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रविवार, 17 अक्तूबर 2010

कहानी ऐसे बनी– 8 :: न कढी बना न बड़ी!

कहानी ऐसे बनी– 8

न कढी बनी न बड़ी!

हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतिम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रही इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी।

रूपांतर :: मनोज कुमार

हा...हा..हा... ! न कढी  बनी न ही बड़ी... अब आज आए हुए मेहमान को भोग क्या लगेगा? अरे.... अरे ! आप तो हजूर खा-म-खा डर गए। आप के लिए तो कहानी ऐसे बनी का ताजा खुराक हाज़िर है। लेकिन थोड़ा सा कष्ट करना पड़ेगा। वह क्या है वह तो आप समझही रहे हैं। गाँव की बात गाँव मे ही अच्छी लगती है न।

साहब यह है हमरा गाँव रेवा-खंड। अब तो भैय्या न वह देवी रही न वो कराह। पहले की बात ही कुछ और थी। मुग़लों का राज आया, अँगरेज़ आए और फिर जमींदारी राज रहा इस गाँव में। यह  देख रहे हैं, गौरी पोखर से लगे हुए जो  बड़ा सा कोठीनुमा मकान है.... उसे मुगलिया तहसीलदार ने बनवाया था। बाद में अँगरेज़ों ने कब्ज़ा कर लिया। अब खादी भण्डार हो गया। है।  सब कुछ कितना बदल गया है। नहीं बदला है तो कोठी के पिछवारे हम लोगों का टोला। आज भी लोग वही सादगी भरी ज़िन्दगी जीते हैं। पहले की तो बात ही मत पूछिये।

हमें अभी तक याद है। आ..हा...हा... ! हसनपुर वाली काकी हंस-हंस के समूचे टोला में हकार दे रही थी। भगजोगनी की मां और लोहागिर वाली उनके लम्बे-चौरे अंगना को गोबर से लिप कर चम-चम कर दी थी। नरेश काका अपनी कलाकारी दीवाल पर दिखा रहे थे। ऊंह ! चूना से रंगे भित्ति पर गेरू से न जाने क्या ऐन्टिंग-पेंटिंग किया है उन्होंने ! 'देख परोसन जल मरे !!'

शाम में होने वाले भोज के लिए झींगुर दास केला का पत्ता काट कर रख  रहा है। सीताराम और नत्थू दोनो जने पानी का ड्राम भरने में लगे हैं। हमलोग तो बड़े तसले में पक रहे नए बासमती चावल के खुश्बू से प्रफुल्लित हो इधर-उधर चौकरी भर रहे थे। हसनपुर वाली काकी का बेटा था न बटेश्वर उस्की पत्नी गौना हो कर  आयी थी। आज नाई दुल्हन रसोई पकायेगी। इसी ख़ुशी में काकी ने पुरे टोले को न्योत दिया था।

बटेसर तो पीली धोती के उपर कोठारी गंजी और हाथ में एच.एम.टी की घड़ी पहने फुचाई झा के साथ भोजन बनाए में लगा हुआ था। उसी समय हमने बिशनपुर वाली से पूछा, 'अरे काकी कहती हैं कि आज बटेसर की पत्नी रसोई पकायेगी फिर फुचाई झा क्यों लगे हैं?'

छूटते ही बिशनपुर वाली बोली, "भाग दाढ़ीजरबा! टोला को न्योतना कौई हंसी मजाक है क्या...! अरे पंडितजी और सब बना देते हैं। दुल्हन बड़े घर से आयी है। वह यह सब क्या जाने? अंगरेजी खाना बनाती है। वह केवल 'कढ़ी-बड़ी' बना देगी।' हम भी मन-ही-मन कढ़ी-बड़ी का स्वाद लेने लगे।

रह-रह कर नजर खिड़की के पीछे चली जाती थी। तभी छन-छन-खन-खन की आवाज हुई। देखा तो पाया कि लाल साड़ी के अन्दर से अलता से रंगे हुए हाथ पतीले में तेजी से घूम रहा था। ओहो! तो नई दुल्हन लगा रही हैं कढ़ी-बड़ी का जोगार... ! बड़ी मुश्किल से मुंह का पानी रोके रखा था। दुल्हन ताली बजा कर काकी को बुलाई और दोनों में कुछ बाते हुई। फिर पतीले में एक लोटा पानी गिरा। हे भगवान.... अब तक बत्तीसी दिखा रही काकी की त्योरियां चढ़ गयी। वह तो बड़की भौजी ने मोर्चा संभाल लिया और कहा, 'पानी पड़ ही गया तो क्या हुआ काकी? दुल्हन समझदार है। कह रही है, बड़ी न सही कढ़ी तो बन जाएगा न!' तब जा कर काकी की त्योरी ढीली पड़ी।

लेकिन पांच मिनट में फिर बडकी भौजी की आवाज़ आयी, "जा री दुल्हिन ! यह क्या कर दी! यह तो एकदम लट्ठा हो गया... हलवा... ! अब लो... अब क्या होगा...?”

तब तक काकी भी दौड़ी आ गयी। माजरा समझते उन्हें देर न लगी। बोली, "जाओ री दुल्हिन! हो गया सत्यानाश ! यह न तो कढ़ी बनी और न ही बड़ी ! जल्दी फेंको ! और दूसरा बेसन लो !!''

दुल्हन भी न इधर देखी न उधर ! उठाया कड़ाही और खिड़की के अन्दर से ही मारा उड़ेल के बाहर !! लेकिन यह क्या.... सारा लट्ठा बेसन बाहर बैठे नरेश काका के ऊपर जा गिरा। अब तक तो अन्दर ही चख-चुख चल रहा था। अब बाहर भी भोज के बदले दूसरा ही तमाशा शुरू हो गया। नरेश काका भी खिसिया के बोले, "कहती थी सब गुण के आगर है। अंगरेजी खाना बनाती है। हुंह... इससे तो न कढ़ी बनी न बड़ी ! और फेंका ऐसे कि देह पर ही पड़ गया।"

अब हम लोग लगे काका के मुंह की बात दोहराने। "न कढ़ीए बना न बड़ीए ! और फेंका उ भी देहे पर पड़ गया।"

बाद में यह कहावत प्रचलित ही हो गई। जब लोग बात करें बड़ी-बड़ी और काम हो कुछ नहीं और कुछ हो भी तो गड़बड़ ही गड़बड़ !! तब सब के मुंह पर यही कहावत आती है। समझे! आप भी कभी ऐसा मत कीजियेगा कि "न कढ़ीए बने न बड़ीए ! और फेंकियेगा तो देख के न तो कहीं देह पर ही न पड़ जाए।

9 टिप्‍पणियां:

  1. गांव के सहज-सरल जीवन की याद दिलाती एक सुंदर प्रस्तुति. आभार . विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाएं .

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  2. अच्छी प्रस्तुति.
    विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाएं .

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  3. आजकल की कॉलेजिया बहू के ऊपर सटीक बैठता है यह कहावत... और उतना ही सुंदर है आपका शब्दचित्र..

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  4. कहानी ऐसे बनी और देसिल बयना श्रृंखला को पुस्तक रूप देने की तैयारी शुरू की जाए।

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  5. कहानी ऐसे बनी की यह शृंखला मूल स्वरूप देसिल बयना से किसी भी मामले में कम नहीं है। प्रेरक, मनोरंजक और ज्ञानवर्धक।

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