सक्रिय हिस्सेदारी के लिए पुलिस यातना झेलनी पड़ी बल्कि जेल भी जाना पड़ा। 23 मार्च 1977 को जब आपात् स्थिति हटा तो उनका संघर्ष सफल हुआ। परन्तु वो इसके बाद अधिक दिनों तक जीवित न रह पाए। रोग से ग्रसित उनका शरीर जर्जर हो चुका था। 11 अप्रील 1977 को इस महान लेखक का स्वर्गवास हो गया।
उनके उपन्यास हैं – ‘मैला आंचल’, ‘परती परिकथा’, ‘दीर्घतपा’, ‘कलंक मुक्ति’, ‘जुलूस’ और ‘पलटू बाबू रोड’। ‘पलटू बाबू रोड’ उनके निधन के बाद छपा।
‘रेणु’ को जितनी शोहरत उपन्यासों से मिली, उतनी ही प्रसिद्धि उनको उनकी कहानियों से भी मिली। ‘ठुमरी’, ‘अगिनखोर’, ‘आदिम रात्रि की महक’, ‘एक श्रावणी दोपहरी की धूप’, ‘अच्छे आदमी’, ‘सम्पूर्ण कहानियां’, आदि उनके प्रसिद्ध कहानी संग्रह हैं।
उनकी कहानी ‘मारे गए गुलफ़ाम’ पर आधारित फ़िल्म ‘तीसरी क़सम’ ने भी उन्हें काफ़ी प्रसिद्धी दिलाई।
कथा-साहित्य के अलावा उन्होंने संस्मरण, रेखाचित्र और रिपोर्ताज आदि विधाओं में भी लिखा। उनके कुछ संस्मरण भी काफ़ी मशहूर हुए। ‘ऋणकुल धनजल’, ‘वन-तुलसी की गंधी’, ‘श्रुत अश्रुत पूर्व’, ‘समय की शिला पर’, ‘आत्म परिचय’ उनके संस्मरण हैं। इसके अलावा वे ‘दिनमान’ पत्रिका में रिपोर्ताज भी लिखते थे। ‘नेपाली क्रांति कथा’ उनके रिपोर्ताज का उत्तम उदाहरण है।
आंचलिक उपन्यासों की परंपरा को स्थापित करने का सबसे पहला प्रयास उन्होंने किया। उन्होंने उपन्यास लेखन के पहले से चली आ रही परंपरा को तोड़कर एक नए शिल्प में ग्रामीण-जीवन को प्रस्तुत किया। साथ ही उन्होंने अंचल विशेष की भाषा का अधिक से अधिक प्रयोग किया ताकि उस जन समुदाय को ज़्यादा से ज़्यादा प्रामाणिकता से चित्रित किया जा सके। ‘रेणु’ ने अपनी अनेक रचनाओं में आंचलिक परिवेश के सौंदर्य, उसकी सजीवता और मानवीय संवेदनाओं को अद्वितीय ढंग से उजागर किया है। दृश्यों को चित्रित करने के लिए उन्होंने गीत, लय-ताल, वाद्य, ढोल, खंजड़ी नृत्य, लोकनाटक जैसे उपकरणों का बखुबी इस्तेमाल किया है। रचनाओं में आंचलिक पहलू को उभारने के लिए ‘रेणु’ ने सामाजिक-सांस्कृतिक पर्यावरण का चित्रण बड़े लगाव से किया है। `रेणु’ ने मिथक, लोकविश्वास, अंधविश्वास, किंवदंतियां, लोकगीत- इन सबको अपनी रचनाओं जगह दी। ये सभी ग्रामीण जीवन की अंतरात्मा हैं। इन सबके बिना ग्रामीण जीवन की कथा नहीं कही जा सकती। उन्होंने “मैला आंचल” उपन्यास में अपने अंचल का इतना गहरा व व्यापक चित्र खींचा है कि सचमुच यह उपन्यास हिन्दी में आंचलिक औपन्यासिक परंपरा की सर्वश्रेष्ठ कृति बन गया है। उनका साहित्य हिंदी जाति के सौंदर्य बोध को समृद्ध करने के साथ-साथ अमानवीयता, पराधीनता और साम्राज्यवाद का प्रतिवाद भी करता है। व्यक्ति और कृतिकार – दोनों ही रूपों में ‘रेणु’ अप्रतिम थे।
उपयोगी आलेख।
जवाब देंहटाएंआभार।
मनोज जी आपके पोस्ट पर आने से पहले रेणु जी की प्रतिनिधि कहानियाँ (राजकमल पेपरबैक्स ) हाथ में थी.. उनकी कहानी "एक आदम रात्रि की महक" पढ़ कर उठा हूँ.. और संयोग से आपने इतनी सारी जानकारी उनके बारे में दे दी.. आलेख अच्छा है..
