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रविवार, 14 नवंबर 2010

कहानी ऐसे बनी-१२ :: बिना बुलाये कोहबर गए

हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतिम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रही इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी।         रूपांतर :: मनोज कुमार

कहानी ऐसे बनी-१२

बिना बुलाये कोहबर गए

हा ... हा... हा ... ! हा ... हा... हा .. हा ... !! आ ... हा .. हा ... हा ... हा !!! अरे बाप रे बाप ! हा ... हा... हा ... !!!! रविवार की सुबह हो गई। आप लोग भी कहानी ऐसे बनी का इंतजार कर रहे होंगे ..... ! हा ... हा ... हा .... !! लेकिन क्या बताएं .... मारे हंसी के दम नहीं धरा जा रहा है। हा... हा ... हा .... !!! बड़का भैय्या कल ही ससुराल से आये हैं। शाम में ऐसा किस्सा सुनाये कि हंसी रुक ही नहीं रही है। हा ... हा .... हा .... हा ..... !!

पिछले सप्ताह बड़का भैय्या ससुराल गए थे, अपने मझिला साला के शादी में। आ .. हा ... हा .... भगवान सबका घर आबाद वाद करें। भैय्या का साला बेचारा सोलह सोमवारी का व्रत रखा था। तब जा कर यह रिश्ता पक्का हुआ। फिर भी कोई अंतिम समय अड़चन न पड़े ... सो बेचारे ने लगन निकलते ही सत्यनारायण भगवान की पूजा कबूल ली .... "हे भगवान ! भले-भली हमारी 'लीलावती-कलावती' मिल जाएँ तो मधु-यामिनी से पहले ही पान-फूल और पांच खंड नैवेद लेकर आपकी पूजा करेंगे।"

इस अंदेशा के बावजूद भी बेचारा था बहुत खुश। उछल-उछल कर जोरा-जामा-जूता बनवाया। जयपुरिया पगरी का और्डर दिया...। आई-माई पौनी पसारी के साड़ी-धोती, न्योत-निमंत्रण से लेकर एंड-बैंड सब का जोगार .... बेचारा भूख प्यास भूल कर लगा रहा। जैसे-जैसे दिन नजदीक आ रहा था, बेचारे की ख़ुशी का पारावार उमरा जा रहा था। इसी ख़ुशी में गधे के सिंघ की तरह ऐसा गायब हुआ कि आज तक नजर नहीं आया। खैर, भैय्या के मुंह से ही सही, ब्याह का आँखों देखा हाल सुन कर हँसते-हँसते अभी भी पेट में बल पड़ रहे हैं।

भैय्या को तो पहिले अपनी ससुराल खोजने में ही ढाई चक्कर लगाना पड़ा। ऊँह .... पचासों आदमी लगे हुए थे पंडाल बांधने में। भैय्या झट से पॉकेट से पुर्जी निकाल कर पता देखे... “अरे पता तो यही है! फिर हमारी ससुराल कहाँ चली गई इस अगहन के महीने में किस दुर्गा-पूजा के पंडाल में हम पहुँच गए...?"

भैय्या अपने मन में यह बात कह ही रहे थे कि उधर से ससुर जी तम्बाकू पर ताली मारते हुए निकले और व्यस्त हो गए मजदूरों को निर्देश देने में। भैय्या ससुरजी के पैर छुए तब जा कर उनकी नजर पड़ीं .... 'पाहून ... !' फिर तो पाहून आये - पाहून आये का शोर मच गया। बड़का साला-छोटका साला... साली सलहज -ऊपर बाहर निकल पड़े। बालकनी से सासूजी और खिड़की से सरहजें झाँकने लगी। एक खवास समान उठा कर अन्दर ले गया। पीछे भैय्या भी दरवाजे पर जा कर बैठे। चाय-पानी के साथ-साथ वर-बारात व्यवस्था-बात पर चर्चा चलने लगी।

लगन के घर में कहीं समय का पता चलता है। गीत-गाली, रंग-रहस करते-करते ब्याह का दिन आ गया। भैया का मझिला साला पीला धोती पहने कलाई पर आम का पत्ता बांधे दिन भर बेतार वाला फोन पर पता नहीं किससे कितना बतिया रहा था। बीच-बीच में ब्रेक लेकर उबटन भी मलवा लेता था। दस बजे दिन में ही बाजा वाला भी पहुँच गया। ढोल पुजाई हुआ और शुरू हो गया.... 'आज मेरे यार की शादी है....!'

