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रविवार, 7 नवंबर 2010

कहानी ऐसे बनी-११ :: मियाँ बीवी के झगड़ा !

हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतिम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रही इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी।

रूपांतर :: मनोज कुमार

कहानी ऐसे बनी-११

मियाँ बीवी के झगड़ा !

पाठक वृन्द की जय हो!

मान गए साहब आपको ! एक तो रविवार आते ही हम सुध खो देते हैं और महराज आप भी सब कुछ भुला कर कहानी ऐसे बनी की बाट जोहते रहते है। यह आपका प्रेम ही है, नहीं तो आज तो हमारा मूड बहुत ही ख़राब था। अब आप आ गए हैं तो एक कहानी बनने की दासतां सुना ही देते हैं। परन्तु आज से हम भी मारे गए गुलफ़ाम की तरह तीसरी क़सम खाए हैं कि सब करम करेंगे .... लेकिन किसी की पंचायती नहीं करेंगे। चाहे यह समाज रहे या जाए कोशी की बाढ़ में .... कोई जीए या मरे ... हमें कोई मतलब नही है। भाड़ में जाए दुनिया!  हम बजाएं हरमुनिया !! आपको लगता होगा कि हम खा-म-खा बकवास कर रहे हैं। हमारा गुस्सा नाजायज़ है। लेकिन आप जब बात सुनेंगे तो सब समझ जाएंगे।

अब क्या बताएं .... दिन भर कचहरी में मगज खपा कर अपनी पुरानी खर-खरिया सायकल पर चढे चले आ रहे थे। उतरबारी टोला पहुंचे ही थे कि उधर से खखोरन काका बायां हाथ झुकी हुई कमर पर रखे और दायें हाथ को वर्षा में कार का शीशा पोछने वाले वाइपर जैसे तेजी से हिलाते एकदम झटक-झटक कर चले आ रहे थे। आ..हा...हा... वह तो हमरी सायकल बच्चों वाली सायकल की तरह मंद गति से आ रही थी नहीं तो धक्का तो लग ही जाता। जैसे-तैसे चक्का से सट के काका रुके और कमर पर रखे हाथ का जोर बढ़ा दूसरे हाथ को हेड-लाईट के ढक्कन की तरह आँखों के ऊपर रख कर हाँफते हुए बोले, "बौआ... रेलवे तरफ़ से आ रहे हो क्या ?"

हम बोले, "हाँ, काका ! मगर आप इतना घबराए हुए कहाँ जा रहे हैं?"

खखोरन काका हमारी सायकल का हेंडिल पकड़ कर कमर को सीधा करते हुए बोले, "अब क्या बताएं बिटवा ! इस बुढापे में हमको और कौन-कौन दिन देखना बचा है, राम जाने ? ये सब मौत दिखाने से पहले भगवान हमको उठा क्यों नही लेते...!" कह कर काका एकदम से फफक कर रो पड़े।

हम साईकिल को स्टैंड पर खड़ा कर के काका का कन्धा पकड़ कर बोले, "काका ! आप बच्चों की तरह क्यों रो रहें हैं ? अरे कुछ बताइये तो सही कि बात क्या है ?"

कक्का कहने लगे, "हमारा छोटका बेटा और उसकी बहू है न सिंघपुर वाली... परसों से ही दोनों मियां-बीवी में पता नही किस बात की खट-पट चल रही थी। आज सुबह में बात और बिगड़ गयी.... मरद जात ! कितना सहे... मंगरुआ … शायद दू-चार हाथ रख दिया। उस पर उसकी औरत ने जो हंगामा मचाया है, पूछो मत बौआ ! मेरी और तुम्हारी काकी के तन-बदन का भी एक भी गत नही छोड़ी, इस बुढ़ापे में। चूल्हा-चौका छोड़ कर दिन भर हमें जली-कटी सुनाती रही। अभी सांझ भरे छौड़ा आया है, तो फिर एक झोंक और हो गया। हम समझाने गए तो पासा उल्टा ही पड़ गया... गाली-श्राप भी दिया उसने और छोकरे के साथ-साथ हम बूढा-बूढ़ी पर भी इल्जाम लगाते हुए भागी है रेल में कटने। पीछे से छौड़ा भी गया है... ! मुझसे तो दम नही धरा जा रहा है। पता नही क्या हुआ... !!" इतना कह खखोरन काका गमछी की खूंट से आँख पोछने लगे।

हमने कहा, "कुछ नही होगा काका ! चलिए देखते हैं कहाँ गए हैं दोनों।" फिर हमने सायकल घुमाई और कक्का को बैठा कर खरंजा वाली सड़क पर अपनी खर-खरिया को रॉकेट की तरह उड़ा दिए।

रेलवे किनारे कोस भर खोजे मगर कोई चख-चुख सुनने को नहीं मिला ... जैसे-जैसे उनके मिलने में देर हो रही थी, काका के हृदय की धुक-धुक्की लोहार के भाथी जैसे बढी जा रही थी। घूम-फिर कर हम लोग गौरी पोखर पर पहुंचे। वहाँ सांझ के झल-फल में दो परछाईयां दूर से ही दिखाई दी। हमने कक्का को भरोसा दिया।

सच में, वही दोनों थे!

