मनोज कुमार
पिछले अंक
इतिहास :: "ये फसल इसलिए उगाता हूँ कि क्योंकि इन्हें खा नहीं सकता" –१
इतिहास :: "ये फसल इसलिए उगाता हूँ कि क्योंकि इन्हें खा नहीं सकता" -२
ब्रिटिश सरकार की वाणिज्यीकरण की नीति के तहत 1833 ई. में अंगरेजों को भारत में जमीन खरीदने तथा बगाल लगाने की अनुमति मिल गई। अंगरेजों ने बगान लगाकर उसमें काम करने वाले श्रमिकों की जो दुर्दशा की उसका वृतांत स्पष्ट करता है कि भारत को कृषि के वाणिज्यीकरण से कोई लाभ नहीं हुआ। बंगाल की प्रमुख पैदावार थी धान। अंगरेज यहाँ के किसानों को जबरन नील की खेती करने पर मजबूर करते थे, जबकि किसान अपनी बढि़या उपजाऊ जमीन पर धान उगाना चाहते थे। ज्यादातर नील उत्पादक यूरोपीय थे। इस क्षेत्र में नील उगाने वाले खेतिहरों पर उनका अत्याचार प्रबल था। इसके अलावा इस क्षेत्र के साहिब जमींदार अपने रैयतों से ऊंची दर पर नियत लगान वसूलते थे। नील की पैदावार में किसानों को मुनाफा भी काफी कम एवं अनिश्चित होता था तथा फसल के नष्ट हो जाने का खतरा भी बना ही रहता था। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत से नील इंग्लैंड भेजा जाता था। जिन देशों को नील खरीदना होता था, वे अब भारत से न खरीद कर इंग्लैंड से खरीदते थे। इससे अंगरेजी पूँजीपतियों को काफी लाभ हुआ।
इसी तरह चाय बगान की खेती भी शुरू हुई। 1835 ई. में पहला चाय बगान लगाया गया। भारत में उत्पादित चाय लंदन में बेची जाती थी। चाय बगान में स्थानीय लोग काम करना नहीं चाहते थे। अतः दलालों के जरिये दूसरे क्षेत्रों से श्रमिकों को लालच देकर यहां काम करने के लिए लाया जाता था। फिर इनकी हालत गुलामों की तरह ही हो जाती थी। वे यहां से अपनी मर्जी से जा नहीं पाते थे। इन लोगों का शोषण किया जाता था जो स्पष्ट करता है कि वाणिज्यीकरण की प्रक्रिया से किसानों एवं मजदूरों की समृद्धि कतई नहीं हुई।
पूर्वी बंगाल में जूट की पैदावार होती थी। व्यापारिक हितों को ध्यान में रख कर सरकार द्वारा इन कृषि-उत्पादनों को बढ़ाने के लिए अग्रिम धन राशि भी दी जाती थी। यह ऋण के रूप में होता था। फसल पैदा होते ही सूद सहित मूल भी चुकाना उनकी मजबूरी होती थी। अकसरहाँ वे पूर्णरूपेण ऋण से मुक्त नहीं ही हो पाते थे। बल्कि ऊपर से उन्हें लगान भी कैश में देना होता था जिसके लिए भी कई बार ऋण लेना पड़ता था। इस तरह यह कुचक्र चलता रहता था।
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध तक ब्रिटिश का सामुद्रिक एवं वैदेशिक व्यापार पर पूरा नियंत्रण था। अतः निर्यात से हाने वाले मुनाफे पर लगभग पूरा का पूरा कब्जा विदेशी कंपनियों को ही था। ये धन विदेश चले जाते थे। कुछ हिस्से भारतीय व्यापारियों एवं महाजनों तथा बिचौलियों के पल्ले भी पड़ता था। पर वह ऊंट के मुँह में जीरे के फोरन के बराबर होता था। किन्तु ऐसे चारा डाल कर ब्रिटिश यहां के जोतदारों एवं कृषकों को जुताई-बुआई के लिए अग्रिम राशि देते थे। ये निर्धन कृषक बुरी तरह ऐसे ऋणों पर आश्रित होते जा रहे थे, क्योंकि जमीन के किराए का बोझ बढ़ता जाता था। एक उदाहरण लें बिहार एवं यू.