काव्य प्रयोजन :: आधुनिक काल |
द्विवेदी युग इस युग में रीतिवाद विरोधी अभियान चला। मकसद था हिन्दी कविता को दरबारी काव्य की रूढियों से मुक्त करना! आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ‘सरस्वती’ पत्रिका के माध्यम से इस आंदोलन को गति प्रदान की। उनका मानना था कि साहित्य की महत्ता लोकजागरण की चेतना से सम्बद्ध है। साहित्य में जो शक्ति है वह तो, तलवार और बम में भी नहीं है। उनके अनुसार लोकजागरण के लिए साहित्य से बढकर कोई दूसरा समर्थ माध्यम नहीं है। |
मैथिलीशरण गुप्त ने भी इस आंदोलन को आगे बढाया। उन्होंने कविता के प्रयोजन को बताते हुए कहा (१) केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए (२) है जिस कविता का काम लोकहित करना सद्भावों से मन मनुज मात्र का भरना पहले तो कांता सदृश हृदय का हरना फिर प्रकटित करना विमल ज्ञान का झरना (३) अर्पित हो मेरा मनुज काय बहुजन हिताय बहुजन हिताय (४) संदेश नहीं मैं स्वर्गलोक का लाया इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया इस तरह से इनके साहित्य का उद्देश्य लोकमंगल भावना को हम पाते हैं। |
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने रस की लोकमंगलवादी व्याख्या की। उन्होंने कलावाद-रूपवाद का विरोध किया, साथ ही विरुद्धों के सामंजस्य सिद्धांत का समर्थन किया। उन्होंने तुलसीदास और उनके ‘रामचरितमानस’ को लोकमंगल की साधनावस्था का प्रतिमान माना तथा विद्यापति और बिहारीलाल को सिद्धावस्था का कवि कहा। |
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी साहित्य का प्रयोजन “लोकचिंता” को मानते थे। उनके प्रिय कवि हैं कबीर। इनका मानना था कि लोकचिंताओं से जुड़कर ही रचनाकार को लोक को दिशा-दृष्टि देनी चाहिए। |
छायावाद के कवियों ने सृजन को मानव-मुक्ति चेतना की ओर ले जाने का काम किया। सुमित्रानंदन पंत ने रीतिवाद का विरोध करते हुए ‘पल्लव’ की भूमिका में कहा कि मुक्त जीवन-सौंदर्य की अभिव्यक्ति ही काव्य का प्रयोजन है। जयशंकर प्रसाद का कहना था आनंद और लोकमंगल दोनों का सामंजस्य ही सृजन-धर्म है - “श्रेयमयी प्रेम ज्ञानधारा”।
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने नवजागरण परंपरा का विस्तार किया और रूढिवाद का विरोध।
महादेवी वर्मा के अनुसार साहित्य का उद्देश्य है मानव करुणा का विस्तार। |
प्रगतिवाद ने रूढिवादिता का विरोध किया और मार्क्सवादी समाज-चिंतन को अपनाया। प्रेमचंद के अनुसार रचनाकार समाज में आगे चलने वाली मशाल होता है। अतः साहित्य का उद्देश्य जनता की चेतना को जाग्रत करना तथा परिष्कृत करना होता है। प्रगतिवाद एक निश्चित तत्ववाद को सूचित करता है। ऐसे साहित्य में विषय-वस्तु या अंतर्वस्तु को अधिक महत्व दिया जाता है। रूप को, कला-विन्यास को कम। इनके मतावलंबियों के अनुसार साहित्य का उद्देश्य है प्रतिक्रियावादी शक्तियों के लोक-विरोधी, जन-विरोधी चरित्र का भंडाफोर और मनुष्य का, मनुष्यता का विकास-परिष्कार-प्रसार। अर्थात् उपयोगितावाद-यर्थार्थवाद की महत्वप्रतिष्ठा। डॉ. रामविलास शर्मा ने लोकमंगलवादी चिंतन-दृष्टि का विकास ही साहित्य का प्रयोजन माना।
गजानन माधव मुक्तिबोध ने साहित्य को जनता के लिए जनजागरण का अस्त्र माना और उन्होंने अपनी रचनाओं, “चांद का मुंह टेढा है” और “भूरी-भूरी खाक धूल” द्वारा पूंजीवादी-साम्राज्यवादी चिंतन का विरोध किया। |
नयीकविता युग तथा समकालीन युग के विद्वानों, अज्ञेय, धर्मवीर भारती, निर्मल वर्मा आदि, कवियों के मतानुसार साहित्य का प्रयोजन मानव-व्यक्तित्व का समग्र विकास, मानव-स्वाधीनता की रक्षा, मुक्त-चिंतन का विकास है। |
उपसंहार इस प्रकार हम पाते हैं कि हिन्दी चिंतन परंपरा में लोकमंगलवादी मानव सत्यों से साक्षात्कारवादी दृष्टि ही साहित्य का प्रयोजन रही है। रचनाकार का मानवतावाद रचना की अर्थ-व्यंजना में निहित रहता है। हिन्दुस्तान में संस्कृति का आधारभूत तत्व है - “सुरसरि सम सबका हित होई।” अर्थात् गंगा की तरह सभी को अपने में मिलाना और गंगा बना देना। लोक-कल्याण और आनंद दो अलग नाम हैं परन्तु तत्त्वतः दोनों एक हैं, दोनों का मूल प्रयोजन है – लोक के साथ जीना, लोक-चिंता के साथ जीना। अपने हृदय को लोक के हृदय में मिला देना ही “रस दशा” है। इसका अर्थ है हृदय की मुक्तावस्था, भावयोग दशा, साधारणीकरण या समष्टिभावना का आनंद। हिन्दी काव्यशास्त्र का प्रयोजन इसी हिन्दुस्तानी लय से ओत-प्रोत है। निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि काव्य का प्रयोजन है लोकमंगल भावना अर्थात् मनुष्यता का विकास। जिसमें मानव के प्रति गहरे सामाजिक सरोकार हों। रचनाकार मानवता के प्रति करुणा और सहानुभूति की चेतना का विस्तार कर अपने-पराए की भेद-बुद्धि को मिटाता है और मानवतावाद की दृष्टि का प्रचार करता है। लोकजागरण और लोक-कल्याण ही जीवन का सत्य है, शिव है, सुन्दर है। और यही है साहित्य का प्रयोजन! |
बहुत अच्छी शृंखला रही। आभार। अगले सप्ताह से कुछ नए की प्रतीक्षा में।
जवाब देंहटाएं... प्रभावशाली व प्रसंशनीय अभिव्यक्ति !!!
जवाब देंहटाएंबहुत ही संक्षेप में आपने आधुनिक काल की विवेचना की है.. लाभकारी आलेख ! बहुत से पाठक हिंदी के मूर्धन्य साहित्यकारों के चित्र से परिचित नहीं होते हैं.. चित्र देकर आप काफी सार्थक कार्य कर रहे हैं...
जवाब देंहटाएंइससे बेहतर कोई बिबेचना हो सकता है... हमको तो नहीं लगता. एक्दम कैप्सूल बनाकर रख दिये हैं आप!!
जवाब देंहटाएंसमेकित,संश्लिष्ट जानकारी।
जवाब देंहटाएंलोकमंगल की अवधारणा ही पश्चिम की तुलना में भारतीय साहित्य के काव्य प्रयोजन को विशिष्ट बनाती है।
जवाब देंहटाएंकाल प्रयोजन
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