कहानी ऐसे बनी– 8न कढी बनी न बड़ी! |
रूपांतर :: मनोज कुमार |
हा...हा..हा... ! न कढी बनी न ही बड़ी... अब आज आए हुए मेहमान को भोग क्या लगेगा? अरे.... अरे ! आप तो हजूर खा-म-खा डर गए। आप के लिए तो कहानी ऐसे बनी का ताजा खुराक हाज़िर है। लेकिन थोड़ा सा कष्ट करना पड़ेगा। वह क्या है वह तो आप समझही रहे हैं। गाँव की बात गाँव मे ही अच्छी लगती है न। साहब यह है हमरा गाँव रेवा-खंड। अब तो भैय्या न वह देवी रही न वो कराह। पहले की बात ही कुछ और थी। मुग़लों का राज आया, अँगरेज़ आए और फिर जमींदारी राज रहा इस गाँव में। यह देख रहे हैं, गौरी पोखर से लगे हुए जो बड़ा सा कोठीनुमा मकान है.... उसे मुगलिया तहसीलदार ने बनवाया था। बाद में अँगरेज़ों ने कब्ज़ा कर लिया। अब खादी भण्डार हो गया। है। सब कुछ कितना बदल गया है। नहीं बदला है तो कोठी के पिछवारे हम लोगों का टोला। आज भी लोग वही सादगी भरी ज़िन्दगी जीते हैं। पहले की तो बात ही मत पूछिये। हमें अभी तक याद है। आ..हा...हा... ! हसनपुर वाली काकी हंस-हंस के समूचे टोला में हकार दे रही थी। भगजोगनी की मां और लोहागिर वाली उनके लम्बे-चौरे अंगना को गोबर से लिप कर चम-चम कर दी थी। नरेश काका अपनी कलाकारी दीवाल पर दिखा रहे थे। ऊंह ! चूना से रंगे भित्ति पर गेरू से न जाने क्या ऐन्टिंग-पेंटिंग किया है उन्होंने ! 'देख परोसन जल मरे !!' शाम में होने वाले भोज के लिए झींगुर दास केला का पत्ता काट कर रख रहा है। सीताराम और नत्थू दोनो जने पानी का ड्राम भरने में लगे हैं। हमलोग तो बड़े तसले में पक रहे नए बासमती चावल के खुश्बू से प्रफुल्लित हो इधर-उधर चौकरी भर रहे थे। हसनपुर वाली काकी का बेटा था न बटेश्वर उस्की पत्नी गौना हो कर आयी थी। आज नाई दुल्हन रसोई पकायेगी। इसी ख़ुशी में काकी ने पुरे टोले को न्योत दिया था। बटेसर तो पीली धोती के उपर कोठारी गंजी और हाथ में एच.एम.टी की घड़ी पहने फुचाई झा के साथ भोजन बनाए में लगा हुआ था। उसी समय हमने बिशनपुर वाली से पूछा, 'अरे काकी कहती हैं कि आज बटेसर की पत्नी रसोई पकायेगी फिर फुचाई झा क्यों लगे हैं?' छूटते ही बिशनपुर वाली बोली, "भाग दाढ़ीजरबा! टोला को न्योतना कौई हंसी मजाक है क्या...! अरे पंडितजी और सब बना देते हैं। दुल्हन बड़े घर से आयी है। वह यह सब क्या जाने? अंगरेजी खाना बनाती है। वह केवल 'कढ़ी-बड़ी' बना देगी।' हम भी मन-ही-मन कढ़ी-बड़ी का स्वाद लेने लगे।
लेकिन पांच मिनट में फिर बडकी भौजी की आवाज़ आयी, "जा री दुल्हिन ! यह क्या कर दी! यह तो एकदम लट्ठा हो गया... हलवा... ! अब लो... अब क्या होगा...?” तब तक काकी भी दौड़ी आ गयी। माजरा समझते उन्हें देर न लगी। बोली, "जाओ री दुल्हिन! हो गया सत्यानाश ! यह न तो कढ़ी बनी और न ही बड़ी ! जल्दी फेंको ! और दूसरा बेसन लो !!''
अब हम लोग लगे काका के मुंह की बात दोहराने। "न कढ़ीए बना न बड़ीए ! और फेंका उ भी देहे पर पड़ गया।" |
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गांव के सहज-सरल जीवन की याद दिलाती एक सुंदर प्रस्तुति. आभार . विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाएं .
जवाब देंहटाएंsidhi sadi bat kahavaton ka yahi to mahatv hai, achhi rachna
जवाब देंहटाएंbadhiya prastuti!
जवाब देंहटाएंvijayadashmi ki haardik shubhkamnayen!
अच्छी प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंविजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाएं .
bahut badhiya prastuti..achchhi kahaani ..
जवाब देंहटाएंआजकल की कॉलेजिया बहू के ऊपर सटीक बैठता है यह कहावत... और उतना ही सुंदर है आपका शब्दचित्र..
जवाब देंहटाएंकहानी ऐसे बनी और देसिल बयना श्रृंखला को पुस्तक रूप देने की तैयारी शुरू की जाए।
जवाब देंहटाएंachhi lagi kadhi aur bari donon
जवाब देंहटाएंकहानी ऐसे बनी की यह शृंखला मूल स्वरूप देसिल बयना से किसी भी मामले में कम नहीं है। प्रेरक, मनोरंजक और ज्ञानवर्धक।
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