पी के चीनी मिल मालिक जमींदारों एवं महाजनों को ठेकेदार के रूप में नियुक्त करते थे। इनका काम होता था स्थानीय कृषकों से गन्ना संग्रह करना था मिल मालिकों को पहुँचाना। अब अपने इस काम में वे कृषकों को ऋण मुहैया कराते थे ताकि पैदावार अवाधित होती रहे। बस इस कुचक्र में भू स्वामियों एवं साहूकारों द्वारा गरीब, निरीह कृषकों का अविराम दोहन शोषण होता था।
किन्तु इस व्यवस्था से न तो भारतीय जमींदार वर्ग का फायदा हुआ और न ही कृषकों का। यह तो औपनिवेशिक शक्तियों के इरादे की पूर्ति में सहायक हुआ। उनका उद्देश्य था आर्थिक एवं कृषि अधिशेष को भारत से निकालना। हालांकि कहीं कहीं आधुनिक सिंचाई व्यवस्था, एवं अन्य उत्पादकता तकनीकी विकास तो हुए, जैसे दक्षिण का कपास क्षेत्र, आंध्र में गोदावरी कृष्णा एवं कावेरी का डेल्टा क्षेत्र, तथा तमिल नाडु एवं पंजाब के कई क्षेत्र, परंतु कृषि व्यवस्था को ऐसा बना दिया गया कि यह सब आधुनिकीकरण कृषकों के हित की रक्षा नहीं कर पाते थे। क्योंकि यहाँ की कृषि व्यवस्था दूर स्थित बाजार की मांगों पर पूरी तरह आश्रित थी। और इस मांग आपूर्ति के सिलसिले में बिचौलियों की महत्वपूर्ण भूमिका हुआ करती थी। जितने ज्यादा बिचौलिए, उतना ही ज्यादा कृषकों पर बोझ एवं मुनाफा कम। साथ ही बुरी तरह बदलते दरों की मार भी कृषकों को ही सहनी पड़ती थी। जैसे 1860 के दशक के शुरू में अमरिकी गृह युद्ध के कारण कपास के निर्यात की मांग काफी थी। अतः दक्कन के कापस क्षेत्र के कृषकों को काफी मुनाफा हो रहा था। वे काफी उत्साह से पैदावार कर रहे थे। पर 1864 में यह युद्ध खत्म हो गया और नतीजे के तौर पर कपास निर्यात में काफी मंदी आई और कीमतें हठात काफी नीचे आ गई। क्योंकि विश्व बाजार में उत्तर अमेरिका, अर्जेन्टीना एवं अस्ट्रेलिया से कच्चे कपास की भारी आपूर्ति होने लगी थी। कपास की कीमतों की गिरावट का किसानों पर बहुत बुरा असर पड़ा इसी दौरान 1867 ई. में सरकार ने भू राजस्व की दर में करीब .50% की वृद्धि कर दी बस क्या था भारी कर्ज के बोझ के नीचे दब गए बेचारे कृषक। उस पर से अकाल एवं कृषि दंगों ने सत्यानास कर डाला।
ज़ारी…… अगले अंक में समाप्य
इतिहास को सामाजिक दृष्टि दे रही है आपकी यह श्रंखला... बहुत ज्ञानवर्धक आलेख..
जवाब देंहटाएंसारगर्भित जानकारी ...शुक्रिया
जवाब देंहटाएंयह लेख अंग्रेजों के द्वारा बनाये कुचक्र को बता रहा है ....अच्छी जानकारी
जवाब देंहटाएंइतिहास में जाकर वर्तमान दशा पर सोचने को मज़बूर हुआ।
जवाब देंहटाएंbahut gyanvardhak prastuti hai. aabhari hun.
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