मैं उनके पास गया। देखा जोरू जोर लगा रही थी। मरद उसका हाथ पकड़े कभी समझा रहा था तो कभी डरा रहा था। हम भी लगे दोनों को समझाने। लेकिन यह क्या ... हमारी गोद में खेला मंगरुआ लगा हम पर ही खिसियाने। ससुर का नाती तैश मे आकर कहने लगा, "वो कोट-कहचरी का धमकी हमें ना दिखाओ... ! नही तो तुम भी कुछ सुन जाओगे !!"

हम दपट दिए उसको तो चुप होय गया, मगर सिंघपुर वाली के तो सच में सिंघ फूटे थे। लगी हमारे खानदान का उद्धार करने, "दिन भर कहचरी में दांत निपोरते हैं और अभी हमारे मरद को सिखाने चले हैं। अपना घर से बाहर तक कौन गत बचा है, …  जैसे किसी से छिपा है।"

उसका प्रवचन सुन कर और लोग भी इकट्ठा हो गए थे। मुझे भारी बेइज़्ज़ती लग रही थी। हम से भी रहा नही गया। बोले, "जुबान को लगाम दो दुल्हिन, नही तो बहुत ख़राब होगा। तब से समझा रहे हैं, हमारा गुस्सा अभी नही देखी हो तुम !"

अरे बाप रे बाप ! हमारे मुंह से इतना निकला नहीं कि वह नागिन की तरह और मंगरुआ नाग सांप की तरह हमारे ऊपर फुंफकार छोड़ने लगा ! कहने लगा, "हे... इतना रोब मत दिखाओ, भैय्या ! क्या कर लोगे गुस्सा आ गया तो ? अभी उसका मरद जिंदा है !"

सिंघपुर वाली का हाथ पकड़ कर बोला, "इसका हाथ पकड़े हैं रक्षा के लिए। हमारे रहते जो कोई भी इसपर आँख उठाएगा उसकी आँख निकाल लेंगे।"

अभी तक मंगरुआ से हाथ छुड़ा रही सिंघपुर वाली भी उसी के सीने से चिपक कर लगी हमारी तरफ़ हाथ चमकाने। फिर दोनों हाथ में हाथ दिए अंधेरे में घर की राह पकड़ लिए।

हमने अपनी खीझ खखोरन काका पर ही उतारा। बोले, "लो काका जी, आपका बेटा-पतोहू तो गए हाथ में हाथ धरे ! और हम बीच मे बेकार में लबरा बन गए!”

उधर भीड़ में से बादल को छांट कर निकलते हुए सूरज की तरह शकुंतला फुआ प्रकट होते हुए बोली, "हाँ रे बेटा ! मियाँ-बीवी के झगरा ! पंचायती करे लबरा !! औरत-मरद के बीच में तो बोलना ही बेकार है। देखा तीन दिन से कित्ता नौटंकी कर रहे थे। अभी समझाने वाले पर ही पलट गए। तुरत रूठना-मनाना, रेल में कटना, पोखर में डूबना और क्षण में ही कैसे सब को बुरबक बना गलबहियां डाले चले गए !!! सच मे, मियाँ-बीवी के झगरा ! पंचायती करे लबरा !! देखा लैला-मजनू ने कैसे सबको लबरा बना दिया !!!"

फुआ तो एक बार कह के चुप हो गयीं। लेकिन वहाँ खड़े सारे बच्चे तो कविता ही बना दिया।" मियां-बीवी के झगरा ! पंचायती करे लबरा !!" पढ़-पढ़ के लगे हमारी ओर देख कर ताली बजाने। अब आपही बताइये, इस बात पर गुस्सा आएगा कि नही ? क्या नाजायज़ है हमारा गुस्सा ?? तभी से हमने उल्टे हाथ से कान पकड़ा कि अब किसी की पंचायती नही करेंगे। ख़ास कर मियाँ-बीवी का तो भूल कर भी नहीं।

लेकिन एक बात है। हम लबरा बने तो बने। एक कहावत भी तो बन गया, "मियाँ-बीवी के झगरा ! पंचायती करे लबरा !!" (सांय-बहू के झगड़ा, पंच बने लबड़ा)

मतलब ::

करीबी लोगों की छोटी-छोटी बातों में दखल देना बेवकूफी ही है।

 

हाँ तो हुज़ूर ! हम तो एक बार लबरा बन ही चुके हैं ! आप दोबारा मत बनाइएगा। और इस कहानी पर अपनी राय ज़रूर दीजिएगा !!!

तो अब चलते हैं। जय राम जी की !! मिलेंगे अगले रविवार को ... और बताएंगे कि कहानी कैसे बनी?

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7 टिप्‍पणियां:

  1. सुंदर और सजीव भाषा के कारण अभिव्यक्ति सुंदर जान पड़ी है ....मियां वीबी में अक्सर जो होता यह सब जानते है , प्यार जहाँ -तकरार वहां

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  2. :) :) ...बहुत बढ़िया ...पर आज कल लोंग कहते हैं रिंग द बैल ....घरेलू हिंसा को रोको ..तो भैया लबरा बनते होंगे सब ...

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  3. मियाँ-बीवी के झगरा ! पंचायती करे लबरा !!

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  4. सच कहा आपने बाट तो जोहते हैं जी हम की कहानी कैसे बनी ....और शुक्रिया आपका की आप हमारे इंतज़ार को मंजिल दे देते हैं.

    सुंदर और सच कहा...एक मियां बीबी और एक बच्चे इनकी लड़ाई में तो कभी नहीं पड़ना चाहिए.

    सुंदर प्रस्तुति.

    आभार

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