दिन भर ये विध, वो व्यवहार.... ये आये... वो निकले... सब व्यस्त। इधर घड़ी का कांटा दो पर गया और दूल्हा जी घुस गए बाथरूम में। पता नहीं.... नहा रहे थे कि दहा रहे थे। वो तो लोग-बाग़ बार-बार किवाड़ पीटने लगे तो बेचारा निकला। चार बजे से ही जोरा-जामा पहन कर कुर्सी छेक कर बैठा और सबको लगा हरकाने। ज़ल्दी करो जल्दी करो, सांझ हो गया, बारात निकलेगी। और बारात क्या ... समझिये कि 'देखले कनिया देखले वर ! कोठी तर बिछौना कर !!' इस गली से निकल कर उस मोहल्ले में जाना था। लेकिन साले साहब को भरोसा कहाँ।

खैर सूरज ढलते ही बेचारे घोड़ी पर सवार हो गए। अब तो बारात निकलना मजबूरी ही थी। भाई बारात ही तो एक ऐसा मौका होता है कि जिसके पैर में चक्की बंधी हो वह भी दो बार कूद जरूर लेगा। सो दूल्हा लाख ज़्ल्दबाज़ी करे लेकिन बिना नाच के बारात कैसी। इस पांच मिनट के रास्ते नाच-गान के चक्कर में पांच कोस हो गया था। वो ...... दूर से एक और सजा सजाया पंडाल जैसे ही दिखा कि दूल्हे की अधीरता तो समझिये कि सौ गुना बढ़ गई। अब शादी की घोड़ी तो अंग्रेजी बाजा के ताल पर ही चलेगी लेकिन दूल्हा इतना अधीर हो चुका था कि लोग हाँ .. हाँ ... न … करते तो बेचारा उतर कर दौर पड़ता। फिर बाजा वाला 'आगे बाराती पीछे बैंड बाजा ....' वाला धुन बदल कर, 'जिमी .... जिमी .... जिमी ... ! आजा ... आजा ... आजा ... !!' लगा दिया तब जा के घोड़ी का कुछ स्पीड बढ़ा और दुल्हे राजा की उम्मीद।

जल्दी-जल्दी गल-सेंकाई हुआ। फटाक से महाराज जी मंडप में पहुंचे। दूल्हा के दो -चार दोस्त और भैय्या लोगों के लिए मंडप के पास ही बैठने की ख़ास व्यवस्था थी। संयोग देखिये कि पंडित जी किराए वाले ही थे। बस, फास्ट-फॉरवार्ड बटन दबा दिए। फटाफट सारा विध-व्यवहार होते हुए नौ से बारह के शो की तरह ब्याह भी कम्प्लीट हो गया। कनिया की सखी-सहेली गीत-नाद गाती हुई, उन्हें लेकर कोहबर की तरफ बढ़ चली।

दूल्हा वहीं खड़े दोस्तों से दो-चार बात किया। फिर पता नहीं क्या याद आया .... बेचारा दौड़ पड़ा कोहबर की तरफ। जैसे ही करीब पहुंचा .... हल्ला हो गया ..... 'जा ... जा .... दूल्हा आ गया .... कैसा धर-फरिया दूल्हा है .... अभी विध बांक़ी ही है ! जा .. जा ... !! आनन-फानन में दुल्हन की माँ बीच में रास्ता रोकते हुए बोली, "पाहून!! यहाँ कहाँ आ गए ? अरे, अभी यहाँ पर विध हो रहा है। आपको बुलाया जाता, तब आना चाहिए था न ... !" कनिया की माँ बेचारे दुल्हे की अधीरता क्या समझे ... उनको तो विध की पड़ीं थी। लेकिन सखी-सहेलियां कहाँ चूकने वाली थीं। हंसी का ऐसा पटखा फूटा और लगी दुल्हे राजा से मजाक करने, "बिना बुलाये कोहबर (सुहाग-कक्ष) धाये ! कनिया की माँ पूछी, आप कहाँ आये ??" हा .. हा ... हा .... !! इतना कहते-कहते भैय्या की भी हंसी नहीं रुकी ! हा...हा...हा.... !! महराज अब क्या बताएं, हम तो कल्ह सांझे से ही हँसते-हँसते बेदम हैं। हा ... हा ... हा ... !

लेकिन देखिये, हंसी-मजाक में एक कहावत बन गई ... "बिना बुलाये कोहबर धाये ! कनिया की माँ पूछी, आप कहाँ आये ?" और इस कहावत में अर्थ भी छुपा हुआ है बड़ा चमत्कारी।

मतलब कि

'रिश्ता चाहे जैसा भी हो, जितना भी ख़ास हो, लेकिन बिना बुलाये नहीं जाना चाहिए। नहीं तो आपको भी खा-म-खा सुनना पड़ेगा, "बिना बुलाये कोहबर धाये ! कनिया की माँ पूछी, आप कहाँ आये ??"

हा .. हा ... हा .... !! वैसे बिना पूछ-ताछ के अपने मन से सब जगह टपकने वाले भैय्या के साला की तरह यह सब तो सुनते ही रहते हैं। हा ... हा ... हा ... !!

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4 टिप्‍पणियां:

  1. :):) बहुत बढ़िया ...कहानी बहुत ज़ोरदार रही ..

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  2. मिथिला से मणि चुन चुन कर ला रहे हैं आप करन जी... आपका शोध अदभुद है..

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  3. दिनांक 06/01/2013 को आपकी यह पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत है .
    धन्यवाद!

    “दर्द की तुकबंदी...हलचल का रविवार विशेषांक....रचनाकार...रविकर जी”

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