जवाब देंहटाएंसुन्दर आलेख!
जवाब देंहटाएंसंग्रहनीय पोस्ट!
regards,
बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई!
जवाब देंहटाएं(समीक्षा) पर अरुण राय की कविता ‘गोबर’!
साहित्यकार-फणीश्वरनाथ रेणु
बहुत उपयोगी जानकारी..रेनू जी के बारे में विस्तार से जानना अच्छा लगा
जवाब देंहटाएंआपका प्रयास सराहनीय है।
जवाब देंहटाएंआभार।
आंचलिकता की वह लहर अगर बरकरार रहती,तो आज कई बोलियों को भाषाई दर्ज़ा हासिल करने के लिए इतना संघर्ष न करना पड़ता।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी लगी यह प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंरेणु जी मेरे प्रिय कथाकारों में सर्वोपरि हैं. जब से पढना शुरू किया तो बस इनके सिवा कोई अच्छा ही नहीं लगता था. कथाओं की पृष्ठभूमि, चरित्र, सम्वाद और कथाशिल्प सब आसपास घटित होता और पड़ोस का सा दृश्य उपस्थित करता है. और आज भी उनमें कोई परिवर्तन नहीं आया है.
जवाब देंहटाएंजयप्रकाश आंदोलन के समय इनको समीप से देखने का अवसर प्राप्त हुआ और अब एक क्षीण सी स्मृति शेष है. हाँ जब गाँधी मैदान से इन्होंने पद्मश्री के परित्याग की घोषणा की थी तो उसकी याद आज भी है.
तीसरी कसम फिल्म एक कसक है. उसकी चर्चा नहीं करना चाहता, उपयुक्त अवसर नहीं है. रेणु जी की स्मृति को नमन एवम् उनकेचरणों में हमारे श्रद्धा सुमन!! मनोज जी, धन्यवाद इस उत्तम प्रस्तुति के लिए!!
उपयोगी आलेख।
जवाब देंहटाएंआभार।
सुन्दर आलेख!
जवाब देंहटाएंसंग्रहनीय पोस्ट!
आलेख अच्छा है!
जवाब देंहटाएंयह बात सच है की रेणू जी ने आंचलिक उपन्यासों की शुरुआत करके हिंदी साहित्य में एक नए युग का सूत्रपात किया था , उनकी ख्याति सिर्फ आंचलिक उपन्यासकार के रूप में ही नहीं बल्कि जिस जन जीवन का प्रतिनिधित्व उन्होंने किया है, उसके कारण भी है , रेणू जी का साहित्य हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि है ...सुंदर और सार्थक पोस्ट .
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें
nice post..
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सुन्दर बहुत उपयोगी जानकारी
जवाब देंहटाएंविस्तार पूर्वक जानकारी मिली और आज पहली बार तस्वीर द्वारा भी उनको जान पाए.
जवाब देंहटाएंशुक्रिया.
... nirantar achchhee post padhane mil rahee hain ... aabhaar !!!
जवाब देंहटाएंआभार इस आलेख के लिए.
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