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शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

मध्यकालीन भारत - धार्मिक सहनशीलता का काल (भाग-४)

इतिहास मध्यकालीन भारत

धार्मिक सहनशीलता का काल (भाग-४)

IMG_0545मनोज कुमार

मध्यकालीन भारत - धार्मिक सहनशीलता का काल (भाग-१)

मध्यकालीन भारत धार्मिक सहनशीलता का काल (भाग-२)    
मध्यकालीन भारत धार्मिक सहनशीलता का काल (भाग-3)

Shri mahaprabhuji.jpgपश्चिमी उत्तर प्रदेश में कृष्ण पंथ के अगुआ थे संत वल्लभाचार्य (1479-1531) और पूर्वी भारत में संत चैतन्य महाप्रभू (1485-1533)। दोनों का भक्ति मार्ग में विश्‍वास था। दोनों ने ही श्रीकृष्ण एवं राधा के बीच प्रेम को ईश्‍वर के प्रति निष्ठा के मॉडल के रूप में अपनाया। संत वल्लभाचार्य का जन्म 1479 ई. में दक्षिण भारत के एक तेलुगु परिवार में कांकरवाडग्रामवासी तैलंग ब्राह्मण श्रीलक्ष्मणभट्टजी की पत्नी इलम्मागारूके गर्भ से काशी के समीप हुआ था। उन्हें वैश्वानरावतार [अग्नि का अवतार] कहा गया है। इनके पिता काशी में आकर बस गए थे। उनका मानना था कि ब्रह्म और आत्मा में कोई भेद नहीं है। आत्मा भक्ति के माध्यम से अपने बंधनों से छुटकारा पा सकती है। भक्त को वसुदेव के चरणों में स्वयं को अर्पित कर देना चाहिए, क्योंकि वही मनुष्य को पापों से छुटकारा दिला सकता है। उन्होंने कृष्ण को अपना आराध्य देव बनाया। वे नृत्य-गान और भक्ति के द्वारा भगवान को रिझाने का प्रयास करने लगे। उन्होंने विशेष रूप से भगवान की प्रतिमा पूजा पर बल दिया। वे विजयनगर सम्राट कृष्णदेव राय की सभा में राज पंडित के रूप में रहते थे। उनकी प्रसिद्ध पुस्कें हैं “सुबोधिनी” एवं “सिद्धान्त रहस्य”। संत वल्लभचार्य की मृत्यु के पश्‍चात् दुर्भाग्यवश उनके पंथ में कुछ अवांछनीय प्रथा का प्रवेश हो गया।

Chaitanya mahaprabhu.jpgदूसरी ओर संत चैतन्य महाप्रभू के सम्प्रदाय ने दृढ़ अनुशासन के द्वारा नैतिकता का स्तर बनाए रखा। वे सरल, आडम्बर रहित भक्ति में विश्‍वास रखते थे। उनका यह भी मानना था कि ईश्‍वर के प्रति प्रेम, भक्ति, भजन और नृत्य द्वारा परम आनंद की एक एंसी स्थिति उत्पन्न होगी जिसमें ईश्‍वर का साक्षात्कार होगा। उनका कहना था कि भगवान श्रीकृष्ण की उपासना एवं गुरु की सेवा से कोई भी व्यक्ति ईश्‍वर से एकीकृत हो सकता है। आध्यात्मिक उत्साह के कारण इस सम्प्रदाय में संकीर्तन का विकास हुआ। संत चैतन्य ने भी ब्राह्मण धर्म के कर्मकाण्डी स्वरूप तथा जाति प्रथा की निन्दा की एवं अपने पंथ में निम्न वर्ग यहां तक कि मुसलमानों को भी सम्मिलित किया।

रसखान का कृष्णपंथ में बहुत ही सक्रिय योगदान रहा है। अब्दुल रहीम ख़ान-ए-ख़ाना के भी कई दोहे श्रीकृष्ण को समर्पित हैं। संत चैतन्य ने न सिर्फ़ भक्ति आंदोलन में सुधार किया बल्कि बंगाल की सामाजिक व्यवस्था में भी सुधार के प्रयास किए।

चौदहवीं से सोलहवीं शताब्दी के बीच अन्य संत व धर्मोपदेशक जैसे संत नामदेव, व संत तुकाराम ने महाराष्ट्र में, संत ज्ञनेश्‍वर व संत दादू दयाल ने गुजरात में तथा बाद में गोस्वामी तुलसीदास, संत सूरदास एवं मीराबाई ने भक्ति आंदोलन को आगे बढ़ाया। गोस्वामी तुलसी दास ने रामपंथ को बढ़ावा दिया। संत सूरदास संत वल्लभाचार्य के शिष्य थे। उन्होंने ब्रजभाषा में “सूरसागर” लिखा। उन्होंने श्रीकृष्ण भक्ति का प्रचार किया। रास्थान की मीराबाई एक संत ही नहीं कवयित्री भी थीं। हालाकि उनके बड़े अनुयायी नहीं हुए फिर भी उनके भक्ति-गीत बहुत ही महत्वपूर्ण एवं लोकप्रिय हैं।

महाराज छत्रपति शिवाजी के समकालीन संत तुकाराम महाराष्ट्र क्षेत्र में सक्रिय थे। उन्होंने भगवान बिठोवा की अर्चना को लोकप्रिय बनाया। उनका मंदिर पंढ़ारपुर में है। बाद में बिठोवा भगवान को श्रीकृष्ण का अवतार माना जाने लगा। संत तुकाराम ने भी हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल दिया। संत तुकाराम के ही उपदेशों का प्रभाव था कि महारज शिवाजी मुस्लिम प्रजा के प्रति काफी उदार भाव रखते थे।

निर्गुण भक्ति की परंपरा में संत कबीर दास और गुरु नानक देवजी के साथ एक और नाम है संत दादू दयाल का। उन्होंने नैतिक शुद्धता पर बल दिया। उन्होंने भक्ति के द्वारा समाज सेवा एवं मानवतावादी दृष्टिकोण लोगों के सामने प्रस्तुत किए। विभिन्न विरोधी सम्प्रदायों को भ्रातृत्व और प्रेम में बांधकर एक करने की कामना से उन्होंने एक अलग पंथ का निर्माण किया जो “दादू पंथ” के नाम से प्रसिद्ध हुआ। “दादू ग्रंथावली” में उनकी संकल्पनाएं संग्रहीत हैं।

अगले अंक में उपसंहार और समापन (चित्र आभार गूगल सर्च)

9 टिप्‍पणियां:

  1. इतनी जानकारी देने के लिए बधाई

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    बहुत बढ़िया लगी यह पोस्ट। सुन्दर एवं विस्तृत जानकारी से भरपूर।

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  3. बहुत अच्छी जानकारी । हिंदुधर्म को बचाये रखने में इन संतों का महान योगदान है । १२०० से लेकर १९०० तक ज्ञानेश्वर से लेकर विवेकानंद तक इन महान संतों ने जन जन के बीचं हिंदुधर्म की आस्था को अखंड रखा ।

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  4. बहुत बढ़िया लगी यह पोस्ट। सुन्दर एवं विस्तृत जानकारी से भरपूर।

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  5. जी तो चाहता है ये सारी पोस्ट्स को नोट्स के रूप में एकत्रित कर लूँ. लेकिन इनकी भक्ति में इतनी बह जाती हूँ और विश्वास करती हूँ की जब भी जरुरत होगी यहीं से प्राप्त कर लुंगी. :)

    बहुत ही ज्ञानवर्धक लेखन हमें पढ़ने को मिल रहा है. सच कहते हैं की भारत में किसी कौशल की कमी नहीं है.

    शुक्रिया.

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  6. सदियों से,धार्मिक सहिष्णुता और नैतिक शुद्धता के प्रयास स्वयं इस बात के प्रमाण हैं कि अधार्मिकता और अनैतिकता की प्रवृत्ति प्रबल रही है। अन्यथा, उपदेश देने की नौबत ही न आती।

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